'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Saturday, January 31, 2009

भइया की परेशानियों को बांटने वाला आया

अनुराग अन्वेषी

दि

ल्ली पहुंचकर शुरू हुआ एम्स का सिलसिला। कई तरह की जांच प्रक्रियाओं में वक्त गुजरता रहा। भइया जहां रहता है (पांडव नगर) वहां से एम्स की दूरी करीब 20-22 किलोमीटर की है। हर तीसरे दिन एम्स जाना पड़ता। उतनी दूर की यात्रा में बहुत थक जाती थी मां। मैं, मामी और मां ही ऑटो में होते, भइया बस से वहां पहुंचता था। कुछ समझ में नहीं आता था कि डॉक्टर ऑपरेशन की तारीख क्यों नहीं निश्चित कर रहे हैं? पापा रांची में बेसब्री से हमारे फोन का इंतजार करते थे। हां, इस दरम्यान कई सुखद नतीजे हमारे सामने आये। एम्स के डॉक्टर ने पहली बार देखकर ही कहा, खाने-पीने में किसी परहेज की कोई जरूरत नहीं। और मां अपनी पसंद की कुछ चीजें खाने लगी। चूंकि खाना पचनता नहीं था इसलिए थोड़ा ही खा पाती थी। वहां की दवा से मां के पेट का दर्द तो करीब-करीब गायब ही हो गया। इससे मां को बड़ी राहत मिली। सप्ताह-दो सप्ताह मां का थोड़ा खाना 'बहुत थोड़ा' में तब्दील हो गया। दिन भर में मुश्किल से एक रोटी या थोड़ा चावल और तीन-चार बिस्किट।

25 अक्टूबर को मां की बायोप्सी हुई थी। मैं मां के पास हॉस्पिटल में था। पापा 26 की रात रांची से दिल्ली पहुंचे। दूसरे दिन सुबह वह एम्स आये। पता नहीं क्यों उस वक्त पापा को देखते ही मुझे बहुत तेज रुलाई आने लगी। मां की बड़ी-बड़ी आंखों में आंसू थे। बड़ी अजीब स्थिति थी मेरी। किसी तरह अपनी रुलाई पर मैंने काबू रखा। मां की कंपकपाती आवाज मैंने सुनी और कमरे से बाहर निकल गया।

उस अनजाने महानगर में पराग भइया की भागदौड़, कभी इस डॉक्टर के पास तो कभी उस। मैं अपाहिज की तरह मां के पास बैठा रहता। पापा को देखते मैंने बड़ी राहत महसूस की। लगा कि भइया की परेशानियों को अपने सिर पर उठा लेने वाला समर्थ व्यक्ति अब यहां आ चुका है। सचमुच, भीतर से अब मैं बड़ा आश्वस्त था।

(जारी)

Wednesday, January 28, 2009

सब-कुछ उलट-पलट

अनुराग अन्वेषी


ममें से किसी की भी छोटी से छोटी उपलब्धि पर मां खूब खुश होती थी। जब मैं जादू सीखने लगा, मेरी सबसे अच्छी दर्शक मां थी। मां के सामने ही मैं अपने किसी भी जादू के आइटम की पहली प्रस्तुति करता था। मां देखती भी बड़े चाव से थी और उसे आश्चर्य भी उतना ही होता था।

वर्ष 94 के उत्तरार्ध में मां की बीमारी बढ़ती गयी; इस बीच रेमी की पार्ट-III की परीक्षाएं भी सम्मपन्न हुईं। घर में रसोई की सारी व्यवस्था उलट-पलट हो गयी थी। एक तरफ दादी बीमार, दूसरी तरफ रेमी की परीक्षा। किशोरगंज से मंझली मामी आकर खाना बनातीं। बड़ा अजीब लगता था। मैंने निर्णय किया, जैसा भी बने खाना मैं ही बनाऊंगा। और फिर पूरे एक महीने तक यह व्यवस्था मेरे जिम्मे रही। मां अपनी बीमारी के बावजूद रसोई में बैठकर मुझे निर्देश देती रहती, और किसी तरह खाना बन जाता। फिर रेमी की परीक्षा खत्म हुई, दादी भी स्वस्थ हो गयी। पापा भी इस दरम्यान अपनी श्वांस की तकलीफ से परेशान रहे थे। मां के जोर देने की वजह से ही पापा ने सितंबर 93 में अपना शोध प्रबंध लिखना शुरू किया। अपनी बढ़ी हुई तकलीफ में भी पापा ने मां की इच्छा के लिए उसकी प्रेरणा से शोध प्रबंध जल्दी-जल्दी पूरा किया।

मां बहुत बीमार हो चली थी। किंतु अपनी पूरी बीमारी के दौरान भी वह पूरे परिवार के लिए सोचती रहती। मां को हमेशा लगता कि उसकी बीमारी से घर की सारी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी है।

रांची में विभिन्न डॉक्टरों की सलाह पर मां का खान-पान विशेष परहेज से चलने लगा। मां को भूख तो लगती मगर कुछ भी खाने पर वह पचता नहीं था। मां को उल्टी हो जाया करती थी। फिर जून-जुलाई माह में हमने फैसला किया कि मां को इलाज के लिए दिल्ली ले जाया जाये। इस बीच भइया भी फोन पर यह कहता रहा कि मां को दिल्ली लेकर आओ। कई मजबूरियों में यह तुरंत संभव नहीं हुआ।

30 सितंबर को मां, मामी और मैं दिल्ली के लिए रवाना हुए। मां इस समय तक (जैसा कि बाद में मां के कुछ आत्मीय लोगों ने बताया) मन से भी कमजोर हो चुकी थी। मां ने यह बात कभी भी हमलोगों पर प्रकट होने नहीं दी।

दिल्ली यात्रा के दौरान मैं यही सोच रहा था कि वहां एक छोटा ऑपरेशन होगा और मां स्व्सथ होकर लौटेगी। परिवार के अन्य लोग भी यही सोच रहे थे। पापा अपनी अस्वस्थता के कारण दिल्ली नहीं जा पाये। उन्हें धूल से परेशानी होती है और यदि दिल्ली में उनकी बीमारी बढ़ जाती है तो अलग से एक चक्कर होता। यह सब सोचकर ही हमने पापा को रांची में रहने को कहा।
(जारी)

Tuesday, January 27, 2009

मां का संतोष

भइया ठीक कहता है 'मन के कई दरवाजे ऐसे होते हैं, जिनकी कुंजी शब्दों के पास भी नहीं होती। शब्द दस्तक देते हैं, और लौट आते हैं। मां... बस... मां... है। इससे ज्यादा बताना मेरे लिए मुमकिन नहीं!' वाकई यही मैं भी महसूस करता हूं।

-अनुराग अन्वेषी

मां

को बहुत थोड़े में संतोष हो जाता था, चाहे वह खाने की कोई मनपसंद चीज हो या फिर शौक की कोई और चीज। पापा एकतरफ जितने मुक्तहस्त रहे खर्च के मामले में, मां उतनी ही बंधे हाथ। लेकिन ऐसा भी नहीं कि मां के इस स्वभाव को कंजूसी कहा जा सके। पापा एक झटके में कुछ भी खरीद लिया करते हैं, मां खरीदने से पहले कई बार उसकी उपयोगिता पर विचार करती थी। पापा और मां के ऐसे स्वभाव का ही यह नतीजा है कि आज हमारे पास जीने के जरूरी साधन हैं। पता नहीं इस साधन को इकट्ठा करने के लिए मां ने कितनी ही मनपसंद चूड़ियां, साड़ियां और अपने शौक के अन्य दूसरे सामानों का त्याग किया होगा। लेकिन कभी मां के चेहरे पर इस त्याग का दर्द नहीं उभरा, बल्कि हमेशा गहरा संतोष दिखता रहा। शायद यह संतोष सिर्फ हमें छलने के लिए होता होगा, और मन के भीतर दूसरे साधनों की चिंता रहती होगी और उचित अवसर के मुताबिक फिर एक नये सामान की खरीदारी और चेहरे का संतोष और भी गहरा।

उनको फिल्मों से विशेष लगाव था। टीवी पर कोई भी फिल्म चल रही हो, मां बड़े शौक से देखा करती थी। और ऐसे में अगर लाइट कट जाती तो मां के चेहरे पर झल्लाहट साफ झलकती थी। फिल्मों के प्रति मां के विशेष लगाव के कारण ही घर में वीसीआर आया। लेकिन मुझे याद नहीं आता कि मां ने कभी कहा हो कि फलां फिल्म का कैसेट ले आना अनुराग। मां ने कभी भी ला दो या फलां काम कर दो, नहीं कहा, बल्कि उनके कहने का ढंग होता कि आराम से, अभी नहीं, अमुक काम कर देना, या कर दोगे? मां की इस आदत पर मैं खीज जाता, चूंकि अक्सर मुझे आशा रहती कि मां मुझे आदेश करेगी कि अमुक काम अभी कर दो। यह मां का संकोच नहीं बल्कि उसकी सरलता थी।

उसके स्वभाव की एक खासियत और थी कि वह अपने बिगड़े मूड पर बहुत जल्दी काबू पा लिया करती थी, और फिर से सहज होकर अपने काम में लग जाती। मां की यह खासियत भइया के स्वभाव में स्पष्ट दिखती है। जबकि पापा और मेरे साथ ठीक उल्टा है, एक बार मन उखड़ा तो फिर संतुलित होने में एक-दो दिन तो लग ही जाते हैं। इस बीच सारे काम ठप, चाहे वे कितने भी जरूरी क्यों न हों।

भइया जब दिल्ली जा रहा था दूसरी बार, यह लगभग तय था कि भइया वहां रहेगा। पापा, रेमी, दादी, मां सभी का मन अशांत था लेकिन सबकी अपेक्षा मां संयत दिख रही थी। दो-तीन महीने बाद भइया जब वहां से लौट कर आया कुछ दिनों के लिए, मां बहुत खुश थी। मां को खुशी इस बात की भी थी कि भइया जो रांची में रहते हुए चाय तक बनाना नहीं जानता था, वह वक्त के साथ सब कुछ सीख रहा था। भइया का कोई भी लेक छपता, मां पूरा पढ़ा करती थी (अमूमन वह पढ़ती कम थी) और उसके मुंह से निकलता - बढ़िया लिखता है। भइया अक्सर रविवार की रात फोन किया करता था। पहले यह दिन शनिवार का हुआ करता था। मां की जब तबीयत खराब हो चुकी थी यानी 94 में भी मां देर रात तक जाग कर फोन का इंतजार किया करती थी। कई बार नींद आती रहती तो मां उठ कर कमरे में टहलने लगती। ऐसा भी नहीं कि फोन आने पर खुद ही फोन उठाती बल्कि पापा से कहती कि पराग का फोन है।

(जारी)

Monday, January 26, 2009

मां का बालमन

मैं 24 बरस का था, तभी मां चल बसी थी। मां के आखिरी समय में उसके पास दिल्ली में भइया, रेमी और पापा थे। मैं रांची में था दादी को लेकर। मां के आखिरी दिनों के बारे में घर के किसी भी सदस्य से मेरी आज भी कोई बातचीत नहीं होती। बल्कि कहें कि बात करने की मेरी हिम्मत नहीं होती। संस्मरण की किताब से बड़ी मुश्किल से मैं ये सारे संस्मरण कंपोज कर पा रहा हूं।

-अनुराग अन्वेषी

मै
ट्रिक तक अपनी कूद-फांद की वजह से अक्सर ही मेरे शरीर का कोई न कोई हिस्सा घायल होता रहता था और अक्सर डिटॉल या मरहम लगाते हुए मां से झिड़की सुननी पड़ती थी। मां झल्लाते हुए कहती, पता नहीं इसको क्या-क्या सूझता रहता है, कितनी बार कहा है कि शांति से घर में बैठो... तो सुनेगा नहीं। कभी पेड़ से गिरेगा, तो कभी बाल्टी से सिर फोड़ेगा, कभी कुत्ता काट लेगा, तो कभी पटाखा से हाथ जल गया। जो होना है इसी को होता है, देखो पराग भी तो है एक बच्चा, उसको चोट क्यों नहीं लगती? मैं चुपचाप गरदन नीचे किये हूं। आशंका है कि सफाई में कुछ कहूंगा तो शायद एक-दो चपत और मिल जाए।

मां की जो आदत मुझे बहुत प्यारी लगती है, वह थी उनकी खिलखिलाहट। इतनी तेज और इतनी निश्छल हंसी इस घर के किसी सदस्य के पास नहीं। पापा भी बड़ी तेज हंसते हैं, उन्मुक्त भाव से। लेकिन उनकी हंसी में वह आंतरिक खुशी नहीं झलकती जो मां की हंसी में थी।

मां के पास संस्मरण खूब थे और ऐसे-ऐसे कि हम सभी हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते थे। अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए मां बतलाती थी कि उस समय पहली या दूसरी कक्षा में वह रही होगी। परीक्षा के दिन थे। प्रश्न था कि नाक से सांस लेनी चाहिए या मुंह से। मां की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या लिखे। फिर उसने दिमाग खपाया और उत्तर उसे सूझ गया। उसने लिखा कि सांस मुंह से लेनी चाहिए क्योंकि मुंह का छेद सीधा होता है जबकि नाक का छेद नीचे से ऊपर की ओर। इसलिए नाक में हवा को घुसने में परेशानी होती है...।

एक दूसरी घटना मां ने ही बतायी थी। मुहल्ले की बड़ी लड़कियों के साथ मां स्कूल जाया करती थी। उस वक्त संभवतः बरसात का मौसम रहा होगा। मां कंधे पर बंदूक की तरह बड़ा छाता रख छोटे-छोटे कदमों से चला करती थी। धीमी चाल की वजह से उन लड़कियों से अक्सर टांट सुननी पड़ती। तेज चलने की कोशिश में लड़खड़ाने पर फिर से डांट। एक रोज हुआ क्या कि छोते के ऊपरी हिस्से में किसी लड़के का गला फंस गया। मां अपनी धुन में आगे बढ़ी जा रही है, लड़का अरे रे sss किये जा रहा है। दीदियों ने पलट कर मां को देखा और खूब टांट पिलाईं। उस रोज मां ने आकर अपने बाबूजी से कहा - हम दीदी लोग के साथ स्कूल नहीं जाएंगे। केवल टांटती रहती हैं। अब, जरा आप ही बताइए कि हम आगे देख के चलें, कि पीछे, कि नीचे?

