'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Tuesday, September 01, 2009

मेरे आस-पास बहती है एक सुलगती नदी

लेखक परिचय
अश्विनी कुमार पंकज 1964 में जन्म/डॉ. एम. एस.‘अवधेश’ और स्व. कमला देवी के सात संतानों में से एक/1991 से जिंदगी और सृजन के मोर्चे पर वंदना टेटे की सहभागिता/आयुध और अटूट संतोष दो बच्चे/राँची विश्वविद्यालय, राँची से कला स्नातकोतर/पिछले तीन दशकों (सवा दशक राजस्थान के उदयपुर और अजमेर में) से रंगकर्म, कविता-कहानी, आलोचना, पत्रकारिता एवं डाक्यूमेंट्री से गहरी यारी/अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों -प्रिंट, ऑडियो, विजुअल, ग्राफिक्स, परफॉर्मेंस और वेब के साथ जम कर साझेदारी/ पत्र-पत्रिकाओं में और आकाशवाणी राँची एवं उदयपुर से साहित्यिक विधाओं में रचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसारण/झारखण्ड आंदोलन में सघन संस्कृतिकर्म/झारखण्ड एवं राजस्थान के आदिवासी जीवन, समाज, भाषा-संस्कृति, इतिहास और पर्यावरण पर थियेटर, फिल्म और साहित्यिक माध्यमों में विशेष कार्य/फिलहाल झारखण्ड की लुप्तप्राय आदिवासी भाषाओं तथा उनके इतिहास पर सक्रिय. पहला नाटक ‘एक सही निर्णय’ 1983 में/पहली पत्रिका ‘बिदेसिया’ का प्रकाशन-संपादन 1987 में/आदिवासी-देशज थियेटर की स्थापना 1988 में/पहली डॉक्युमेंटरी ‘कहिया बिहान होवी’ (हिन्दी एवं झारखण्ड की क्षेत्रीय भाषा नागपुरी में) 1989-90 में/कविताओं पर पहला रंगमंचीय प्रयोग (हम लड़ेंगे साथी) 1989 में/पहली वेब पत्रिका आरंगन डॉट ओआरजी का निर्माण 1996 में/ देश का पहला आदिवासी वेबपोर्टल (आदिवासी एवं क्षेत्रीय सहित हिंदी-अंग्रेजी 11 भाषाओं में का सृजन 2003 में/झारखण्ड की पहली बायोग्राफिकल फिल्म ‘प्यारा मास्टर’ की रचना 2003 में/झारखंड की एकमात्र लोकप्रिय प्रोफेशनल मासिक नागपुरी पत्रिका ‘जोहार सहिया’ की शुरुआत 2006 में/नब्बे के शुरुआती दशक में जन संस्कृति मंच एवं उलगुलान संगीत नाट्य दल, राँची के संस्थापक संगठक सदस्य. पेनाल्टी कार्नर (कहानी संग्रह), जो मिट्टी की नमी जानते हैं, खामोशी का अर्थ पराजय नहीं होता, युद्ध और प्रेम, भाषा कर रही है दावा (कविता संग्रह), अब हामर हक बनेला (हिंदी कविताओं का नागपुरी अनुवाद), छाँइह में रउद (दुष्यंत की गजलों का नागपुरी अनुवाद) प्रकाशित पुस्तकें/आदिवासी सौंदर्यशास्त्र, हिंदी साहित्यः एक सबाल्टर्न परख (आलोचना), नागपुरी भासा-साहितः सिरजन आउर बिकास, झारखंडी साहित्य का इतिहास (भाषा-साहित्य), एक ‘अराष्ट्रीय’ वक्तव्य (विमर्श), डायरी वाली स्त्री, सैंतालिसवाँ, दूजो कबीर, पहली लड़की (नाटक), रंग-बिदेसिया (व्यक्तित्व) पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य/22 डॉक्युमेंटरी फिल्मों की रचना/28 पूर्णकालिक और 126 मुक्ताकाशी नाटकों का लेखन-निर्देशन/देश भर में सात हजार से अधिक रंगप्रस्तुतियां/मीडिया और थियेटर के लगभग 60 वोर्क्शोप्स का निर्देशन/‘जोहार सहिया’ (मासिक) और पाक्षिक बहुभाषायी अखबार ‘जोहार दिसुम खबर’ का संपादन/2004 से झारखण्ड की 12 आदिवासी एवं क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका ‘झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ के रचनात्मक सलाहकार.


