'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Sunday, December 28, 2008

अंधेरे में गुम रोशनी की लकीर (तीसरी किस्त)

शैलप्रिया की जीवन रेखा

प्रे
स में प्रबंधकीय चिंताओं के समांतर एक दूसरे तरह का दायित्व भी उठा लिया था उन्होंने। प्रेस के स्थायी कर्मचारी प्रायः पांच हुआ करते थे, मगर ओवरटाइम के लिए बुलाये गये कर्मचारियों की संख्या कभी बढ़कर दस-ग्यारह भी पहुंच जाती थी। वे अपने कर्मचारियों का ख्याल भी रखतीं, उनके घर-परिवार की समस्याओं में व्यक्तिगत रुचि भी लेतीं। इसलिए कर्मचारियों में, एक बुजुर्ग कंपोजीटर रमा शंकर सिंह उर्फ महाशय जी को छोड़कर, किसी ने उन्हें 'दीदी' के सिवा दूसरा कोई संबोधन नहीं दिया, चाहे वे सीताराम, बदरीकांत झा, अनिल चतुर्वेदी, राजनारायण सिंह, सुरेश राय जैसे पुराने आरंभिक दिनों के कर्मचारी हों या बदरी मल्लिक, उमेश प्रसाद, अशोक, अरुण, बिंदेश्वरी जैसे कभी-कभार संकटकाल के मददगार लोग या हेमंत बरियार, विजय प्रसाद, शत्रुघ्न, नंदलाल, नरेश जैसे बाद के मुलाजिम हों।

इस दौरान उन्होंने खोया भी कम नहीं। उनका इत्मीनान खत्म हुआ और शांति क्षतिग्रस्त हुई। प्रेस की स्थापना से लेकर बंदी के तेरह-चौदह वर्षों के दरम्यान कुल मिलाकर साधनों-संसाधनों में वृद्धि अवश्य होती गई, सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढ़ी, लेकिन उनके गहने भी बिक गये, साड़ियों की खरीदारी अंटकती रही, ऊनी कपड़ों की खरीदारी 'अगले जाड़े' तक मुल्तवी होती रही, नये साल पर पिकनिक-यात्राओं के कार्यक्रम हरबार स्थगित होते रहे। बच्चों के खिलौने नहीं खरीदे गये, त्योहारों के रंग फीके हुए। छुट्टी-अवकाश में मनचाहा समय बिताने के अवसर कम मिले।

ठेके में काम करने वाले जिल्दसाज इसहाक से भी यही सरोकार रहा। शैलप्रिया का यह अपनापा काम छोड़कर हटने वालों के साथ भी हमेशा बना रहा। उनकी उदार सहभागिता अपने निकट-दूर के पड़ोसियों के साथ भी ताउम्र निभती रही।
प्रेस संचालन के अनुभवों ने शैलप्रिया को परिपक्व बनाया। सबसे बड़ा फर्क तो यह पड़ा कि उनका अंतर्मुखी स्वभाव समाजोन्मुखी हुआ। व्यवसाय के तनावों, पूंजी, कागज, स्याही की कभी-कभी पड़ जाने वाली कमी, मशीनों की टूट-फूट और मरम्मत, काम की मंदी की अवधि, कर्मचारियों की समस्याएं, निर्धारित समय पर डेलिवरी का संकट, बिजली की आंख मिचौनी, भागमभाग, घर-प्रेस साथ होने के कारण मुलाकातियों का असमय आना-जाना, शारीरिक-मानसिक थकान और इन सबके एवज में अपने लिए अलग से कुछ बचा पाने का अर्थाभाव - इन सब परिस्थितियों में धीरे-धीरे उनके उत्साह में कमी आयी। प्रेस की समस्याएं पति-पत्नी के बीच जब-तब तनाव बुन देती थीं। यह भी उचाटपन का एक कारण रहा।