और इतना बताने के बाद मां फिर से ठठा कर हंस पड़ती थी। हमलोग तो उस दृश्य की कल्पना कर बेहाल हुए जाते थे और मां तो उसी उम्र में पहुंच कर खिलखिलाती रही थी।

मां के भीतर इतनी उम्र के बाद भी बचपन का वह निश्छल मन बचा रह गया था। मां न तो बातों को घुमा कर कहना जानती थी, और न ही गंभीरता से झूठ कहना। मैं या मेरे जैसा कोई भी व्यक्ति किसी को बरगलाना चाहे या किसी को फुसलाना चाहे तो अपने शब्दों से, अपनी प्यारी बातों से फुसला सकता है लेकिन मां... उसका तो शायद इस रणनीति से पाला ही नहीं पड़ा था। सोचता हूं कि इतना निर्दोष महिला कई बार छली गई होगी। लेकिन दूसरी तरफ यह भी लगता है कि छलने वाला जब महसूस करता होगा मां के निर्मल मनोभावों को , तो शायद अपना इरादा बदल देता होगा।

मैंने कई-कई बार मां से झूठ कहा; कभी इस काम के लिए तो कभी उस काम के लिए। लेकिन हर झूठ के बाद मुझे शर्मिंदगी का अहसास होता था। मुझे लगता था कि शायद बहुत बड़ा अपराध कर रहा हूं मैं; नतीजतन, दूसरे-तीसरे दिन तक मां को सारी सच्ची बातें बता दिया करता। मां ऐसे में सिर्फ मुस्करा दिया करती और मुझे बड़ी राहत मिलती थी।
(जारी )

Sunday, January 25, 2009

अभिशप्त घर

आत्मवंचना

बड़ी मुश्किलों को दौर होता है
जब आदमी होना
संत्रास बन जाए
हमारे सोच की परिधि
सिर्फ अपने को ही घेर ले तो खुद से भय होता है
इस तिलिस्म से
छूटने की छटपटाहट
किसमें नहीं होती
लेकिन हम सब
आत्मवंचना में जी रहे हैं अपना लहू पी रहे हैं।

-अनुराग अन्वेषी, 11 फरवरी'95,
सुबह 10.25 बजे

यांत्रिक घर में
बाढ़ की विभिषिका
लाती है नदी।
जिंदगी मुहानों को तोड़ती है।
प्रदूषित सभी दिशाओं के पर्यावरण में
आंदोलित है
आदमी।
आदमी बीमार फेफड़ों में
ताजा हवा भरने को आतुर है।
मगर अपने अभिशप्त घर में
दिया सलाई लगाकर
एक-दूसरे को डराकर
हम जी रहे हैं।
अपना लहू पी रहे हैं।
(शैलप्रिया की कविता 'अभिशप्त घर' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)

Thursday, January 22, 2009

सूरज और मैं

समीकरण

पुराणपंथी परंपराएं टूटती हैं।
घुन खाए संस्कार की लाठी के सहारे
लगातार चल नहीं सकता कोई
यह तो तय है
किंतु बिल्ली के गले में
घंटी कौन बांधे - जैसे प्रश्न
अक्सर हमें
हमारी औकात बता देते हैं
कि हम
सिर्फ ढोल और नगाड़े की थाप पर
थिरक सकते हैं
डंके की चोट पर
सच कहने का हौसला
हमारे भीतर नहीं
तो फिर
उपमाओं से लदे सूरज
को पुराणपंथी कैसे कहूं?

-अनुराग अन्वेषी, 10 फरवरी'95,
रात 10.25 बजे

विरासत में मिला
संस्कार
किसी लेबल की तरह
चिपक जाता है हरबार।
कि चिड़ियों के अजायबघर में
बिल्ली को देखा था
रोते,
अपना दुख-दर्द बांटते।

समय
कितना परिवर्तनशील है,
यह जाना था तुमसे,
कि तुम्हें किया था प्यार
दहकते उजालों से भरपूर।

एक प्रश्न कुरेदता है बार-बार।
यह अहसास
कि
उपमाओं से लदा सूरज
पुराणपंथी है,
रास्ते नहीं बदलता,
लकीर का फकीर है
मेरी तरह।

(शैलप्रिया की कविता 'सूरज और मैं' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)

Tuesday, January 20, 2009

साक्षी


आग-राग

आग मेरे भीतर है।
राख मैं भी हुआ हूं।
पर आग, किसी समझौते का नाम नहीं मित्र।
बल्कि आग होना नियति हो गयी।

जब सभी संभावनाएं
शेष हो जाएं,
तो आग साक्षी होती है,
हमारे उबलने की।
और हम लिख देते हैं,
उम्र की चट्टान पर कई अक्षर।
इस उम्मीद में,
कि शायद कभी,
फिर कहीं पैदा हो
आग।

-अनुराग अन्वेषी, 9 फरवरी'95,
रात 1.00 बजे

जिस अग्नि को साक्षी मान कर
शपथ लेते हैं लोग,
उस पर ठंडी राख की परतें
जम जाती हैं।
मन की गलियों में
भटकती हैं तृष्णाएं।
मगर इस अंधी दौड़ में
कोई पुरस्कार नहीं।

उम्र की ढलती चट्टान पर
सुनहरे केशों की माला
टूटती है।
आंखों का सन्नाटा
पर्वोल्लास का सुख
नहीं पहुंचाता।
मगर एक अजन्मे सुख के लिए
मरना नादानी है,
जिंदगी भंवर में उतरती
नाव की कहानी है।
(शैलप्रिया की यह कविता उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)

लार्जर दैन लाइफ

मोहल्ला में अविनाश ने जिस सलीके से इस ब्लॉग का लिंक लगाया, उसके लिए अगर मैं उसका शुक्रिया अदा करूं तो वह हमारे संबंधों का बौनापन होगा। और लिंक लगाने के जज्बे की अगर चर्चा न करूं तो वह मेरा ओछापन...। बहरहाल चुप रहूंगा और इंतजार करूंगा अविनाश के संस्मरण का। फिलहाल प्रियदर्शन के लेख का आखिरी हिस्सा :

-अनुराग अन्वेषी

मां (आखिरी किस्त)
-प्रियदर्शन

अं

ग्रेजी में एक मुहावरा है 'लार्जर दैन लाइफ', उन दिनों हमारी जिंदगी भी जिंदगी से बड़ी लार्जर दैन लाइफ हो गयी थी। वह सामान्य नहीं रह गयी थी, अतिनाटकीय हो गयी थी और हमारे अतिमानवीय इम्तिहान ले रही थी। 3 तारीख को हमने दीवाली मनायी थी। मां से दीये जलवाये थे। उसकी आखिरी दीवाली। उसके कांपते हाथ दीयों जैसी मोमबत्तियां जला रहे थे और हमलोग सोच रहे थे कि जिंदगी रोशनी का यह वायदा ज्यादा दिन तक नहीं निभाएगी। मुझे अपने घर किसी त्योहार के मनने से जुड़ी सबसे प्यारी यादें हैं तो दीवाली की। दोपहर को हमलोग रूई की बाती बनाते थे, शाम को उन्हें दीयों में लगाकर और दीयों को परात में सजाकर छत पर जलाने ले जाते थे।

शायद कुछ और लिखने के इरादे से यह लेख शुरू किया था, मगर कुछ और लिखता चला गया। मां तक पहुंचने की कोशिश कई बार की, मगर हर बार डर गया। उसके आसपास से, अगल-बगल से निकल गया।
या ऐसा ही होता है? जिसे हम जानते हैं, उसके बारे में बताना मुश्कल होता है। क्योंकि जानना शायद शब्दों से परे की क्रिया है। या मन के कई दरवाजे ऐसे होते हैं, जिनकी कुंजी शब्दों के पास भी नहीं होती। शब्द दस्तक देते हैं, और लौट आते हैं।
मां... बस... मां... है। इससे ज्यादा बताना मेरे लिए मुमकिन नहीं!

वर्षों से चल रहे इस क्रम में बस उसी वर्ष व्यवधान पड़ा था। डॉक्टर ने कहा था कि ऑपरेशन की मेज पर ही मृत्यु की आशंका है। हमलोग एक तरफ तैयारी करते थे कि मां क्या पहनेगी, ऑपरेशन के बाद क्या खाएगी और दूसरी तरफ यह जानकारी हासिल करते कि अगर ऑपरेशन सफल नहीं रहा तो मां की लाश कैसे रांची जाएगी। मां ने कहा था, मन मजबूत कर लेना चाहिए और मैंने हंसते हुए कहा था कि हमलोगों ने कर लिया है, तुम अपना मन मजबूत कर लो। हंसी में व्यक्त क्रूरताएं भी मानवीय हो जाती हैं क्या?

और आखिरी दिन! उसके एक दिन पहले मां बहुत कमजोर हो चुकी थी। उठने में असमर्थ और पूरी तरह से निराश कि अब ऐसी जिंदगी जीकर क्या करना है। हमलोग हिम्मत बंधा रहे थे कि यह तो अस्थायी समस्या है, जल्दी ही वह अपनी कमजोरी से उबर आएगी। अगले दिन मां ने हिम्मत बांध ली थी। ग्लूकॉन डी लगातार पी रही थी। उस दिन उसे अच्छा लग रहा था, उसने मुझसे खुद कहा था। उम्मीदों के तार फिर जुड़ रहे थे। मां के पेट में दर्द भी नहीं था। मगर पापा के भीतर यह आशंका सिर उठा रही थी कि कहीं शरीर के भीतरी अवयव मर नहीं रहे हों। मैंने इस आशंका को तुरंत झटक दिया, शायद इसका मेरे तर्क से ज्यादा मेरी इच्छा से संबंध था। शाम को मैं चौकी खरीदने निकला। लौटकर आया तो रेमी ने बताया कि मां अचानक बहुत बेचैन हो गयी थी। लगातार मालिश से थोड़ी राहत मिली है। उधर मां को लगातार उलटियां हो रही थीं। मुझे लगा कि पानी की कमी की वजह से बेचैन हुई होगी। हमलोगों ने जोर दिया कि वह थोड़ा इल्क्ट्रॉल पाउडर का घोल पी ले। लेकिन उसके लिए वह बिल्कुल तैयार नहीं हुई। अचानक मैंने पूछा, 'लिम्का पियोगी मां?' उन दिनों मां लिम्का खूब पसंद करती थी और मेरा ख्याल है कि जितनी निरंतरता से उसने उन दिनों शीतल पेय लिये थे, उतनी निरंतरता से जीवन में कभी नहीं। उसने तुरंत हां कर दी। पापा अनिच्छुक थे। उन्हें लग रहा ता कि इससे अगर सर्दी लग गयी तो कमजोर शैल और परेशान होगी। मगर मां की इच्छा देख वह भी मान गये। मां ने लिम्का पी। उसके तुरंत बाद चूड़ा-दूध लिया। इस जल्दी में एक अस्वाभाविकता थी, जो अब समझ में आती है। फिर पापा को कहा कि वह उनकी पीठ दबा दें। रेमी को कहा कि 'गुडनाइट' ऑफ कर दे, पापा को दिक्कत होती है। तब तक मेरे दोस्तों ने, जो बगल के कमरे में खाना परोस रहे थे, हमें पुकारा। (मैं अपने तीन दोस्तों मंजुल प्रकाश, संजय लाल और राजेश प्रियदर्शी के साथ रहा करता था।) मैंने मना किया, मगर मां ने कहा, 'जाकर खा लो। पापा तो यहां बैठे ही हुए हैं।'

हमलोग खा ही रहे थे कि पापा की घबरायी हुई आवाज आयी। हमलोग वहां पहुंचे। मां पापा का हाथ जोर से पकड़े हुए थी। मुझे देखकर लड़खड़ाते हुए स्वर में मां ने कहा 'ताकत की दवा दे दो', मैंने तेजी से दवा दी। फिर अचानक लगा कि उसे कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा है। कुछ समय पहले उसने रेमी से कहा था कि कान में भारीपन लग रहा है, कल तेल डाल देना। यह उनके अवयवों के मृत होते जाने का प्रमाण था। पापा की आशंका सही थी। अगले ही क्षण लगा कि वह देख भी नहीं पा रही है। हम तीनों मैं, पापा और रेमी मां को पुकार रहे ते। मैंने अपने दोस्तों को डॉक्टर के लिए भेजा। पापा की आवाज रुलाई के करीब पहुंच चुकी थी 'शैल, हमलोग, कल ही रांची चलेंगे शैल! हमलोग कल ही चलेंगे।...

मगर शैल, उसके पहले ही चल दी थी। अचानक उसके मुंह से बहुत मात्रा में काला-हरा सा द्रव बह निकला। वह पिछले कुछ घंटों से लगातार उल्टी करने की कोशिश कर रही थी, ताकि उसे आराम मिले। उसके बाद एक बहुत हल्की सी हरकत हुई, जिसे मैंने भवों के पास और रेमी ने गरदन के पास पहचाना था। फिर उसकी सारी हरकतें हमेशा के लिए खत्म हो चुकी थीं। मां, शैल, शैल दी, शैलप्रिया जा चुकी थी, अपनी उम्र के अड़तालीस साल लगभग पूरे करके। 1 दिसंबर 1994 को रात 10:15 बजे के आस-पास।
डॉक्टर ने बताया था कि मरते वक्त मां बहुत तकलीफ में होगी। मगर ऐसा हुआ नहीं। उस दिन वह खुद भी छली गयी थी। मृत्यु के हाथों। पूरे दो महीने मां दिल्ली में रही। 1 अक्तूबर की रात से 1 दिसंबर की रात तक। पता नहीं नियति का यह कौन सा शाप था जिसे उसने दो महीने तक दिल्ली में काटा। जहां वह तमाम उम्र रही, जिस घर की दीवारों, ईंटों और छतों का बनना देखा, वहां से 1400 मील दूर दिल्ली के एक अनजाने मुहल्ले के अनजाने मकान में उसने अपने आखिरी दिन गुजारे। दो महीने का उसका घर... मगर इस घर की कथा मुझसे बेहतर पापा बता सकते हैं।

शायद कुछ और लिखने के इरादे से यह लेख शुरू किया था, मगर कुछ और लिखता चला गया। मां तक पहुंचने की कोशिश कई बार की, मगर हर बार डर गया। उसके आसपास से, अगल-बगल से निकल गया।

या ऐसा ही होता है? जिसे हम जानते हैं, उसके बारे में बताना मुश्कल होता है। क्योंकि जानना शायद शब्दों से परे की क्रिया है। या मन के कई दरवाजे ऐसे होते हैं, जिनकी कुंजी शब्दों के पास भी नहीं होती। शब्द दस्तक देते हैं, और लौट आते हैं।

मां... बस... मां... है। इससे ज्यादा बताना मेरे लिए मुमकिन नहीं!