शै
ल जी से मेरा परिचय न तो उनके पति विद्याभूषण जी ने करवाया था और न ही उनके बेटे पराग ने। मेरे और उनके बीच परिचय कराया था उनकी कविताओं ने। उनकी साहित्यिक अभिरूचियों और उनकी वंचित स्त्री दुनिया ने। इस परिचय को संबंध में रूपांतरित होने में जरूर विद्याभूषण जी की भूमिका रही जिसे आगे चलकर और प्रगाढ़ बनाया पराग की दोस्ती ने। शायद इसीलिए मैं उन्हें कभी आंटी नहीं कह सका। वह हमेशा मेरे लिए शैल जी ही बनी रहीं।
वामपंथ से शुरुआती परिचय के दिनों में मैं शैल जी और उनके परिवार के बहुत करीब रहा। शायद उनके एक और बेटे की तरह।
उन बनते-बिखरते दिनों में मैंने शैल जी की कविताओं के पार उस स्त्री को देखा जो बिल्कुल मेरी मां जैसी थी।


वामपंथ से शुरुआती परिचय के दिनों में मैं शैल जी और उनके परिवार के बहुत करीब रहा। शायद उनके एक और बेटे की तरह। उन बनते-बिखरते दिनों में मैंने शैल जी की कविताओं के पार उस स्त्री को देखा जो बिल्कुल मेरी मां जैसी थी। दुनिया की सारी स्त्रियों की तरह खामोश। पर, जहां दूसरी औरतों की चुप्पी उनकी यंत्राणा और अवसाद को और गहरा कर देती हैं, वहीं शैल जी की खामोशी उनकी मुखरता को उस गहराई तक ले जाती थी जहाँ निर्मल जल के सोते फूटते हैं। जिंदगी को आश्वस्त करते हुए। खामोशी को मुखर बना देने की कला बहुत सारी स्त्रियां नहीं जानती हैं। शैल जी ने लेकिन इसे अर्जित किया। निःसंदेह विद्याभूषण जी के संग की भी इसमें प्रभावी भूमिका रही। बावजूद इसके खामोशी को कविता में बदल देने का पूरा कला उपक्रम नितांत उनका अपना था। उनकी सभी कविताएं इसी की बानगी हैं।

उनकी पहली प्रकाशित कविता पुस्तक ‘अपने लिए’है। इसके शीर्षक से यही आभास होता है कि शायद इसमें शामिल रचनाएं कवि के निजी अहसासों में गुंथी होंगी। परंतु ऐसा नहीं है। एक स्त्री के निजी अहसास कैसे सामाजिक ताने-बाने को अपनी इच्छाओं से रंगते हैं और उसका पुराना रूप बदलने की कोशिश करते हैं, यह हम ‘अपने लिए’ की कविताओं में बहुत ही साफ-साफ देख सकते हैं। उनका दूसरा कविता संकलन ‘चांदनी आग है’ अपने लिए के अर्थ को, उनके कविता कर्म को, घर-परिवार और समाज को समझने की दृष्टि को, भारतीय स्त्री के मुक्कमिल इंसान होने के संघर्ष को पूरी सुघड़ता और परिपक्वता के साथ उद्घाटित करता है। अपने लिए में वे जहां समाज को समझते हुए खुद की स्त्री को तैयार करती दिखती हैं, वहीं चांदनी आग है में उनके भीतर की समझदार स्त्री सुलगती हुई नदी में रूपांतरित हो जाती है। भाव, भाषा, शैली और कहन की दृष्टि से चांदी आग है की लगभग सभी कविताओं में शैली जी का निजपन दुनिया की सभी स्त्रियों का लोकगीत बन जाता है।

हमारे समाज में कोई भी स्त्री एक ही साथ अनेक मोर्चों पर जूझती है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि उसे जूझना ही होता है। शैल जी इससे अलग नहीं थीं। तब के बिहार-झारखंड का रहनेवाला और हिंदी साहित्य से जुड़ा रांची आनेवाला शायद ही कोई लिखने-पढ़ने वाला व्यक्ति हो, जो उनसे नहीं मिला हो। इसमें राजनीतिक और मीडिया के लोगों को जोड़ दें, तो मिलनेजुलने वाले लोगों का दायरा और विस्तारित हो जाता है। हांलाकि अधिकतर लोग विद्याभूषण जी से मिलने आते थे, पर वे जब लौट रहे होते तो शैली जी का शांत लेकिन बौद्धिक व्यक्तित्व भी उनके साथ होता था। घर आये मेहमान का ख्याल रखने वाली विद्याभूषण जी की पत्नी शैलप्रिया से कहीं ज्यादा कवयित्री शैल जी की छवि मन में घर कर जाती थी।

मेरी स्मृतियों में उनकी कई छवियां है, लेकिन सुलगती नदी के रूप में वे मुझे सबसे ज्यादा याद आती हैं। यह नदी उनकी खामोश आंखों में लगातार ठाठें मारती रहती थी। उमड़ती-घुमड़ती रहती थी भारतीय स्त्री चेहरे पर काबिज सामंती अवशेषों को बहा कर दूर फेंक देने के लिए। मैंने देखा है उनकी आंखों में समाज की भाषा के व्याकरण का स्त्री-पाठ। सुलगती हुई नदी का यह स्त्री-पाठ शैल जी की पंक्तियों में देखिए - आधी रात के बाद भी/नींद नहीं आती है कभी-कभी।/और सुबह के इंतजार में/कटती जाती है/प्रतीक्षा भरी बेलाएं।
सुलगती हुई नदी पर अभी इतना ही। शेष फिर ...

Thursday, August 27, 2009

फुरसत में

जब कभी
फुरसत में होता है आसमान,
उसके नीले विस्तार में
डूब जाते हैं
मेरी परिधि और बिंदु के
सभी अर्थ।

क्षितिज तट पर
औंधी पड़ी दिशाओं में
बिजली की कौंध
मरियल जिजीविषा-सी लहराती है।

इच्छाओं की मेघगर्जना
आशाओं की चकमकी चमक
के साथ गूंजती रहती है।
तब मन की घाटियों में
वर्षों से दुबका पड़ा सन्नाटा
खाली बरतनों की तरह
थर्राता है।

जब कभी फुरसत में होती हूं मैं
मेरा आसमान मुझको रौंदता है
बंजर उदास मिट्टी के ढूह की तरह
सारे अहसास
हो जाते हैं व्यर्थ।
(शैलप्रिया की कविता 'फुरसत में' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)

Tuesday, July 07, 2009

जिंदगी

आज तारीख 7 है। इस महीने का पहला हफ्ता अभी बीत रहा है। और हमें यह चिंता अभी से खाए जा रही है कि महीने भर घर का खर्च कैसे चलेगा। वैसे यह खूब पता है कि ऐसी चिंता में सिर्फ हम ही नहीं घुल रहे, बल्कि इस चिंता से आपको भी दो-चार होना पड़ता है। यह तो घर-घर की कहानी है। खैर, अपने घर के बजट से उबरा, तो मां की किताब 'चांदनी आग है' लेकर बैठ गया। और संयोग देखिए कि जो पन्ना खुला, उस पन्ने की कविता भी आम आदमी के घरेलू बजट से जुड़ी निकली। आप भी पढ़ें :

- अनुराग अन्वेषी


अखबारों की दुनिया में
महंगी साड़ियों के सस्ते इश्तहार हैं।
शो-केसों में मिठाइयों और चूड़ियों की भरमार है।