Saturday, January 17, 2009

पता नहीं, कहां से मिल जाती है हिम्मत

दो दिनों के बाद अगली किस्त कंपोज करने की हिम्मत जुटा पाया हूं। किसी तकलीफदेह प्रसंग को दोबारा जीना कितना मुश्किल है यह अहसास यह ब्लॉग बार-बार करा रहा है। जी में आता है, इसे अधूरा ही छोड़ दूं। फिर मन कहता है, नहीं! इसे पूरा कर। नहीं पता इस ब्लॉग का सिलसिला कब तक जारी रख पाऊंगा। फिलहाल, भइया के संस्मरण का अगला हिस्सा।

-अनुराग अन्वेषी

मां (पांचवीं किस्त)

-प्रियदर्शन

टनाएं ढेर सारी हैं। अनगिनत कंटीली स्मृतियां, तारीखों के फन काढ़े नाग, अपनी बेबसी के खौलते हुए कड़ाह में अस्पताल में चक्कर लगाता मेरा वजूद, मां को दिलासा देने की कोशिश करती मेरी खोखली हंसी, पापा के अद्भुत धीरज का बांध, जो मां के देहांत के बाद सहसा टूट गया और वह कमजोर हो गये, रेमी की अनजानी प्रतीक्षा कि मां ठीक हो जाएगी, अनुराग की जज्ब की हुई भावनाएं, और-और हट्टियों का ढांचा होती मां। वह अचानक बहुत बूढ़ी लगने लगी थी। आयुर्विज्ञान संस्थान में उसके हमउम्र या उससे थोड़ा छोटे-बड़े डॉक्टर उसे मांजी कहते।

और तब मुझे पता चला कि डॉक्टर ने जो कहा, उसका मतलब क्या है। मैं आमतौर पर नहीं रोता। भीड़ में तो कतई नहीं। इसे अपनी बहादुरी नहीं, कमजोरी मानता हूं। मगर उस दिन एम्स के अलग-अलग कोनों में सुबकते हुए कितना समय बीत गया, पता नहीं चला। काफी देर बाद नीचे उतरा। अजीब-अजीब ख्याल। बस न आये। बस में मैं चढ़ूं नहीं। मां का सामना करने की नौबत न आये। बस आयी। मैं बस में चढ़ा। माथा घूम-सा रहा था। मानो बोझ ढोने का अहसास।

वह इस संबोधन पर हंसती थी, हमलोग भी हंसते थे, लेकिन इस हंसी के पीछे के सच का जो डरावना चेहरा था, उसे पहचानने से हम सब डरते थे। बहुत दिन बाद मां ने कभी आईना देखा था। देखा और देखती रह गयी, आर्त्त और स्तब्ध, 'यही मेरा चेहरा है!' उस दिन भी हमलोगों ने दिलासा दिया कि ठीक हो जाओगी।

मगर यह बाद की बातें हैं। उसके पहले भी जिंदगी कई बार उम्मीदों-नाउम्मीदों का झूला बनी थी। दिल्ली आने के पहले नाउम्मीद सी थी मां। शायद बहुत भरे मन से विदा हुई होगी वह। लेकिन दिल्ली आकर एक उम्मीद सी जग गयी थी। एम्स के पीले-धूसर गलियारे में भागते-दौड़ते डॉक्टरों-नर्सों के बीच एक पीली सी उम्मीद। मां की आंखें उन दिनों बिल्कुल पीली रहा करती थीं। सितंबर से उसे जॉन्डिस था, जो पीछा नहीं छोड़ रहा था। छोड़ता भी कैसे? दरअसल वह मृत्यु का संदेशवाहक होकर आया था। शुरुआती परीक्षणों के बाद संस्थान के डॉक्टरों ने 'बायोप्सी' के लिए ऐडमिट किया। सबको लगने लगा था कि एक बार दाखिला मिलने के बाद ठीक होकर लौटेगी मां। 25 अक्तूबर को मां 'बायोप्सी' के लिए भरती हुई। 26 की रात पापा रांची से दिल्ली पहुंचे। नयी योजनाओं से भरपूर, नये भरोसे से लैस। रांची में उनके मित्रों ने कहा था, उनका समय अच्छा चल रहा है। उन्हें पीएच. डी. की डिग्री मिली थी। राधाकृष्ण पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई थी। 26 तारीख को ही मां के शरीर से मांस के कतरे परीक्षण के लिए लिये जा चुके थे।

27 तारीख की शाम एम्स से छुट्टी मिल गयी थी। मैं, पापा और मां थे। हमलोग तीनों ऑटो से घर लौट रहे थे अपने थोड़े, बहुत सामानों के बास्केट के साथ। उस दिन बहुत हल्की-हल्की हवा बह रही थी। वह हवा अनायास मुझे बहाती हुई कई-कई साल पीछे ले गयी। बहुत साल पहले रांची में भी एक अस्पताल से टेंपो चला था। उस दिन भी मां को छुट्टी मिली थी। उस दिन भी टेंपों बस हम तीन ही थे। हां, साथ में सामान की तरह नवजात अनुराग भी था। उस दिन भी हवा चल रही थी और तीन साल का पराग 'हवा-हवा' करता हुआ चेहरा छुपा रहा था और उसके पापा-मां उसे संभाले हुए थे। इस घटना की बहुत मद्धिम सी याद मेरे भीतर है। वह भी शायद पापा-मां से कई बार सुनने के कारण एक धुंधली सी आकृति बन गयी है। तो उस दिन 27 अक्तूबर 94 को वह धुंधली सी आकृति मेरे भीतर बहुत-कुछ धुंधला-धुंधला कर गयी। पता नहीं, उस वक्त पापा-मां के दिमाग में यह साम्य कौंधा था या नहीं। मगर मुझे लगा था कि तीन लोगों का यह सफर कहां से कहां पहुंच गया। यह सफर जल्दी खत्म होने वाला है, इसकी आशंका उस भावुक स्मृति में कहीं से नहीं थी।

यह आशंका किसी विस्फोट की तरह सामने आयी थी। वह 2 नवंबर की तारीख थी। उस दिन सुब अनुराग और मामी रांची के लिए रवाना हो चुके थे। अगले दिन दीवाली थी। मैं करीब दो बजे के आस-पास एम्स गया। बायोप्सी की रिपोर्ट का पता करने। रिपोर्ट जहां होनी चाहिए थी, वहां नहीं थी। डॉ. पीयूष साहनी, जिनकी देखरेख में मां की जांच चल रही थी, ने मुझे एक दूसरे डॉक्टर के पास भेजा। वहां से रिपोर्ट मिल गयी। बल्कि रिपोर्ट नहीं थी, मां के पुरजे पर ही उस डॉक्टर ने कुछ लिख दिया। उसे लेकर मैं डॉ. साहनी से मिला। तब डॉ. साहनी ने मुझे बताया : कि मां को कैंसर है, और दुनिया के किसी कोने में भी मां को नहीं बचाया जा सकता और जब उन्हें जॉन्डिस हुई थी, उसके तीन महीने से लेकर छः महीने के भीतर उनकी मृत्यु निश्चित है।

जैसे किसी विस्फोट के तत्काल बाद कान सुन्न-से हो जाते हैं, मेरा दिमाग सुन्न हो गया था। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया। मैं कमरे से बार निकला। बाहर भीड़ थी, मरीजों की आवाजाही, ट्रालियों की खड़खड़ाहट, दीवार पर टंगे सूचना पट्ट, फुसफुसाहटें, कराह, खांसने की आवाजें, बंधे हुए पलास्टर, बदरंग दीवारें और इथर की-सी गंध - मैं फिर असली दुनिया में लौट आया था। और तब मुझे पता चला कि डॉक्टर ने जो कहा, उसका मतलब क्या है। मैं आमतौर पर नहीं रोता। भीड़ में तो कतई नहीं। इसे अपनी बहादुरी नहीं, कमजोरी मानता हूं। मगर उस दिन एम्स के अलग-अलग कोनों में सुबकते हुए कितना समय बीत गया, पता नहीं चला। काफी देर बाद नीचे उतरा। अजीब-अजीब ख्याल। बस न आये। बस में मैं चढ़ूं नहीं। मां का सामना करने की नौबत न आये। बस आयी। मैं बस में चढ़ा। माथा घूम-सा रहा था। मानो बोझ ढोने का अहसास। घर पहुंचा। पता नहीं, कहां से ताकत मिल गयी थी। मां अधीरता से इंतजार कर रही थी, 'डॉक्टर क्या बोला रे?' मेरे होठों पर ढीठ हंसी थी, 'तुमको बुलाया है, बोला कि पेशेंट को देखे बिना ऑपरेशन की तारीख देना मुश्कल है।' डॉक्टर ने कहा भी था, मरीज को लेकर आना।

इसके बाद का एक महीना पता नहीं कितने पृष्ठों की मांग करता है। एक-एक दिन का हिसाब स्मृति में अभी तक ताजा है। डॉक्टर से मेरी और पापा की बातचीत, डॉक्टर से मां के बचने की संभावना से पूरी तरह इनकार, बस उन्हें आराम पहुंचाने के लिए इंडोस्कोपी, यानी गले के जरिये पाइप डालकर भीतर की सफाई की तजबीज, टलती तारीखें, असफल होता इंडोस्कोपी का प्रयास, एक होम्योपैथ बंगाली डॉक्टर की दवाएं, अपने ही से डरी हुई उम्मीदें, लगातार क्षीण और क्षीणतर होती मां...।

(जारी)

Wednesday, January 14, 2009

कुछ बातें आखिरी दिनों के बारे में

पराग भइया की लिखी इन बातों को मैं कंपोज कर पा रहा हूं, यही बड़ी बात है। अब इंट्रो के तौर पर कोई बात कहने की हिम्मत नहीं बची है, सिवाए इसके कि मां बेतरह याद आती है।

-अनुराग अन्वेषी

मां (चौथी किस्त)

-प्रियदर्शन
ब कुछ बातें उसके 'आखिरी दिनों' के बारे में। शायद उसके व्यक्तित्व के कुछ पहलू खुलें। वह 1 अक्तूबर 94 की रात दिल्ली पहुंची थी। उसके साथ मामी और अनुराग थे। लगभग 32 घंटे से अधिक का सफर तय करके मूरी एक्सप्रेस से उतरते हुए वह कितनी क्लांत रही होगी, इसका अंदाजा उस दिन मुझे नहीं था। अनुराग उसे बांहों का सहारा दे धीरे-धीरे स्टेशन के बाहर ला रहा था। बाहर आकर वह बैठ गयी थी। उसके चेहरे पर बड़ी क्षीण मुस्कुराहट थी। शायद मुझसे मिलने की खुशी। उसके दो दिन पहले मैंने घर फोन किया था तो वह फोन पर रोने लगी थी। मेरा मन बहुत उद्वेलित रहा था। मगर उस रात रेलवे प्लेटफार्म पर उसकी दुबली-पतली काया देखकर एक सुकून सा हुआ। हमलोग करीब 12 बजे रात को घर पहुंचे। घर पहुंच कर पता चला कि मां के खाने में बहुत परहेज है। अगले दिन उसकी तकलीफों से मेरे परिचय के दिन थे। बहुत ही सादा खाना - बल्कि खाना भी नहीं बल्कि एक या दो रोटियां, पेट में लगातार दर्द और उल्टी। इस दौरान अनुराग ने बड़ी सेवा की थी। किसी कांच के सामान की तरह हिफाजत से रखता था। मां कांच की सी हो भी गयी थी। महीने भर बाद पापा आये थे तो उनके यही शब्द थे; 'कांच की हो गयी है शैल!' मगर मां कभी किसी बात की शिकायत नहीं करती। उसकी मृदुता उस तकलीफ के बीच भी ज्यों की त्यों बनी रह गयी थी। दिल्ली का पानी मां को रास आया था। वह थोड़ा हल्का होता है। इससे मां का लगातार बना रहने वाला पेट दर्द नहीं के बराबर रह गया था। दूसरी बात यह थी कि दिल्ली के डॉक्टरों ने उसे कोई परहेज करने को नहीं कहा। यहां चीजों के स्वाद से दुबारा उसका रिश्ता बना। वह खुश रहा करती थी। वह घर के भीतर थोड़ा-बहुत टहलती भी थी और शाम को छत पर चटाई बिछाकर अक्तूबर की हल्की नम हवाओं का सुख लेती थी।

मगर ऐसा नहीं था कि इस दौरान मां को कोई तकलीफ नही नहीं थी। वह अपनी तकलीफों के बारे में बहुत कम बताया करती थी। यह शुरू से उसके स्वभाव का हिस्सा था कि वह किसी बात के लिए जोर नहीं दिया करती ती। दुकान से सौदा लाना है, बाजार से सब्जी लानी है, अपनी दवाएं भी लानी है तो 'ला दो' नहीं, बस 'ला देना' या 'ला दोगे?'

उन दिनों एक सवाल मुझे अक्सर परेशान किया करता था। मां आजीवन रांची में रही। अचानक वह बीमार होकर दिल्ली चली आयी। दिल्ली वह पहली बार आयी थी। एक अजनबी शहर में इतना उदास, अकेले और बीमार दिन काटते उसे कैसा लगता होगा? ठीक है वह अपने बेटों के पास थी, मगर वह सबकुछ छोड़कर आयी थी, अपना भरा-पूरा घर, अपने तमाम रिश्तेदार, अपने परिचित-प्रशंसक-मित्र, अपनी गलियां-सड़कें, अपना शहर, यानी अपनी पूरी दुनिया।

क्या मां व्याकुल रहा करती होगी? यहां निस्संग हो उठने की उसकी ताकत उसका साथ देती थी। उसने घर-परिवार के बारे में सोचना छोड़ दिया था। हालांकि वह बहुत दूर तक स्मृतिजीवी थी। वह नाम और तारीखें भूल जाया करती थी, मगर घटनाएं कभी नहीं भूलती थी। मेरे, अनुराग और रेमी के जन्म के समय की कथाएं, दादी, पापा या अपनी बीमारी के समय की बातें, घर के मुश्किल दिनों की यादें (पापा-मां के शुरू के कई वर्ष गहरे संघर्षों के वर्ष रहे थे) अपने बचपन की स्मृतिया, अपने स्कूल के प्रारंभिक दिनों की यादें, स्कूल-कॉलेज की सखियां, उन दिनों की चुलबुली शरारतें, उन दिनों का भोलापन, उन दिनों की गलतियां - यह सब कुछ विस्तार से कई-कई बार वह बताया करती थी। हर किसी के भीतर अपने जीये हुए दिनों का एक खजाना होता है। कई लोगों के भीतर समय और सफलता की गर्द में यह खजाना गुम हो जाता है और कई लोग खुद ही बदल जाते हैं। जैसे वे जीये हुए दिन उनके नहीं, किसी और के थे और उन्हें उन दिनों घटी घटनाओं का पता भर है उनका उनसे कोई रिश्ता नहीं है। मगर मां ने जो जीया, उससे जीवन भर रिश्ता बनाये रखा। बल्कि ऐसा लगता कि उन्होंने किसी बड़े संदूक में सारी जगहों, सारे लोगों, सारी घटनाओं, सारी पोशाकों और समूचे वक्त को बचाकर रखा है। वह समय-समय पर संदूक खोलती है और अपनी उम्र से पीछे चली जाती है, उन्हीं दिनों की पोशाक पहन लेती है और उसी समय में उन्हीं लोगों के साथ उन्हीं घटनाओं को दुबारा दुहराया करती है। यानी जीने की यह मुकम्मिल प्रक्रिया थी।

दिल्ली में भी मां यही किया करती थी मगर उस तत्काल वर्तमान से बचते हुए, जो संदूक में बंद करने लायक पुराना नहीं हुआ था और अभी रांची में, उसके घर, उसके मुहल्ले और उसकी रसोई में पसरा-छींटा हुआ है। उस समय रेमी वह सारी जिम्मेवारियां संभाल रही थी। उन्हीं दिनों पापा को पीएच. डी. की डिग्री मिली। शायद यह इक्कीस अक्तूबर की बात है। मैंने मां से आग्रह किया कि वह दिल्ली से फोन पर पापा को बधाई दे। उस समय मां बिल्कुल अच्छी लग रही थी और पूरी तरह आश्वस्त थी कि वह ठीक हो जाएगी। (उन दिनों उसने बताया था कि वह रांची में अपने बचने की उम्मीद छोड़ चुकी थी।) हमलोग भी इस आशंका से पूरी तरह बेखबर थे कि उन्हें कैंसर नाम के महाकाल ने पकड़ लिया है और वह उनकी कोशिकाओं को भीतर ही भीतर नष्ट कर रहा है। यानी यह मां की बीमारी के बावजूद हम सब के लिए सुखद दिन थे। लग रहा था कि मां जल्दी ठीक हो जाएगी। मगर मां रांची फोन करने से हिचक रही थी। वह पापा को बधाई देना चाहती थी, मगर उसे डर था कि अपने भीतर का जो दरवाजा उसने बड़ी मुश्किल से बंद कर रखा है, वह खुल जाएगा। मैंने लगातार आग्रह किया कि सुबह-सुबह फोन कर दो, पापा को अच्छा लगेगा। मां मेरे साथ बूथ तक गयी। मैंने नंबर मिलाया। घंटी बजनी शुरू हुई। मैंने रिसीवर मां के हाथ में दे दिया। पापा कहीं निकले हुए थे, फोन रेमी ने उठाया। मां 'हलो' कहते-कहते फूट-फूट कर रोने लगी। बाद में लगातार कहती रही कि मैंने इसीलिए मना किया था। सबका मन खराब हो गया होगा। यह दुःख था। मां के बहुत गहरे बसा हुआ। मां इसे खुद से भी छुपाकर रखना चाहती थी।

(जारी)

पराग भइया दिल्ली में अकेला रह रहा था, पांडव नगर के उसी मकान में जहां मां ने अपने जीवन के आखिरी दिन गुजारे। रांची में तो मैं, पापा और रेमी एक दूसरे को दिलासा देने के लिए थे, पर भइया दिल्ली में बिल्कुल तनहा था, बिल्कुल अकेला। पर इसी बीच उसे जनसत्ता में बतौर असिस्टेंट एडिटर बुलाया गया। वह जुड़ गया एक नयी जिम्मेवारी से।

-अनुराग अन्वेषी

मां (तीसरी किस्त)

-प्रियदर्शन
ले
किन क्या घटनाओं की मार्फत किसी आदमी को पूरा जाना जा सकता है? कोई भी घटना आदमी के चरित्र, उसके स्वभाव से अलग बहुत सारी दूसरी चीजों के दबाव से भी घटती है। क्योंकि कोई भी घटना मूर्त रूप लेने के काफी पहले से ही बनने की प्रक्रिया से गुजरती है। उसका रसायन मनुष्य की इच्छाओं, परिस्थितियों की उपस्थिति और तात्कालिकता के उत्प्रेरण से बनता है। हम गलती यह करते हैं कि घटनाओं में अक्सर मनुष्य के अक्स तलाशते हैं। जबकि वह हमेशा उनसे थोड़ा अलग होता है। लेकिन मां के संबंध में इन सारी बातों का मतलब क्या है? शायद कोई मतलब होगा तभी ये बातें मेरे दिमाग में आ रही हैं। दरअसल मां को घटनाओं की मार्फत जानना और मुश्किल है। उसके स्वभाव में कुछ हद तक एक 'पैसिव' तत्व था। वह घटनाओं को जिनता प्रभावित नहीं करती थी, उससे ज्यादा उससे खुद प्रभावित होती थी। मगर अंततः यह प्रभाव भी टिकता नहीं था, वह उससे निर्व्याज निकल आती थी। मेरी समझ में स्थायी भाव उसमें तीन ही थे। विल्कुल सतह पर हास, उसके नीचे करुणा और कहीं अतल तल में गहरे छुपा दुःख। कभी-कभी मुझे लगता है कि दुःख से एक तरह का छायावादी लगाव उसके भीतर था। इस दुःख से जीवन का एक दार्शनिक आधार प्राप्त करने का यत्न भी वह करती थी। इसी दार्शनिक आधार के व्यावहारिक पक्ष थे सहनशीलता और संतोष। उसे कोई चीज 'थोड़ी सी' चाहिये होती थी। बस उसका स्वाद जानने भर। स्वाद ही उसे तृप्त कर देता था। पदार्थ के प्रति गहरा चाव नहीं था।

ध्यान आ रहा है कि ऊपर लिखे हुए हिस्सों में मैंने कहीं उसकी रचना की बात की थी। वह कैसे लिखती थी? क्या वह खुद को रचती थी? खुद को रचना एक पुराना मुहावरा हो चुका है। मगर मां के निकट मैं वाकई इस मुहावरे को इसके सही और संपूर्ण अर्थ में खुलता देखता हूं। दरअसल वह खुद ही कविता थी - किसी निश्चित विचार-सरणि से बनी हुई नहीं, मगर स्वतः स्फूर्त भावों की अनगिनत, अनजानी और कभी-कभी एक दूसरे को काटती हुई, लहरों से रची हुई। लिखना उसके लिए गंभीर काम तो था, मगर एक सचेत पेशेवर नजरिये से उसने कभी लेखन को देखा नहीं। वह बस लिख देती थी - बेहद अछूते बिंबों का गुच्छा हुआ करती थीं उसकी कविताएं, एक गहरे मार्मिक स्पर्श से युक्त। कई बार लिखते हुए (या 'लिखते हुए' कहना भी गलत होगा, क्योंकि लिखना उसके लिए सायास प्रक्रिया नहीं रहा, हां उन अवसरों को छोड़कर, जब आकाशवाणी के लिए उसे कविताएं लिखनी पड़ती थीं) वह बस तीन-चार वाक्यों में कोई एक बिंब रख देती थी, फिर कुछ दिन बाद कोई दूसरी लहर आती होगी और एक नया बिंब - इस तरह धीरे-धीरे उसकी कविताएं आकार लेती थीं। अनगढ़ - लेकिन शब्दों के भीतर एक गहरी चमक पैदा करते हुए जैसे किरणें झरनों और चट्टानों में चमक पैदा कर देती हैं। उसके शब्दों और उन शब्दों में छुपे अर्थों की पहचान पापा के पास बहुत गजब रही है। कई बार उन्होंने उन समूहों को जोड़ा था और हर बार कोई विरल अनुभव संजोए एक कविता उपस्थित हो जाती थी।

'जिंदगी से कविता
कविता से दिवास्वप्न
स्वप्न से शून्याकाश तक फैला है
मेरा विस्तार'

और

'हम सब तलाशते हैं
क्षितिज सी मंजिल
सागर मंथन में
कोई मूल्यवान मोती खोजने की अमृत प्यास'

और

'ओ मेरे मन
तुम्हारा प्रवाह कहा है?
रास्ते धूल से भरे हैं
रिक्तता तिरती है
लहरों के गर्भ में'

ये पंक्तियां और ऐसी ढेर सारी पंक्तियां मां की कविता में व्याप्त भावप्रवणता को सामने रखती हैं। 'सागर मंथन में कोई मूल्यवान मोती खोजने की अमृत प्यास' मां के लिए जीवन की उस भावनात्मक तलाश का ही हिस्सा थी जिसे हमेशा अपरिभाषित रहना पड़ता है। जीवन में कुछ है, जो मूल्यवान है, जो सारी यातनाओं के बीच भी जीवन को न सिर्फ जीने योग्य बनाता है, बल्कि उसे एक नैतिक आलोक से युक्त भी करता है। शायद यह मोती हम सबके भीतर है, बाहर नहीं। इसलिए यह तलाश भी अपने भीतर होती है, बाहर नहीं। मां की कविता अपने भीतर घूमती कविता थी - अपने भीतर की जिंदगी, कविता, सपनों और वहीं फैले शून्याकाश को टटोलती हुई, उसकी प्रदक्षिणा लेती हुई।

अचानक एक बात और ध्यान आ गयी, उसकी कविता से नहीं उसके व्यक्तित्व से जुड़ी हुई। पापा और मां के बीच तुलना करते हुए मैंने एक बात और पायी है। पापा विचार से आधुनिक हैं, मगर भावना उनकी कई मामलों में रूढ़िवादी है। हालांकि उनके व्यक्तित्व का वैचारिक पक्ष इतना मजबूत है कि वह भावना टिक नहीं पाती। वह अंततः आधुनिकता के पक्ष में खड़े होते हैं, मगर कोशिश करके। मां के साथ बात थोड़ी अलग थी। वह स्वभाव से, संस्कारों से कई मामलों में परंपरागत दिखाई पड़ती थी मगर मन उसका आधुनिक था। वह आधुनिकता के पक्ष में शायद बहुत ज्यादा दलील नहीं कर पाती, मगर उस खाने में खड़ा होना उसके लिए हमेशा आसान रहा।

(जारी)

Tuesday, January 13, 2009

जब मां इलाज के लिए दिल्ली आई थी, पराग भइया (प्रियदर्शन) यहां अपने पांव जमाने की कोशिश में जुटा था। उस वक्त यहां उसके संपर्कों की दुनिया बेहद छोटी थी। हां, लोग उसे उसके लेखन से जानने लगे थे। फिलहाल, वह एनडीटीवी इंडिया में है।

-अनुराग अन्वेषी

मां (दूसरी किस्त)

-प्रियदर्शन



र उसका लेखन? मेरे लिए यह एक पहेली रही है कि मां कैसे लिखती है? उसका बहिरंग और अंतरंग दोनों बेहद घरेलू थे। सामान्य सी बातचीत का ढंग, प्रखर दिखने की कोई चाह नहीं, हां उसकी सरलता में कोई बात तो थी जो बहुतों को अपनी ओर खींचती थी। एक बात और है जो घर वालों को बेहद स्पष्ट है, और बाहर वालों के लिए नितांत अपरिचित। वह है उसका ऊहापोह। आमतौर पर किसी भी निर्णय तक पहुंचने में उसे मुश्किल होती थी। पापा झल्लाते रहते, रेमी खीजती रहती, मैं उकता जाता, अनुराग गुस्सा जाता, लेकिन मां सोचे जा रही है। हमारे लगातार दबावों से वह भी खीज कर करती 'ठहरो न! सोच लेते हैं।' हम सब लोग उसके इस अनिर्णय के कई-कई अवसरों के साक्षी हैं।

लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी था। कई बार एक निर्णय तक पहुंच जाने के बाद वह मजबूत से उस पर टिकी रहती, कई बार स्थितियों की सचाई का सामना करने में वह ज्यादा हिम्मत दिखाती। वह उन्हें बिना विचलित हुए स्वीकार लेती। यहां उसकी निस्संगता उसका साथ देती। मैं जब रांची छोड़कर दिल्ली आया था तो पापा काफी विचलित थे। शायद लगातार मेरे बारे में सोचा करते थे। मां ने उन्हें मजबूत करते हुए कहा था 'जाने दीजिए न! जब चिड़िया के बच्चे बड़े हो जाते हैं, वह उन्हें उड़ा देती है या नहीं !', उसका बालसुलभ दार्शनिक भाव एक बालसुलभ भंगिमा अख्तियार कर लेता, 'फुर्र!'