प्रभू, तुम्हारी महिमा अपरम्पार है
कि घरेलू बजट को बुखार है।

तीज और करमा
अग्रिम और कर्ज
एक फर्ज।
इनका समीकरण
खुशियों का बंध्याकरण।

त्योहारों के मेले में
उत्साह अकेला है,
जिंदगी एक ठेला है।
(शैलप्रिया की कविता 'जिंदगी' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)

Tuesday, May 12, 2009

शैलप्रिया की निगाह में स्त्री संघर्ष

य वर्मा

शैलप्रिया क्या सोचती थीं स्त्री संघर्ष को लेकर, किसी स्त्री की पीड़ा को किस रूप में देखती थीं वह। और किसी स्त्री को पराजित क्यों मान लेता है पुरुष - इन्हीं बातों को रखता है उनके भाई उदय वर्मा के संस्मरण का यह हिस्सा।

- अनुराग अन्वेषी

पर से हम जिस व्यक्ति को जिस रूप और आकृति में जानते-पहचानते हैं, जरूरी नहीं कि उसका स्वरूप भी वैसा ही हो। शैल दी के संबंध में यदि कहा जाए तो कहना होगा कि उन्हें जानने और पहचानने में बार-बार भूल की जाती रही। यही कारम है कि उनके असाधारण स्वरूप को सदैव साधारण समझा जाता रहा। वैसे भी, सिर्फ लहरें ही समुद्र नहीं होतीं। उसमें गहराई भी होती है और मोती भी।

एक बार मैंने उनसे पूछा ता - 'सदियों की लड़ाई के बावजूद औरत पुरषों के कब्जे से मुक्त क्यों नहीं हो पायीं? उसे पुरुषों जैसा अधिकार क्यों नहीं मिल पाया है? वह बार-बार अपनी लड़ाई हार क्यों जाती है?' लंबी बहस के बावजूद शैल दी यह मानने को तैयार नहीं थी कि औरत हारती रही है। उनका कहना था कि आदिम युग से लेकर महानगरीय सभ्यता की विकास यात्रा में औरतों ने अपने लिए बहुत कम पाया है और इन्हे पराजय की उपलब्धि नहीं कहा जा सकता। उनका कहना था 'औरत हारती नहीं है, उसे युद्ध विराम के लिए विवश होना पड़ता है और दुर्भाग्य से इसे उसकी हार समझ लिया जाता है। औरत युद्ध विराम न करे तो विश्व के सारे परिवार बिखर जायेंगे। हमारा सामाजिक ढांचा ही नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा और मानव सभ्यता फिर आदिम युग में चली जायेगी। अपने पारिवारिक जीवन और सामाजिक ढांचे की सुरक्षा के लिए औरत जो त्याग करती है अगर हार-जीत की भावना से ऊपर उठ कर देखा जाये तो सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा।'

आदमी या व्यक्ति शब्द से सिर्फ पुरुष जाति का ही बोध क्यों होता है। इन शब्दों से पुरुष के साथ ही औरत की अर्थ छवि क्यों नहीं बनती? यह सवाल शैल दी के मन में अक्सर चुभता रहता था। उनका कहना था 'पुरुष प्रधान समाज की जो बहुत सारी विकृतियां हैं, इन शब्दों का अर्थ उन्हीं की देन है। इस तरह की विकृतियों को आखिर कैसे स्वीकार किया जा सकता है। हमारे सामाजिक ढांचे का स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि औरतों को बहुत कुछ सहना पड़ता है। पुरुष न तो उसकी प्रसव पीड़ा समझ पाते हैं और न ही आत्मा की पीड़ा। जिन्हें औरत बेहद अपना समझती है, जिनपर अपना सब कुछ आंख मूंद कर अर्पित कर देती है, वही उसे समझ नहीं पाते और कदम-कदम पर चोट पहुंचाते हैं।'