'फुर्र!' अब चिड़िया खुद फुर्र हो गयी है। एक बनता हुआ घोंसला छोड़कर। वैसे तो कोई भी घोंसला, कोई भी घर हमेशा बनने की प्रक्रिया में ही रहता है, मगर हमारे घोंसले को तो चिड़िया की जरूरत थी। यह चिड़िया भी कुछ अलग सी थी। तिनके बीनना इसका काम नहीं था। वह काम पापा करते थे। घोंसले को सजाना भी उसका काम नहीं था। उसकी चिंता भी अधिकतर रेमी को रहती थी। लेकिन वह घोंसला अगर घोंसला था तो उसी चिड़िया की उपस्थिति से। सारे बीने हुए को, सारे सहेजे हुए को जीवन देने का, रुलाई और खिलखिलाहट देने का काम वही करती थी।

मां की हंसी, मां का संतोष - दोनों विरल थे। मां के पास जीवन की सहजता से फूटती हुई हंसी थी। उपहास, व्यंग्य, दंभ, हास्यबोध कुछ उसमें नहीं होता था। वह सारी परिभाषाओं के परे एक उन्मुक्त हंसी थी। पापा बताते हैं कि शुरू के दिनों में मां बहुत जोर से खिलखिलाती थी, बहुत देर तक। कुछ तस्वीरों में भी यह खिलखिलाहट बची हुई है। आखिरी बार जब यह खिलखिलाहट फूटी थी और जिस घटना को याद करते हुए फूटी थी वह दोनों मुझे याद है। वह घटना मेरे भीतर एक अफसोस और रुलाई भी जगाती है, मगर मां सिर्फ हंसती थी। मां जब इलाज के लिए दिल्ली आयी थी, उस समय यहां प्लेग का प्रकोप था। खासकर अस्पतालों के आसपास लोग मुंह पर पट्टियां बांध कर घूमा करते थे। वह चार अक्तूबर की तारीख थी। उसके एक दिन पहले भी मां आयुर्विज्ञान संस्थान से लौट चुकी थी। चार ताऱीख को मैं नंबर लगाकर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। वह अनुराग और मामी के साथ आयी। मगर उसे आने में विलंब हो चुका था। उसकी बारी पार हो गयी थी। दिल्ली में किसी भी चीज का बाजार बड़ी तेजी से बनता है। उन दिनों आयुर्विज्ञान संस्थान के आस-पास प्लेग से बचाव के लिए कपड़े की पट्टियां बिकने लगी थीं। शायद तीन रुपये में एक। मैंने भी चार पट्टियां खरीद लीं। हम चारों - मैं, मां, अनुराग और मामी - मुंह पर पट्टियां बांधे डॉक्टर के पास गये। मगर हमारा क्रम पार हो चुका था। डॉक्टर ने उस दिन के आखिरी मरीज तक हमलोगों को इंतजार करवाया और बाद में विलंब हो जाने की वजह बताते हुए देखने से इनकार कर दिया। हम तीनों (शायद अनुराग बाहर था) पट्टियां बांधे डॉक्टर से अनुरोध कर रहे थे कि बहुत दूस से आये हैं और प्लीज आज देख लीजिए। मगर डॉक्टर पूरी रुखाई से पेश आ रहा था। मां ने भी डॉक्टर से मिन्नत की तब वह देखने को राजी हुआ।

डॉक्टर का अपना एक पक्ष था। उससे मुझे कोई गहरी शिकायत नहीं हो पाती। (शायद मां का य गुण मेरे भीतर है) लेकिन कमजोर बीमार मां को इतनी कातरता से डॉक्टर से अनुरोध करते देख मुझे अजीब सा लगा था। रुलाई जज्ब करने की जरूरत पड़ी थी। आज भी यह घटना मुझे तकलीफ देती है। मगर मां को इस घटना का एक दूसरा ही पक्ष याद रहा। डॉक्टर ने प्लेग से बचाव की पट्टी नहीं लगायी हुई थी। हम तीन लोग पट्टी बांधे उसके कमरे में गये थे। मां के लिए खुद भी प्ट्टी बांधकर घूमना अजीब तो था ही, मगर डॉक्टर के कमरे में प्रवेश करते समय हम तोनों की जो मुद्रा थी, उस पर वह खूब हंसती थी। बाद में भी जब-जब उसे यह घटना याद आती थी, वह हंस पड़ती थी। इसी घटना को याद करते हुए उसकी हंसी आखिरी बार फूटी थी शायद 18 नवंबर को, जब उसके पास मैं, रेमी और पापा थे।

(जारी)

इस साल मैं 42 का हो जाऊंगा। मां 48 की थी, जब हम लोगों को छोड़कर गई। जल्द ही मैं उसकी उम्र छू लूंगा। अब समझ में आता है, ज़िंदगी ने उसे कितना कम समय दिया। यह कम समय भी उसने हम लोगों के लिए लगाया। मुझसे तो वह अपनी मृत्यु से साल भर पहले से अलग रही। मैं दिल्ली में था और वह रांची में बैठकर मेरी मुश्किलों और छिटपुट सफलताओं का अंदाजा लगाया करती। मेरी प्रकाशित एक-एक रचना पर वह इतनी खुश होती, जितना अपनी पूरी किताब पर कभी नहीं दिखी। 1 दिसंबर 1994 को वह हमारे बीच से चली गई। उसके आखिरी छह महीने बहुत तकलीफ में गुजरे। यह तकलीफ दर्द रोकने की कोशिश में उसकी काली पड़ गई कुहनियों और कातर होते चेहरे पर भी चली आती। लेकिन वह कभी उसके मन पर छा नहीं सकी। वह बहुत शांत भाव से गई। 14 साल में हम सबका जीवन बहुत बदल गया, उसमें बहुत सारे लोग आ जुड़े- लेकिन मां के नहीं रहने से जो खालीपन है, वह बना हुआ है।

-प्रियदर्शन

मां

-प्रियदर्शन

शा
यद हम सबके भीतर कई-कई दरवाजे होते हैं। हर दरवाजे के पीछे एक दुनिया होती है - हमारे गहरे अनुभवों की दुनिया, हमारी गोपन इच्छाओं की दुनिया, हमारे स्थगित लोगों और विस्मृत आलोकों की दुनिया। इनमें से कुछ दरवाजे सबके लिए खुल जाते हैं, कुछ बहुत कम लोगों के लिए और कुछ शायद किसी के लिए भी नहीं। कुछ ऐसे भी दरवाजे होते हैं, जिनका खुद हमें भी पता नहीं चलता। सहसा कोई पीड़ा आकर उन्हें प्रकाश में ला देती है। ये दरवाजे उस दुनिया के होते हैं जहां निर्वासित स्वप्न जीते हैं, जहां निजी इच्छाएं सोती हैं।

लेकिन इन दरवाजों पर अक्सर हमारा वश नहीं चलता। कोई दबी हुई पीड़ा सिर उठाती है और एक दरवाजा खोल देती है। पीड़ा को भी बाहर की हवा चाहिए होती है ताकि उसका हरापन बना रहे।
मेरे भीतर एक दरवाजा बार-बार खुलने को होता है और बार-बार मैं उसे बंद करना चाहता हूं।
इस दरवाजे के भीतर की दुनिया में मां है। वह बाहर की दुनिया छोड़ गयी है। हालांकि अब भी मुझे यकीन नहीं होता।

या मैं यकीन करना नहीं चाहता। इसीलिए वह दरवाजा खोलने से डरता हूं। लगता है भीतर एक पानी का रेला है जो मुझे बहाकर ले जायेगा।

कभी-कभी सोचता हूं तो लगता है मां याद करने की चीज नहीं होती। वह हमेशा साथ होती है, एक आश्वस्ति सी, वह इस दुनिया में हो या उस दुनिया में। याद करने से डर लगता है। मन कातर हो जाता है। अकेला और असहाय हो जाने का अहसास...

क्या निर्लिप्त होकर मां के बारे में सोचा जा सकता है? उसे एक लेख का विषय बनाया जा सकता है?
मां में यह गुण था। वह बड़ी तेजी से निर्लिप्त और निस्संग हो जाया करती थी - कम से कम अपनी पीड़ाओं के प्रति। या इस निस्संगता के भी कई स्तर थे। इसकी एक प्रक्रिया थी। शुरू में उसे कोई दुःख बहुत गहरे छूता था, फिर अचानक ताकत जुटाकर वह अपने को वह अपने-आपको उससे काट लेती थी। कम से कम अपने-आपको लेकर, अपनी तकलीफ को लेकर उदासीन हो उठने की यह ताकत उसमें गजब की थी।

...पिछले साल नवंबर में उसे अहसास हो गया ता कि उसे कोई गंभीर रोग है। उसने कभी उसका नाम जानने की कोशिश नहीं की। अपनी कमजोर आवाज मं बस इतना कहा था 'अब हमलोगों को मन मजबूत कर लेना चाहिए...' इस कांपती हुई आवाज में वह सहज मृदु दृढ़ता थी जो उसका निजी गुण रही। वह कभी कातर नहीं हुई। या उसने इस कातरता को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया।

गोकि उसने तकलीफें झेली थीं, पापा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ती रही थी। पापा के तने भंवों और लंबे समय तक पेशानियों पर पड़े रहने वाले बल की खूब-खूब याद है, लेकिन मां ने कभी ऐसे किसी तनाव को स्थायी बनाया हो, याद नहीं है। यह मां की ताकत भी थी और कमजोरी भी। ताकत इसलिए कि अपने इसी गुण की वजह से वह कई छोटी-मोटी चीजों से बड़ी आसानी से ऊपर उठ जाती थी, और कमजोरी इसलिए कि इसी की वजह से वह पर्याप्त आक्रामक और महत्वाकांक्षी नहीं हो पाती थी।

हां, मां महत्वाकांक्षी नहीं थी। ना ही आक्रामक थी। और ऊपर कही गयी अपनी बात मुझे उलटी लग रही है। दरअसल वह महत्वकांक्षी और आक्रामक नहीं थी, इसलिए किसी तनाव को, किसी खिंचाव को बड़ी आसानी से झटक देती थी। आक्रमण और महत्वाकांक्षा शायद पुरुष-तत्व है। स्त्री जब आक्रामक और महत्वाकांक्षी होती है तो शायद, वह अपने भीतर के पुरुष-तत्व को अपना मुख्य तत्व बनाने की कोशिश कर रही होती है। मां ने यह कोशिश कभी नहीं की। करती तो शायद हो ज्यादा ताकतवर होती, मगर तब कुछ दूसरे ढंग की होती।

तब उसमें उतनी करुणा नहीं होती, जितनी थी। यह सिर्फ एक मां की अपने बच्चों के प्रति करुणा नहीं थी। दूसरों का दुःख दूसरों से ज्यादा उसका हो जाता था। एक बहुत बचपन की घटना याद आती है। मेरे कान में एक जख्म था जिसके इलाज के लिए मां के साथ मैं आर.एम.सी.एच जा रहा था। उस दिन टेंपो वालों की मेडिकल के छात्रों के साथ कोई झड़प हुई थी। और इसका खमियाजा हमारे टेंपो वाले को भुगतना पड़ा। हमलोग जैसे ही टेंपो से उतरे, कुछ छात्रों ने उसे घेर लिया और धक्का-मुक्की करते हुए एक-दो तमाचे जड़ दिये। बात आयी-गयी हो गयी। टेंपो वाला गाल सहलाता हुआ निकल गया था। इस घटना ने मां को बिल्कुल स्तब्ध कर दिया था। सहमा हुआ मैं भी था, लेकिन मां उस टेंपो वाले को भूल ही नहीं पा रही थी। आज सोचता हूं तो लगता है कि पता नहीं, उस टेंपो वाले को कितनी चोट पहुंची थी, मगर मां उसकी यंत्रणा कई दिनों तक झेलती रही थी।

शायद यह वही करुणा थी जिसने उसे दूसरे सामाजिक मोर्चों की ओर उन्मुक किया। लेकिन यह एकमात्र वजह नहीं थी। उसके अपने अनुभव भी थे। जिस किशोरगंज में वह आजीवन रही (अपने आखिरी दो महीनों को छोड़कर) वह मध्यवर्गीय और निम्ममध्यवर्गीय आबादी का मिला-जुला मुहल्ला है। इस मुहल्ले के दुःख-सुख आंगन आंगन में पसरते थे। पास-पड़ोस की स्त्रियां आतीं और मां को अपनी परेशानियां बताया करती थीं। पता नहीं, उन्होंने मां में क्या देखा था? शायद वही करुणा, जिसका जिक्र मैं ऊपर कर चुका हूं। लेकिन यह बेबस और लाचार करुणा नहीं थी। यह करुणा एक मानवीय गुस्से में ढल जाती और मां अपने ढंग से प्रतिरोध के तरीके आजमाया करती। किसी का पति पीटता है, किसी के सास-ससुर अच्छा बर्ताव नहीं करते, किसी को गलत ढंग से फंसाने की कोशिश हो रही है, ये शिकायतें मां तक पहुंचतीं तो मां प्रतिकार की मुद्रा में आ जाती। इसी बिंदु से संभवतः नगर के सामाजिक संगठनों से उसका जुड़ाव शुरू हुआ था।


(जारी)

Saturday, January 10, 2009

'चांदनी आग है' संकलन की दूसरी कविता है निष्कर्ष। इसे पढ़ते हुए उस वक्त जो बातें मन में आईं, उसे मैंने यहां भी रख दिया है। बायीं ओर मां की कविता है और उसके बगल में मेरी प्रतिक्रिया।

-अनुराग अन्वेषी


शून्य की तलाश

अंधेरी सीढ़ियों से जब फिसल जाते हैंपांव
घायल तन/मन
दिशा तलाशते हैं

युद्ध से जब
उकता जाता है मन
तो याद आते हैं
अपने लोग,
अपनी धरती,
अपना खून
किंतु
शून्य के खोज की यात्रा
जारी रहती है।

-अनुराग अन्वेषी, 9 फरवरी'95,
रात 1.00 बजे


निष्कर्ष
आम आदमी से
खैरियत पूछते हुए
जूझती हूं अपने से।
अखबारी कतरनों
के बीच
शांति तलाशते लोग
गुमराह सीढ़ियां तय करते हैं।
उनमें अपने को भी शामिल
महसूसती हूं बार-बार।

भटकाव की दिशा में
फन काढ़े नाग की कोठरी में
मणि की प्राप्ति नहीं हो सकती।
शक्तिहीन रीढ़ के पीछे
वार करते कभी सोचा है
कि यह अपने लोग हैं,
यह अपनी धरती है,
यह अपनी ही माटी है,
यह अपना ही खून है।
-शैलप्रिया

मां के आखिरी दिन

मां पर केंद्रित 'प्रसंग' के 'शैलप्रिया स्मृति अंक' का पहला संस्करण 1995 में आया था। उस वक्त हमसबों को अहसास था कि हम बेहद ऊंचाई से गिरे हैं पर यह होश नहीं था कि चोट कहां-कहां लगी है। अब जब प्रसंग में छपी चीजों को कंपोज कर रहा हूं तो मेरे सामने बार-बार वही समय खड़ा हो जाता है... जिन बुरे दिनों की याद से मैं अक्सर भागने की कोशिश करता था, फिर उन्हें जीना पड़ रहा है। वाकई मां का नहीं रहना, बेहद तकलीफदेह स्थिति है। बहरहाल, पढ़ें रेमी के संस्मरण का आखिरी हिस्सा...

-अनुराग अन्वेषी



अनामिका प्रिया

मां

जब नहीं रही, मन बड़ा घबराया। मन ही मन कहती, मां तुम किसके भरोसे हमलोग को छोड़कर चली गयी। आज भी जब पापा बहुत हांफते हैं, मैं मन ही मन कहती हूं धीरज देना मां। और लगता भी है कि मां हिम्मत देती रही है आज तक। सचमुच हम लोगों ने कल्पना में भी नहीं सोचा था कि मां नहीं होगी, वह बुरा दिन भी कभी आयेगा।

मेरे दिल्ली पहुंचने पर भइया ने बताया कि मां का गंभीर ऑपरेशन जिगर के पास होना है। भइया की आंखों और उसकी आवाज में ऐसा कुछ था, जिसे मैं कभी भूल नहीं सकती। हम तीनों भाई-बहन काफी चिंतित से घर आये थे। मां को जब देखा तो काफी धक्का लगा। बहुत दुर्बल लगी थी। आंखों का पीलापन और गहरा हो गया था। लंबे और ज्यादा तकलीफ के क्षणों को झेलते हुए जैसे ललाट खिंच गया था। और सबसे ज्यादा धक्का तो तब लगा जब मैंने मां की बांह पकड़ी तो लगा हड्डी ने मांस को छोड़ दिया है। कुछ महीने पहले तक मां की ऐसी स्थिति की कल्पना तक नहीं हो सकती थी। वह हड्डी का ढांचा हो गयी थी, त्वचा सिकुड़ गयी थी। उसपर लगातार होती उल्टी और आंखों का गहरा पीलापन। सचमुच एक दिन में कितनी बार उसका आत्मविश्वास डगमगाता होगा। बहुत दुख हुआ जब देखा वह एक चार साल के बच्चे से भी कम खाती है। उस रात नींद नहीं आई। आंखों में आंसू आते-जाते थे, बहते जाते थे, शायद अनुराग भइया की भी स्थिति ऐसी ही थी।

मां बीमार जरूर थी, लेकिन उसका सोचना-विचारना, समझना अंतिम समय तक सामान्य रहा। वह सुबह उठती और धीरे-धीरे चलकर मुंह-हाथ धोती और फिर धूप में बैठ जाती। वह कभी-कभी बताया करती थी कि एम्स में उसका इलाज किस तरह चल रहा था। वह अपने पुराने दिनों के बारे में बताया करती थी। कभी-कभी मां मेरा हाथ पकड़कर छत पर घूमा करती थी। वह समय तो अब इतिहास हो गया। हमलोग एम्स जा रहे थे। मां, पापा और मेरे बीच बैठी थी। जब मां का हाथ मुझसे सटता मुझे भय-सा होता कि मेरा हाथ मां को भार-सा न लगे। मां को ऑपरेशन कक्ष में ले जाया गया था। भइया दरवाजे के बाहर मां को देख रहा था, पापा विचलित होकर टहल रहे थे। मैं मैदान में थी। मुझे लगा मेरी रुलाई जज्ब नहीं हो पा रही थी। थोड़ी देर बाद देखा भइया मां को ला रहा है। ऑपरेशन की कोशिश सफल नहीं रही थी। मां को नींद का इंजेक्शन पड़ा था, वह आंखें नहीं खोल पा रही थी।
फिर मां का इलाज डॉ. घोषाल से चलने लगा था। प्रारंभ में वह कुछ स्वस्थ होती नजर आई थी, लेकिन कई रोज बाद अचानक कमजोरी बढ़ती चली गयी थी। जब वह उठती थी, उसे लगता पूरे शरीर का खून सिर पर चढ़ गया, माथा गरम हो जाता, सब कुछ घूमने-सा लगता। 29 नवंबर की रात वह मेरी गोद में बेहोश हो गयी थी, फिर दूसरे दिन पापा के कंधे पर। उस सुबह से मां उठ नहीं सकी। रेंगते हुए एक बिछावन से दूसरे बिछावन पर गयी थी। तब हम नीचे जमीन पर सोया करते ते। उसकी स्थिति बड़ी दयनीय हो गयी थी।

फिर भी हमलोगों के लिए उसकी चिंता यथावत बनी रही। जीने-मरने की आशाओं-निराशाओं से जूझती वह किस तरह हमारा ख्याल रख पाती होगी। उसे मच्छर काटता लेकिन वह पापा की सांस में तकलीफ होने की वजह से गुडनाइट नहीं लगाने देती। सोने की इच्छा होने पर भी जब पापा कमरे में पढ़ते होते, वह बत्ती बुझाने से मना कर देती। उतनी लगातार हो रही उल्टी के बाद भी उसने कभी कमरे में उल्टी की हो, ध्यान नहीं आता। मैं रोज पूछती, क्या खाओगी मां, तो उसका प्रायः एक ही जवाब होता 'कुछ भी'। शायद किसी तरह की परेशानी नहीं देना चाहती थी वह।

उसकी बिगड़ती हुई स्थिति और खाने में अरुचि देखकर हमलोग चिंतित थे। सबने उसे समझाया कि अगर वह खाने-पीने की कोशिश नहीं करती है तो उसका दुबारा खड़ा होना काफी मुश्किल हो जायेगा। और सचमुच 1 दिसंबर की सुबह लगा, वह अपने को खड़ा करने की अंतिम कोशिश में जुट गयी है। दिन भर बराबर कुछ न कुछ लेने की कोशिश वह करती रही। उसकी तबीयत उस दिन थोड़ी ठीक भी लगी थी, लेकिन शाम को अचानक उसकी बेचैनी काफी बढ़ गयी थी। सिर में तेल की मालिश और पंखे की हवा करने के बाद वह तनिक सामान्य हो पायी थी।

उन दिनों बहुत अजीब-सा लगता। एक तरफ बीमार मां और दूसरी तरफ अस्वस्थ पापा। पापा को सांस की तकलीफ बहुत ज्यादा बढ़ने लगती, मां ज्यादा हिलडुल या उठकर नहीं देख पाती, लेकिन पापा की ओर आंखें घुमाकर चिंता से देखा करती।

उस रात दस बजे मां की बेचैनी शाम की तरह ही अचानक बहुत बढ़ गयी थी। पापा ने हमलोगों को आवाज दी। मैं और पराग भइया दूसरे कमरे से वहां पहुंचे। मां की आवाज लड़खड़ा रही थी। और फिर विवशता से हम एक-दूसरे को देखते रहे और जैसे लगा एक ही झटके में मां ने साथ छोड़ दिया। दूसरे दिन शवलेपन के लिए हम एम्स गये थे। वहां से मां को ताबूत में डालकर सीधे एयरपोर्ट भेज दिया गया। बड़ा अजीब-सा लगा कि कल तक जिस व्यक्ति की इतनी चिंता थी कि कहीं उसे सर्दी न लग जाये, खांसी न हो जाये, और आज रात वह एक बंद डिब्बे में किसी अंधेरे तहखाने में पड़ी होगी। पापा पुराने दिनों को याद कर रहे थे। मेरे ख्यालों में भी पता नहीं क्यों मां की बहुत पुरानी छवि याद पड़ रही थी। दो चोटी बना खिलखिलाते हुए। लेकिन निश्चल पड़ी मां मेरी भावनाओं से बिलकुल अलग थी। पापा की शैल सचमुच शैल हो गयी थी।

Thursday, January 08, 2009

मां के आखिरी दिन (दूसरी किस्त)

मां की जब मौत हुई, रेमी (अनामिका प्रिया) महज 22 बरस की थी। अब तो वह दो बच्चों की मां भी है। उस वक्त उस नन्ही-सी जान पर घर संभालने की बहुत बड़ी जिम्मेवारी आ गयी थी। पराग भइया दिल्ली में था और मैं, पापा, दादी और रेमी रांची में। हम सभी एक-दूसरे की मदद करने की कोशिश करते थे, एक दूसरे को भावनात्मक सहारा देने की कोशिश करते थे। पर हमारी तमाम कोशिशें कहीं उस गैप में जाकर गुम हो जाती थीं, जो मां के न रहने से बनी थी। बहरहाल, रेमी के संस्मरण की दूसरी किस्त पढ़ें।
-अनुराग अन्वेषी

अनामिका प्रिया
का
म सारे होंगे, लेकिन वह सहजता नहीं होगी। अगर किसी का कोई अंग काटकर अलग कर दिया जाये तो वह धीरे-धीरे अभ्यस्त जरूर हो जायेगा, लेकिन एक अस्वाभाविकता से वह मुक्त नहीं हो सकता। मां के साथ-साथ हमलोगों का चैन, इत्मीनान, सुकून, आश्वस्ति जैसे सब कुछ चला गया। सामाजिक संबंधों को निभाने में एक अभाव का अहसास होता है। जितना-जितना कुछ खो गया, वह हमलोग कभी नहीं पा सकेंगे। लेकिन संतोष रखना पड़ता है, हिम्मत जुटानी पड़ती है। मेरी गलतियों को सुधारने वाली मां, अनुराग भइया अगर नाराज होकर सोया है तो उसे मनाने वाली मां, दादी की ज्यादतियों को झेलने वाली मां की जिम्मेवारियों को पूरा करना बड़ा कठिन लगता है। कोशिश करती हूं, लेकिन बड़ा कठिन लगता है। कोशिश करती हूं, लेकिन सबके लिए उतना ध्यान संभव नहीं हो पाता, हिम्मत बार-बार टूटती है। सचमुच, वह सब इतना आसान नहीं है। मेरे पास वह एकसूत्रता में पिरोने वाली सहज हंसी नहीं है।
रांची के अंतिम दिनों में मां की तकलीफें बहुत बढ़ गयी थीं। लगातार उल्टी से वह परेशान हो गयी थी। हमलोग चाहते थे कि जल्दी दिल्ली जाये कि उसे जल्दी आराम मिले। जब वह दिल्ली चली गयी थी पापा ने बताया था कि डॉक्टर को शक था कि मां को कैंसर है। उस दिन वह मां की बीमारी को लेकर बड़े चिंतित और विचलित लगे थे। मैंने हिम्मत जुटा कर पूछा था कि जिस तरह मां की सेहत दिनोदिन गिरती जा रही थी, ऐसा कैंसर में होता है? लेकिन जांच से यह साफ हो गया कि ऐसी कोई गंभीर बात नहीं है, पापा ने बताया था। पहली बार मां को लेकर मेरे मन में किसी गंभीर बीमारी की आशंका उठी थी। मुझे लगा था अगर मां को कुछ हो गया, मेरे पापा कैसे रहेंगे।

जिस दिन मां दिल्ली जा रही थी, उसने नीचे उतरने पर मेरा हाथ पकड़ा था, कुछ कह नहीं पायी थी। बाद में उसने पापा से बताया था कि वह बात करती तो कमजोर पड़ जाती। तब हमलोग नहीं समझ पाये थे कि वह मां की अंति विदाई थी, वर्षों से जोड़ते, बनाते घर से। मां को हमेशा लगा करता कि आनेवाला समय पहले से ज्यादा सुख का समय होगा। और लगता भी क्यों नहीं, एक छोटे से नाजुक पौधे को सींचकर वह विशाल भरे-पूरे वृक्ष के रूप में देख रही थी, जिसके फलने-फूलने का अवसर निकट था। मां ने पापा से कहा था कि मुझसे जितना बन सका, मैंने घर संवारने की कोशिश की। उनको हमलोगों पर भी पूरा भरोसा था। दिल्ली में जब पापा का मन मां की बीमारी से विचलित होने लगा था, मां ने हमलोगों को तसल्ली दी थी कि आप परेशान क्यों होते हों, आपके तीन बड़े बच्चे हैं, ध्यान रखने के लिए।

एक रात की पुरानी घटना याद आती है। हम भइया और मां फिल्म देख रहे थे। फिल्म की समाप्ति पर भइया ने कहा कि उसे भूख लग रही है। मुझे अजीब-सा लगा था कि मां जाड़े की इतनी ठंडी रात में सारे दरवाजे खोलकर रसोई जाकर कितने शांत भाव से कुछ पका रही है। फिर बाद के दिनों में कई बार मैंने ऐसी व्यस्तता देखी। मां ने सातवीं-आठवीं कक्षा तक मुझे जूता पहनाया है, मेरी रुटीन सजायी है। जब मैं छोटी थी, मेरे लंबे-लंबे बालों की चोटियां बनाते हुए वह बहलाने और मन लगाने के लिए कितनी पौराणिक कथाएं और महाभारत-रामायण की कहानियां सुनाती थी।

सन् 94 यानी मां की बीमारी का पूरा साल हमलोगों के लिए बड़ी कठिनाई का साल रहा था। पापा, मां और दादी की लंबी बीमारी, भइया की एमए की परीक्षा, अनुराग भइया और मेरी ऑनर्स की परीक्षा और घर में काम करने वाली सुनीता मां भी गंभीर बीमार हुईं। इसी बीच घर में तोड़-फोड़ और मरम्मत का काम हुआ। मई-जून में कुएं का जलस्तर नीचे जाने से पानी ऊपर नहीं चढ़ने लगा। कुल मिलाकर वे दिन बड़ी कठिनाई के थे। कभी-कभी मैं घबरा जाती, मन भटकने लगता। मां मुझे हमेशा छोटी समझती रही थी। मां को लगता मुझे कुछ ज्यादा करना पड़ रहा है। वह मुझे कहीं घूम आने को कहती। मैं भी बचपना में अक्सर निकल जाती। एक बार मैं कहीं निकलना चाहती थी। मैंने मां से कहा था अगर पापा आये और पूछेंगे तो? मां ने मुझे तसल्ली देते हुए कहा ता कि मैं कह दूंगी कि तुम मेरी दवा के लिए गयी हो। मां का मन अपने बच्चे के प्रति कितना उदार होता है!