शैल दी मानती थी कि वर्तमान सामाजिक ढांचे को फिर से गढ़ने की जरूरत है। उनका कहना था कि 'सब कुछ तेजी से बदल रहा है। लेकिन हमारे सामाजिक ढांचे में बुनियादी तौर पर कोई परिवर्तन नहीं आ रहा है। हम पुराने घर में ही रहने को अभिशप्त हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन मां, पत्नी और बहन... सबके अर्थ ही बदल दिये जाएंगे।'

शैल दी की खास बात यह थी कि वह अपनी पीड़ा और अवसाद के क्षणों का सहभागी किसी को नहीं बनाती थी। लेकिन अपनी खुशियां सबके साथ मिल कर बांटने में उन्हें विशेष आनंद आता था। अपने लिए वह खुशियां बचा कर भी नहीं रखना चाहती थीं। वास्तव में सबकुछ मौन सहन कर जाना उनसे सीखा जा सकता था। यह गुण संभवतः उन्हें अपनी दादी से विरासत में मिला था। एक घटना याद आती है पराग (प्रियदर्शन) का जन्म होने वाला था। रांची के सदर अस्पताल में ऑपरेशन थिएटर में जाने से पहले शैल दी विद्याभूषण जी से मिलने के लिए बेचैन थी। उन्हें हमने पहले कभी भी इतना बेचैन, निराश और दुखी नहीं देखा था। विद्याभूषण जी आधी रात के बाद घर आये थे। उन्हें सुबह जल्दी ही अस्पताल लौट आना था। मां लगातार शैल दी को समझा रही थी - रात को देर से गये हैं, नींद लग गयी होगी, आते ही होंगे। हमलोग शैल दी की मनःस्थिति का सिर्फ अनुमान ही लगा सकते थे। शैल दी के साथ ही हम सबकी नजर दरवाजे पर लगी थी। लेकिन वहां कोई पदचाप नहीं थी। मुझे लगा शैल दी जोर-जोर से रोना चाह रही हैं लेकिन रो नहीं पा रही हैं। जब उन्हें ऑपरेशन थिएटर ले जाया जाने लगा, तब वह अपने आप को रोक नहीं पायीं और फफक कर रो पड़ीं। मां ने समझा असह्य प्रसवकालीन वेदना के कारण वह रो रही है और स्वयं भी रोते हुए उन्हें सांत्वना देने लगी। अब मुझे लगता है कि शैल दी का वह रुदन उनकी मन की वेदना को ही प्रकट कर रहा था। जिसे उन्होंने प्रसव पीड़ा के आवरण से ढंक दिया था। बाद के दिनों में भी कई ऐसे प्रसंग आये, जब अवसाद के क्षणों में उनका मन क्षत-विक्षत होता रहा। लेकिन उन्होंने दूसरों के सामने कभी अपने मन की परतों को नहीं खोला। बहरहाल, शैल दी के बिना एक साल गुजर गया, लेकिन हमें कभी ऐसा नहीं लगा कि वह हमारे आसपास नहीं हैं। अक्सर हमें लगता रहा कि शैल दी हमारे आसपास ही धड़कती रहती हैं। जब तक उनकी धड़कन हमें सुनाई देती रहेगी, तब तक यह नहीं कहा जा सकता है कि उस अधूरी कविता का अंतिम छंद नहीं लिखा जा सकेगा।

Monday, May 11, 2009

अधूरी कविता का अंतिम छंद

य वर्मा

शैलप्रिया के सगे भाई हैं उदय वर्मा। उम्र में अपनी शैल दी से तकरीबन 5 बरस छोटे। रांची से प्रकाशित दैनिक अखबार 'रांची एक्सप्रेस' में समाचार संपादक हैं। खुद बहुत ही अच्छी कविताएं लिखते रहे हैं। आकाशवाणी रांची से उनकी कविताओं का प्रसारण होता रहा है।

बहरहाल, इस संस्मरण में एक भाई ने अपनी बहन के जीवन को, उसकी उपलब्धियों को किस रूप में याद किया है, यह आप पढ़ें।