(जारी)

मां के आखिरी दिन

अनियतकालीन पत्रिका 'प्रसंग' ने मां की मौत के बाद उनपर केंद्रित एक अंक छापा था। हालांकि मां से जुड़े संस्मरणों को पढ़ने की हिम्मत मैं कभी नहीं जुटा पाया। पर इस ब्लॉग के लिए उन संस्मरणों की कंपोजिंग का काम किसी तरह कर ले रहा हूं। इससे पहले पापा विद्याभूषण का लिखा हिस्सा इस ब्लॉग पर डाल चुका हूं और आज छोटी बहन रेमी (अनामिका प्रिया) की लिखी बातें कंपोज करने की हिम्मत जुटा रहा हूं। फिलहाल, अनामिका प्रिया विनोबा भावे विश्वविद्यालय में हिंदी की लेक्चरर हैं।

-अनुराग अन्वेषी

अनामिका प्रिया


क दिसंबर की रात 10:15 बजे मां ने हमारे सामने दम तोड़ दिया था। हम कुछ नहीं कर सके। सब कुछ तरंत-तुरंत होता गया कि कुछ समझने का भी मौका नहीं मिला। हम लोग पुकारते रहे, कोशिश में कि उसकी लुप्त होती जा रही सांसों को, उसकी डूबती-खोती जा रही चेतना को अपनी पुकार से फिर इस दुनिया में खींच लायेंगे। लेकिन उसकी आंखें कहीं नहीं देख पा रही थीं। लगा कुछ गजब हो गया है। कुछ ऐसा जो नहीं होना चाहिए था। उस समय मां के पास बस हम तीन लोग थे, जबकि रांची में स्वजनों का कितना लंबा-चौड़ा संसार है। एक ओर कमजोर हो रहे पापा थे और दूसरी तरफ सब्र बांधे मां को रांची ले जाने की तैयारी में भटकता हुआ भइया था। यह तो कोई अनहोनी हो गयी थी। मन बहुत बेचैन होने लगा। अब क्या होगा। किस मुंह से हमलोग अब रांची जायेंगे। किस तरह हमलोग दादी को बतायेंगे कि मां को वापस नहीं ला सके। डॉ. घोषाल की दवा चलने के बाद अनुराग भइया बड़ी उम्मीद के साथ रांची लौटा था कि मां ठीक हो जायेगी।

उस समय जो सबसे कठिन काम लग रहा था, वह था रांची जाने के लिए सामान समेटना। सामान पूरे इत्मीनान के साथ घर में पसरा था कि हमें दिल्ली में लंबे समय तक रहना होगा। मां के चप्पल, रुमाल, पर्स, घड़ी, बिस्किट का अधखाया डब्बा, चूड़ियां, लवंग, इलायची, स्वाद और न जाने कितने तरह के सामान थे। इन्हें समेटने के ख्याल से मन बहुत घबराया, खूब रुलाई आई। हमेशा की तरह मां से हिम्मत मांगती रही, और मिली भी, आज भी मिलती है। मन में हाहाकार मचा था, लेकिन अकेले पापा का ख्याल अंत-अंत तक रखने की कोशिश की।

मां की साड़ियों और कपड़ों को समेटकर सूटकेस में रखना था। बाहर छत पर मां का तौलिया, उसकी नाइटी, मोजे आदि सूख रहे थे। शाम को उन्हें सूखते देखकर मां ने सोचा भी नहीं होगा कि उन्हें उसके मरने के बाद उतारा जायेगा। लगा, जैसे कोई चलते-चलते एकाएक रुक गया हो। मां की कितनी साड़ियां नयी थीं, कई ऐसी जिन्हें बहुत कम बार पहना गया था। बीमारी के दिनों में खरीदी साड़ियां मां पहन नहीं पायी थीं। एक नई साड़ी थी दशहरे में पहनने के लिए, लेकिन मां इतनी बीमार थी कि पहन नहीं पायी।

वह शायद अपनी बीमारी की गंभीरता समझती थी, लेकिन उसने कभी जाहिर नहीं होने दिया। बाद में कई नजदीकी लोगों ने मुझे बताया कि वह कभी-कभी रात में जागती भी थी, लेकिन अपनी तकलीफों को नहीं बताती थी, ताकि हमलोग परेशान न हों। मैं बीमारी की गंभीरता से पूरी तरह अनजान थी। किसी व्यक्ति को सर्दी-बुखार छोड़ कुछ होते देखने का मौका नहीं मिला था। इसीलिए दुखी होने के पर भी कहीं थोड़ा उत्साह था कि मां पहली बार दिल्ली जा रही है, भइया के पास। यह सोचने की कोई वजह नजर नहीं आयी कि जॉन्डिस ठीक नहीं होगा। पहले लगा, मां दशहरे तक लौट आयेगी, फिर लगा दीपावली तक। लेकिन इंतजार बना रहा। फिर जब पापा को दिल्ली जाना हुआ, यह कार्यक्रम तय हुआ कि मां के ऑपरेशन के समय मैं दिल्ली चली आऊंगी और फिर सब लोग 15-20 दिन घूमने के बाद रांची आयेंगे।

मां के दिल्ली जाने के बाद घर तो सूना हो ही गया था, पापा के जाने के बाद तो वह और घना हो गया था। दीपावली की सुबह मन बहुत खराब लगा था। बहुत देर तक सुबकती रही थी। अनुराग भइया के आने से थोड़ी राहत मिली थी और मां ठीक हो जायेगी, इसकी आश्वस्ति भी। मां ने दिल्ली में पापा को बताया था कि रांची में वह उम्मीद छोड़ चुकी थी, लेकिन अब उसे लगता है कि एम्स के इलाज से वह ठीक हो जायेगी। मां का आत्मविश्वास लौट आना बड़ी बात थी। जिस दिन मां रांची से गयी थी, वह इतनी कमजोर और थकी लगी थी कि पापा ने कहा था कि जाने के बाद तो इलाज हो ही जाना है, लेकिन हमलोगों की पहली कामयाबी यही होगी कि वह यह लंबा सफर तय कर ले। दीपावली की शाम हम दोनों भाई-बहन दीये सजा रहे थे। ख्याल आता रहा कि किस तरह मां अभी पूजा की तैयारी मे जुटी होती थी, सीधा पल्ला साड़ी पहने। पापा निर्देश देते, अनुराग भइया अनमना-सा काम में जुटता, पराग भइया हंसता हुआ और मां व्यस्त-सी। किस तरह से छितरा गया हमारा परिवार।

अब तो लगता है कि छितरापन स्थायी हो गया है। एक व्यक्ति के नहीं रहने से जैसे घर का सारा समीकरण बदल गया है। पापा के भविष्य की सारी योजनाएं, सारी कल्पनाओं की दिशा बदल गयी है। मां-पापा अक्सर सोचा करते थे कि तीनों बच्चे बाहर रहेंगे। जब किसी को कभी आना होगा, हम उत्साह से तैयारी करेंगे। लेकिन आज सबसे ज्यादा भरे मन से विदा करने वाला न वह हृदय है और न ही हमारे आने पर सबसे ज्यादा खिलखिलाने वाला मन। हमारी सफलताओं पर सबसे ज्यादा खुश होने वाला व्यक्ति आज नहीं है। लगता है किसके भरोसे हम तीनों पापा को छोड़कर रांची से बाहर रह सकेंगे। यहां पापा के साथ कौन हमारा इंतजार करेगा। निरंतर गिरती जा रही सेहत वाली दादी के लिए मां से बड़ा सहारा कोई नहीं हो सकता। आनेवाली पीढ़ी को किस तरह यह कमी खलेगी। मां जब हंसकर कहती थी कि संभालना तो मुझे ही पड़ेगा न, उसके मन के किसी कोने में भी अविश्वास नहीं उभरता होगा कि वह उस दिन अपनी जिम्मेवारियों को पूरा करने के लिए नहीं रहेगी।
(जारी)

Tuesday, January 06, 2009

कैसे बीत जाते हैं वर्ष

कैसे बीत जाते हैं!

अभी-अभी वर्ष 2008 बीता है। मां का काव्य संकलन 'चांदनी आग है' पढ़ रहा था कि यह कविता दिख गयी। लगा अभी इसे ब्लॉग पर डाल दूं।

-अनुराग अन्वेषी


प्यार और खुमार में डूबे हुए,
मीठे मनुहारों-से रूठे हुए,
उजले फव्वारों-से भीगे हुए,
कैसे बीत जाते हैं वर्ष!

चक्की के पाटों में पिसे हुए,
जिंदगी के जुए में जुते हुए,
भारी चट्टानों से दबे हुए,
कैसे बीत जाते हैं वर्ष!

मौसम की चौरंगी चादर-से
बोरों में भरे हुए दुःख,
मुट्ठी भर हर्ष
विजय पराजय के नाम के संघर्ष,
कैसे बीत जाते हैं वर्ष!

टूटे संबंधों के धागे-से,
दूर की यात्रा में संगी-से,
कैसे बीत जाते हैं वर्ष!

Monday, January 05, 2009

अंधेरे में गुम रोशनी की लकीर (अंतिम किस्त)

शैलप्रिया की जीवन रेखा
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ई निकटस्थ परिचितों को यह भ्रांति है कि शैलप्रिया के साहित्य सृजन मं विद्याभूषण की प्रेरणा और सहयोग का उल्लेख्य योगदान रहा जबकि वस्तु-सत्य इससे मीलों दूर है। प्रेरणा और सहयोग का भाव नहीं रहा - यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन वह दूरस्थ सहयात्री की शुभकामना से अधिक उपयोगी नहीं था। सच यही है कि शैलप्रिया को विद्याभूषण का जितना सहयोग दैनन्दिन जीवन में मिला, उसका दसांश भी साहित्य में नहीं मिला। उनकी सबसे तीखी और मुखर आलोचना घर में ही होती रही, भले ही इसके

दरअसल, शैलप्रिया ने बैसाखी थामने की बजाय लंगड़ा कर चलना मंजूर किया और बाद के दिनों में अपनी चाक पर अपना चेहरा खुद गढ़ा। इससे अधिक सही बात यह है कि स्वयं लड़खड़ाते हुए भी उन्होंने अपने जीवन साथी को हमेशा सहारा दिया। सन् 63 से 70 के बीच साहित्य की एक छोटी-सी पारी खेलकर विद्याभूषण ने पिच की ओर पीठ कर ली थी। सन् 85 तक आते-आते विद्याभूषण की अपनी नाव जिंदगी की रेत में औंधी पड़ चुकी थी। शैलप्रिया ने ही उसे फिर से लहरों के हवाले किया। पति के टूटे-दरके आत्मविश्वास को संबल और टेक दी।

पीछे उनसे की गयी बड़ी अपेक्षाएं और शुभाशंसाएं रही हों। पति के भाषा संबंधी कुछ अतिरिक्त दुराग्रह थे जो बहुत बाद में कम होते-होते टूट गये। इस व्यामोह की कसौटी पर शैलप्रिया खरी नहीं उतरती थीं। इसलिए प्रोत्साहन वाली बात निरी अवास्तविकता है। यह जरूर है कि जब-तब, आवश्यकता पड़ने पर विद्याभूषण ने साज-संभाल का काम पूरे मनोयोग से किया। दरअसल, शैलप्रिया ने बैसाखी थामने की बजाय लंगड़ा कर चलना मंजूर किया और बाद के दिनों में अपनी चाक पर अपना चेहरा खुद गढ़ा। इससे अधिक सही बात यह है कि स्वयं लड़खड़ाते हुए भी उन्होंने अपने जीवनसाथी को हमेशा सहारा दिया। सन् 63 से 70 के बीच साहित्य की एक छोटी-सी पारी खेलकर विद्याभूषण ने पिच की ओर पीठ कर ली थी। सन् 85 तक आते-आते विद्याभूषण की अपनी नाव जिंदगी की रेत में औंधी पड़ चुकी थी। शैलप्रिया ने ही उसे फिर से लहरों के हवाले किया। पति के टूटे-दरके आत्मविश्वास को संबल और टेक दी। यह उनकी नींव की ईंट की भूमिका थी। अपने लिए कुछ खास नहीं चाहा, कभी कुछ चाहा भी था, उसे बिसरा दिया। किंतु अपने सहयात्री के लिए बार-बार ढाल बनती रहीं वे।

शैलप्रिया की मनोरचना एकरेखीय नहीं थी। अनेक आड़ी-तिरछी, एक-दूसरे को समानानंतर काटती रेखाओं से बन सकती है वह तस्वीर। दूर से जो निपट सरलता दिखती थी, वह जटिल सादगी थी जिसपर उनका सहज मन शासन करता था। एक उदाहरण से शायद बात तनिक सुस्पष्ट हो। सन् 86 से सन् 94 के दरम्यान रांची के नाट्य प्रदर्शनों, लोकार्पण समारोहों, विचार गोष्ठियों, नुक्कड़ कार्यक्रमों, साहित्य उत्सवों और सांस्कृतिक आयोजनों और महिला संगठनों में शैलप्रिया और विद्याभूषण अक्सर साथ-साथ पहुंचते थे। घर से दोनों साथ निकलते थे, लेकिन कार्यक्रम स्थल पर पहुंच कर वे अलग हो जातीं। किसी ने किसी कार्यक्रम में दोनों को अगल-बगल की कुर्सियों पर संग-साथ बैठे शायद ही देखा हो। वापसी में भीड़ में एक दूसरे को खोजकर दोनों साथ घर लौटते। इस व्यवहार का मनोविज्ञान शायद यही था कि विद्याभूषण के किसी 'प्राप्तव्य' में अर्द्धांगिनी के रूप में हिस्सेदारी उनको आत्मसम्मानजनक नहीं लगती थी। उन्हें अपने बूते जो और जितना मान-पहचान मिल सकती थी, वही उनको स्वीकार था।

बहुत बार रात के कार्यक्रमों में वे विद्याभूषण के साथ बेटे प्रियदर्शन को भेज देतीं क्योंकि प्रियदर्शन का जाना उन्हें ज्यादा जरूरी लगता था। घर में दुपहिया वाहन एक ही जो था। जाहिर है, अपनी इच्छा को वे दरकिनार कर देती थीं। सुलभ दिखते अवसर को लपक लेना भी उनकी प्रकृति के विरुद्ध बात थी। एक बार डॉ. द्वारका प्रसाद के आवास पर बालशौरि रेड्डी के सम्मान में चाय पार्टी थी। रेड्डी जी ने 'परिषद भारती' के लिए शैलप्रिया से कविताएं मांगी थीं। वे कविताएं कभी नहीं गयीं। इसी तरह इंटरव्यू के कई असर उन्होंने यूं ही गुजर जाने दिये। घर में आये अतिथि बृजबिहारी शर्मा हो, या भारत यायावर, राघव आलोक हों या शंभु बादल, रमणिका गुप्ता हों या ललन तिवारी, शिवशंकर मिश्र हों या कोई अन्य पत्र-प्रतिनिधि मित्र, शैलप्रिया ने हमेशा जरूरत भर हाल-समाचार पूछ-कहा, मगर अपनी रचनाओं का प्रसंग किसी ब्याज से नहीं आने दिया। किसी ने प्रशंसा में कुछ कहा तो मौन स्मिति से आभार जता दिया, बस। इस खामोशी में एक रचनाकार का आहत अहं भी हो सकता है।