- अनुराग अन्वेषी

शै

ल दी के बिना एक वर्ष गुजर गया। अब उनके बारे में सोचता हूं तो लगता है कि उनकी पूरी जिंदगी एक अधूरी कविता की तरह रही जिसका अंतिम छंद बस लिखा ही जाने वाला था। शैल दी ने मुझसे एक बार कहा था 'लगातार इनकार की जिंदगी जीते-जीते अपना स्वीकार भ्रमित तो नहीं होता, लेकिन उसका आवरण कुछ कठोर जरूर हो जाता है - जैसे कोमलता अपनी रक्षा के लिए स्वयं किसी कड़े खोल को धारण कर ले।' अब लगता है कि शैल दी के जीवन के साथ उनके ये शब्द कितने मेल खाते थे। जिंदगी के विभिन्न मोर्चों पर खट्टे, मीठे और तीखे अनुभवों से गुजरते हुए उन्होंने अपनी कोमल भावनाओं की रक्षा के लिए एक कठोर आवरण धारण कर लिया था। यही कारण है कि लगातार टूटती-बिखरती जिंदगी के बीच भी उनकी सहज संवेदनाएं जीवंत रहीं और कविताओं में ढलती रहीं। उन्हें कुछ लिखने के लिए कभी प्रयास नहीं करना पड़ा। सब कुछ स्वतः और सहज रूप से उपजता रहा। आपने पहली कविता कब लिखी - मैंने एकबार उनसे पूछा था लेकिन बहुत सोचने और याद करने के बाद भी वह यह नहीं बता पायीं कि उन्होंने कब से, किस उम्र से लिखना शुरू किया। हम दोनों अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि 13-14 साल की उम्र में यानी 1961-62 के आसपास उनका लेखन कार्य आरंभ हुआ होगा। बाद में कई टुकड़ों में लिखी गई इन कविताओं को जोड़कर एक कविता बना लेती थीं। यह क्रम शुरू से ही चला। उनके अनुसार 'प्रारंभ में मैं कविता लिखने के प्रति उतनी गंभीर नहीं थी, बस लिख लेती थी। यह तो विद्याभूषण जी के संपर्क का प्रभाव था कि मैं कुछ लिखने लगी थी। पिता के घर में साहित्यिक माहौल नहीं था। शादी के बाद मुझे एक भरापूरा माहौल मिला और भीतर की वेदना शब्द बन गयी।'

बचपन में शैलप्रिया को गीत सबसे ज्यादा प्रभावित करते थे। गजल भी उन्हें अच्छी लगती थी। उन दिनों एक पत्रिका प्रकाशित होती थी - सुषमा। इसमें गजलें खूब छपती थीं। इसी पत्रिका के माध्यम से वह गजल से परिचित हुई थीं। बाद में वह महादेवी की कविताओं के प्रभाव में आयीं और कविता की ही होकर रह गईं। गीत और गजल पीछे छूट गए, मां के घर की तरह।

मुझे लगता है कि शैल दीदी का बचपन का संसार बहुत बड़ा नहीं था, लेकिन उनके सपने बड़े थे। वे सपने कैसे थे? वह जुड़ती बहुत कम लोगों से थीं, लेकिन जिनसे जुड़ती थीं, बहुत आत्मीयता के साथ जुड़ती थीं। वह बचपन में भी कभी निर्द्वंद्व नहीं रहीं। उनके द्वंद्व के केंद्रे में क्या था? मुझे लगता है कि यह द्वंद्व ही अलग-अलग रूपों और परिस्थितियों में उन्हें लिखने के लिए भाव-भूमि प्रदान करता रहा। क्या वह बचपन में भी उतनी ही संतोषी, सबकी चिंता करने वाली, ममत्व से भरी थीं जितना बाद में नजर आयीं?...