उनका चेहरा पोटोजेनिक था। लिहाजा उनकी तस्वीरें अच्छी आती थीं। मगर वे किसी भीड़ में कैमरे के सामने आने की कोशिश नहीं करती थीं। उनके निधन के बाद उन पर एक वीडियो फिल्म बनाने के लिए पारिवारिक-सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजनों के दर्जन भर कैसेट जुटाये गये। उनमें तलाशा गया तो बमुश्किल दो-एक जगहों पर वे दिखलायी पड़ीं। किसी सार्वजनिक कार्यक्रमें में समयपूर्व पहुंच कर भी कुर्सियों की अगली कतार में बैठना उन्हें पसंद नहीं था। रुचि वैविध्य के नाम पर बताने योग्य उनके शौक कई थे - फिल्म, ताश और लूडो के खेल, चाय, गुल, मीठा पान, चाट, गपशप, मिलना-जुलना, दूसरों के सुख-दुख में साझेदारी, बेतकल्लुफी, यात्रा, सतर्क सादगी और निर्मल हास्य-विनोद।

सन् 89 के बाद वे धीरे-धीरे खुलती जा रही थीं। वर्ष 91 में प्रकाशित 'चांदनी आग है' की कई कविताओं से उनके प्रशंसकों की संख्या बढ़ने लगी थी। उनका आत्मविश्वास पायेदार बन चुका था। उनकी गतिविधयों में गंभीरता, सूझ-समझदारी, विविधता और विस्तार का समावेश गहराने लगा था। विभिन्न संस्थाओं के आयोजनों में उनको सौंपे गये दायित्वों से यह अंदाज होता है कि उनकी भागीदारी उपयोगी मानी जा रही थी। उनकी सरल-स्नेहमयी गृहणी की पुरानी छवि की जगह समर्पित और संघर्षशील महिला की नयी छवि जन्म ले रही थी।

उन्हें जीवन, समाज और साहित्य में किसी सार्थक भूमिका की तलाश थी। वह तलाश अधूरी रह गयी। पंख फैला कर खुले आसमान में उड़ने की आकांक्षा धराशायी हो गयी। रौंदते पांवों को नकार कर नंगे पांव दौड़ने का संकल्प थम गया। अभावग्रस्त जिंदगियों में दीवाली का आलोक फैलाने की प्रतीक्षा करने वाली आंखें हमेशा के लिए बंद हो गयीं। आग बनती चांदनी बर्फ बन गयी। 1 दिसंबर 1994 की रात लगभग दस बजे ताकत की दवा मांगती आवाज लड़खड़ा गयी।

इन्हीं वर्षों में वे धनबाद जिला सांस्कृतिक संघ की सात दिवसीय नाट्य प्रतियोगिता (1991) की निर्णायक समिति की सदस्य, महिला उत्पीड़न विरोधी संघर्ष समिति के वार्षिक सम्मेलन (1991) में मुख्य अतिथि, शिल्पी युवा संगठन की निबंध प्रितयोगिता (1992) और देशप्रिय क्लब कविता-पाठ प्रतियोगिता (1992) निर्णायक सदस्य बनायी गयीं। इसी तरह सन् 92 में महिला मोर्चा द्वारा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर आयोजित 'महिला, राजकीय दमन और निदान' संगोष्ठि में मुख्य अतिथि हुईं। सन् 93 सीसीएल राजभाषा निबंध प्रतियोगिता की निर्णायक समिति में रहीं और अग्रवाल महासभा के सप्तदश वार्षिकोत्सव में निबंध प्रतियोगिता की निर्णायक रखी गयीं। सन् 93 में ही प्रगतिशील लेखक संघ की रांची इकाई ने उन्हें एकल कविता पाठ का अवसर दिया था। सन् 94 में रांची पब्लिक उर्दू लाइब्रेरी की रजत जयंती के अवसर पर हिंदी के पांच साहित्कारों को सम्मानित करने के लिए चयनित नामों में शैलप्रिया भी थीं। इस कार्यक्रम गंभीर स्वास्थ्य संकट के कारण वे उपस्थित नहीं हो सकीं। उनका अंतिम सार्वजनिक कार्यक्रम 28 अगस्त 94 को रांची विश्वविद्यालय की हिंदी पुनश्चर्या के समापन समारोह में आयोजित कविता-पाठ के रूप में हुआ।

उन्हें जीवन, समाज और साहित्य में किसी सार्थक भूमिका की तलाश थी। वह तलाश अधूरी रह गयी। पंख फैला कर खुले आसमान में उड़ने की आकांक्षा धराशायी हो गयी। रौंदते पांवों को नकार कर नंगे पांव दौड़ने का संकल्प थम गया। अभावग्रस्त जिंदगियों में दीवाली का आलोक फैलाने की प्रतीक्षा करने वाली आंखें हमेशा के लिए बंद हो गयीं। आग बनती चांदनी बर्फ बन गयी। 1 दिसंबर 1994 की रात लगभग दस बजे ताकत की दवा मांगती आवाज लड़खड़ा गयी। अंधेरे में डूबी रोशनी की लकीर पर उस रात पटाक्षेप का परदा गिर गया।

अंधेरे में गुम रोशनी की लकीर (चौथी किस्त)

शैलप्रिया की जीवन रेखा
विद्याभूषण
पहली, दूसरी या तीसरी किस्त के लिए यहां क्लिक करें

सु
रभि और बाद में जागरण (दोनों सामाजिक संस्थाएं ) से भी उनका जुड़ाव लगभग तीन दशकों तक रहा। प्रेस शुरू होने से पहले ही वे सामाजिक गतिविधियों में शरीक हो चुकी थीं। सन् 73 में आरा बाढ़ पीड़ितों के बीच राहत सामग्री के वितरण के लिए वे जागरण की टीम के साथ आरा गयी थीं । बाद के वर्षों में यह जुड़ाव कई आंदोलनों-संस्थाओं-कार्यक्रमों तक फैलता गया। फिर संगठन विशेष की सीमाएं भी नहीं रह गयीं।

शैलप्रिया के लिए संगठन या बैनर महत्वपूर्ण नहीं रहे जितना कि सवाल और प्रयोजन। उनकी भागीदारी वहां भी होती रही जहां वे संगठन में शामिल नहीं थीं। यही कारण है कि वे सहज भाव से एक तरफ जागरण और उषा सक्सेना-मीरा बुधिया से भी जुड़ी रहीं तो उसी सहजता के साथ नारी उत्पीड़न विरोधी संघर्ष समिति और मालंच घोष-प्रभावती तिवारी से भी जुड़ी रह सकीं। महिला मोर्चा और माया प्रसाद भी उनकी सहभागी बनीं, तो उमा, सुधा, कनक, कुमुद, रेणु दिवान, मणिमाला, कुंती कश्यप और निर्मला झा से भी उनके सहयात्री संबंध बने।

उन्होंने महिला उत्पीड़न विरोधी संघर्ष समिति और महिला मोर्चा के कार्यक्रमों में निःशर्त योगदान किया। शैलप्रिया के लिए संगठन या बैनर महत्वपूर्ण नहीं रहे जितना कि सवाल और प्रयोजन। उनकी भागीदारी वहां भी होती रही जहां वे संगठन में शामिल नहीं थीं। यही कारण है कि वे सहज भाव से एक तरफ जागरण और उषा सक्सेना-मीरा बुधिया से भी जुड़ी रहीं तो उसी सहजता के साथ नारी उत्पीड़न विरोधी संघर्ष समिति और मालंच घोष-प्रभावती तिवारी से भी जुड़ी रह सकीं। महिला मोर्चा और माया प्रसाद भी उनकी सहभागी बनीं, तो उमा, सुधा, कनक, कुमुद, रेणु दिवान, मणिमाला, कुंती कश्यप और निर्मला झा से भी उनके सहयात्री संबंध बने। उन्होंने संगठनों में व्यक्तियों के मतभेदों अंतर्विरोधों को जानते-समझते हुए भी कभी अपनी स्थिति बेहतर बनाने की चाल नहीं चली। उनके मैत्री-संबंधों में विविधता और स्थायित्व का रहस्य यह था कि वे लाभ-हानि के हिसाब-किताब के प्रति विरक्त थीं।
साहित्य में उनकी शुरुआत देर से हुई। प्रेस और परिवार के दायित्वों से आंशिक अवकाश मिलने के बाद। 'साहित्यिक' बनना-दिखना उन्हें कभी जरूरी नहीं लगा। 'रचनाकार' रह-हो कर ही वे संतुष्ट रहीं।
सन् 83 में 'अपने लिए' का प्रकाशन कई 'अपनों' के लिए भी तनिक आश्चर्यजनक था जो उन्हें 'नजदीक' से जानते थे। कविता-लेखन से उनका जुड़ाव स्कूली छात्रा के रूप में ही हो चुका था। विद्यालय पत्रिका में शैल कुमारी वर्मा की दो-एक गीतनुमा रचनाएं छप गयी थीं। ऐसी कुछेक अप्रकाशित रचनाएं उनकी प्रारंभिक डायरी में दर्ज हैं। जैसे -
ओट में ही रहो तुम हे अश्रु कण,
द्वार मत मेरे हृदय का खोल दो।
चाहती हूं मैं नहीं रोना कभी,
कुंतु बरबस रुलाई क्यों आ रही?
स्नेह से प्लावित हृदय में उमड़ती,
आंख में धारा अंटकती आ रही।
बंद पलकों में ढलकते अश्रु कण
राज मत मेरे हृदय का खोल दो।
(21.10.61)
या फिर
जलता दिल पास है।
आज वह उदास है।
अपनी लगन न छोड़ सकूंगी,
बढ़ते चरण न रोक सकूंगी,
बाधाएं तो आती ही हैं
रोड़े भी अंटकाती ही हैं। ....
(29.08.62)
इसके बावजूद कविताएं उनके लिए निजी मनःस्थिति और उद्गारों का

पत्र-पत्रिकाओं से दूर-दूर या अलग-थलग रहने से कम नुकसान नहीं उठाया उन्होंने, जबकि उनके सहजलब्ध परिचय-परिधि में भी ऐसे अनेक अवसर मिल सकते थे। क्रमशः, अभिज्ञान, अभिकल्प, प्रसंग, कतार, विपक्ष, युद्धरत आम आदमी, नवतारा, उत्तरा, दस्तक, सार्थक जैसी कई पत्रिकाएं और रांची एक्सप्रेस, देशप्राण, न्यू मेसेज, रांची विकली जैसे बड़े-छोटे पत्रों के संपादकों से उनके निकट व सीधे संपर्क रहे। इन दर्जन भर पत्र-पत्रिकाओं के अलावा भी उनकी आसान पहुंच कई पत्र-पत्रिकाओं तक भी हो सकती थी। लेकिन उन्होंने वह सब नहीं किया, जो अनिवार्यतः कर लेना चाहिए था।

अभिलेख भ बनी रहीं और अनेक वर्षों तक उन्होंने निजी डायरी की तरह उन्हें दूसरों से छिपा कर रखा। सत्यदेव राजहंस ने ऐसी ही तीन रचाओं को गरस्त, 66 में रेडियो से प्रसारण के लिए चुना था। शुरू की कुछ कविताएं अभिज्ञान मासिक, युगश्री और प्रताप इंडिया में भी छपीं। लेकिन सिलसिलेवार लिखना बहुत बाद में हुआ। सन् 83 में 'अपने लिए' के प्रकाशन के साथ शैलप्रिया एक छोटे-से दायरे में भावप्रवण कवयित्री के रूप में जानी गयीं। इस तरह उनकी साहित्य-यात्रा की अवधि सिर्फ ग्यार वर्ष ठहरती है। वैसे, कायदे से जीवन के अंतिम पांच वर्षों में ही वे अपने विचारों और लेखन को मनचाही दिशा-दशा देकर अपने को साधने में लग पायीं।
पत्र-पत्रिकाओं से दूर-दूर या अलग-थलग रहने से कम नुकसान नहीं उठाया उन्होंने, जबकि उनके सहजलब्ध परिचय-परिधि में भी ऐसे अनेक अवसर मिल सकते थे। क्रमशः, अभिज्ञान, अभिकल्प, प्रसंग, कतार, विपक्ष, युद्धरत आम आदमी, नवतारा, उत्तरा, दस्तक, सार्थक जैसी कई पत्रिकाएं और रांची एक्सप्रेस, देशप्राण, न्यू मेसेज, रांची विकली जैसे बड़े-छोटे पत्रों के संपादकों से उनके निकट व सीधे संपर्क रहे। इन दर्जन भर पत्र-पत्रिकाओं के अलावा भी उनकी आसान पहुंच कई पत्र-पत्रिकाओं तक भी हो सकती थी। लेकिन उन्होंने वह सब नहीं किया, जो अनिवार्यतः कर लेना चाहिए था। शायद वे मांग कर कुछ पाना नहीं चाहती थीं और बिना कोशिश इस दुनिया में कुछ भी हासिल होता नहीं। ऐसा एक भी अवसर बताया नहीं जा सकता कि उन्होंने व्यक्तिगत संबंधों का कारोबारी उपयोग किया हो।
अब लगता है, निकटस्थ कई लोगों से भी अनचाहे-अनजाने उनकी अनदेखी होती रही। दरअसल यह अनदेखी घर में भी हुई। विद्याभूषण के संपादन-सहयोग से निकलने वाली अनियतकालीन पत्रिकाओं - क्रमशः, अभिज्ञान, अभिकल्प, प्रसंग - में इस या उस संकोच के कारण शैलप्रिया की रचनाएं शामिल नहीं हो पायीं। दुर्योग यह कि यह सिलसिला आगे भी जारी रह गया।
(जारी)