मुझे लगता है कि शैल दीदी का बचपन एक सुंदर कहानी की कथावस्तु है और... यह कहानी कम ही लोग लिख सकते हैं।

'अपने लिए' कविता संग्रह के प्रकाशन के साथ ही शैल दी का एक बड़ सपना साकार हुआ था। इस संग्रह ने पहली बार उन्हें महत्वाकांक्षी बना दिया था। 'अपने लिए' की प्रति मुझे देते हुए उन्होंने कहा था 'यह मेरी मंजिल नहीं है। वैसे, मैंने चलना शुरू कर दिया है। लेकिन सिर्फ चलते रहने से मंजिल नहीं मिल जाती। कभी-कभी तो लगता है कि जिसे हम मंजिल मान लेते हैं वह वास्तव में मंजिल होती ही नहीं है।' शैल दी तर्कों में बहुत कम उलझती थीं। अपने मन की बात नितांत सहज और सरल ढंग से कह देती थीं। इसके लिए उन्हें किसी भूमिका की जरूरत नहीं पड़ती थी। उसका पूरा जीवन भी तो भूमिका विहीन था। जब 'चांदनी आग है' प्रकाशित हुआ, तब मुझे महसूस हुआ कि शैल दी की व्याख्या कितनी सही थी। 'अपने लिए' उनके रचनात्मक जीवन का पहला पड़ाव था और 'चांदनी आग है' दूसरा पड़ाव। और इन दोनों पड़ावों के बीच मंजिल जैसी कौई चीज कहीं नहीं थी। वास्तव में इन दोनों कविता संग्रहों से शैल दी की ठहरी हुई जिंदगी में एक हलचल आयी थी। उनमें जीने की सार्थकता का अहसास जगा था और अपनी पहचान एवं अस्तित्व की लड़ाई में लगातार पराजित होती एक महिला का पुनर्जन्म हुआ था।
(जारी)

Sunday, April 19, 2009

एक सुलगती नदी

मैं नहीं जानती,

बह गई एक नदी

सुलगती नदी
बहती गई
गर्म रेत अब भी
आंखों के सामने है
इनमें इंद्रधनुष का
कोई रंग नहीं

मेरे अंदर एक नदी
जमती गई
इंद्रधनुष
ताड़ के झाड़ में
उलझ कर रह गया
मेरा मैं उद्विग्न हो कर
दिनचर्या में खो गया

सचमुच
एक सुलगती नदी बह गई
जिंदगी के मुहानों को तोड़ती हुई


-अनुराग अन्वेषी,
11 फरवरी'95,
दिन के 2 बजे


कब से
मेरे आस-पास
एक सुलगती नदी
बहती है।
सबकी आंखों का इंद्रधनुष
उदास है
अर्थचक्र में पिसता है मधुमास।

मैं देखती हूं
सलाखों के पीछे
जिंदगी की आंखें
आदमियों के समंदर को
नहीं भिगोतीं।

उस दिन
लाल पाढ़ की बनारसी साड़ी ने
चूड़ियों का जखीरा
खरीदा था,
मगर सफेद सलवार-कुर्ते की जेब में
लिपस्टिक के रंग नहीं समा रहे थे।
मैं नहीं जानती,
कब से
मेरे आस-पास बहती है
एक सुलगती नदी।

(शैलप्रिया की यह कविता उनके काव्य संकलन चांदनी आग है से ली गयी है।)

Sunday, March 29, 2009

सार्थक एक लम्हा

आज
जीना बहुत कठिन है।
लड़ना भी मुश्किल अपने-आप से।
इच्छाएं छलनी हो जाती हैं
और तनाव के ताबूत में बंद।
वैसे,
इस पसरते शहर में
कैक्टस के ढेर सारे पौधे
उग आए हैं
जंगल-झाड़ की तरह।


इन वक्रताओं से घिरी मैं
जब देखती हूं तुम्हें,
उग जाता है
कैक्टस के बीच एक गुलाब
और
जिंदगी का वह लम्हा
सार्थक हो जाता है।
(शैलप्रिया की यह कविता उनके काव्य संकलन चांदनी आग है से ली गयी है।)