इस दौरान उन्होंने खोया भी कम नहीं। उनका इत्मीनान खत्म हुआ और शांति क्षतिग्रस्त हुई। प्रेस की स्थापना से लेकर बंदी के तेरह-चौदह वर्षों के दरम्यान कुल मिलाकर साधनों-संसाधनों में वृद्धि अवश्य होती गई, सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढ़ी, लेकिन उनके गहने भी बिक गये, साड़ियों की खरीदारी अंटकती रही, ऊनी कपड़ों की खरीदारी 'अगले जाड़े' तक मुल्तवी होती रही, नये साल पर पिकनिक-यात्राओं के कार्यक्रम हरबार स्थगित होते रहे। बच्चों के खिलौने नहीं खरीदे गये, त्योहारों के रंग फीके हुए। छुट्टी-अवकाश में मनचाहा समय बिताने के अवसर कम मिले। पांच स्थायी कर्मचारियों के छोटे-से वर्कशॉप में भी फैक्टरी एक्ट की जरूरी सहूलियतें - बोनस, छुट्टी, सवेतन छुट्टी, ओवरटाइम, वार्षिक वेतन वृद्धि, समयबद्ध भुगतान - जुटाना आसान काम नहीं था।

जबकि हर साल मंदी के महीने में प्रेस घाटे में चलता था - काम की कमी, पूंजी का अभाव, बिजली संकट, परिचितों-मित्रों की उधारी और जरूरतमंद लोगों की यथासंभव सहायता जैसे काम भी नहीं छूटे कभी। विद्याभूषण की नौकरी की तनख्वाह भी प्रेस में लग जाती।

प्रेस संचालन में कभी-कभार हो जानेवाली असावधानियों के लिए उन्होंने पति की आलोचनाएं भी झेलीं। व्यावसायिक तनावों को दांपत्य तनावों का कारम मानकर उन्होंने प्रेस-प्रबंध से हाथ खींच लेने का फैसला किया। तब तक इतनी देर हो चुकी थी कि आर्थिक स्वावलंबन के लिए नौकरी के द्वार बंद हो चुके थे। पति की भूमिका कभी दफ्तर के बॉस की तरह हो जाती, कभी गुरुकुल के शिक्षक की तरह। तब कभी छोटे-छोटे मुद्दों पर भी नसीहतों की बेमौसम बरसात हो जाती। किसी काम के गुण-दोष की खामियों-खूबियों का घिसापिटा रेकॉर्ड बजने लग जाता। वे नीलकंठ भाव से ये गरल पी जातीं।

नतीजा रहा कि शैलप्रिया के हाथ में कभी किसी महीने घरखर्च के लिए कोई एकमुश्त रकम शायद ही आ पायी हो। घर चलता रहा - दिक्कतों में चलता रहा। बेशक, इन सभी मुश्किलों का सामना उन्होंने अकेले नहीं किया, विद्याभूषण की समझदारी और साझेदारी भी मिली उन्हें। लेकिन इच्चाओं को तो घुटना ही था, मंसूबों-इरादों को तो हमेशा धक्के पड़ते ही रहे, सपनों-चाहतों को 'फिर कभी' के अंधेरे कोनों में सिमटना ही पड़ा। अपने लिए साधन, समय, सुविधा, विश्राम, इत्मीनान, सुकून नहीं निकाल पायीं शैलप्रिया, इसमें कोई त्युक्ति नहीं है।

प्रेस संचालन में कभी-कभार हो जानेवाली असावधानियों के लिए उन्होंने पति की आलोचनाएं भी झेलीं। व्यावसायिक तनावों को दांपत्य तनावों का कारम मानकर उन्होंने प्रेस-प्रबंध से हाथ खींच लेने का फैसला किया। तब तक इतनी देर हो चुकी थी कि आर्थिक स्वावलंबन के लिए नौकरी के द्वार बंद हो चुके थे। पति की भूमिका कभी दफ्तर के बॉस की तरह हो जाती, कभी गुरुकुल के शिक्षक की तरह। तब कभी छोटे-छोटे मुद्दों पर भी नसीहतों की बेमौसम बरसात हो जाती। किसी काम के गुण-दोष की खामियों-खूबियों का घिसापिटा रेकॉर्ड बजने लग जाता। वे नीलकंठ भाव से ये गरल पी जातीं। उन्हें पति की परेशानियों, चिंताओं, तनावों, कठिनाइयों का पूरा अहसास था। वे पति के उस मनोभाव से भी परिचित थीं जहां से यह लावा फूटता था। विद्याभूषण का पिताविहीन बचपन अरक्षा और अभाव में पिसते बीता था। पिता की मृत्यु 42 वर्ष की अवस्था में हुई थी और बड़े भाई का देहावसान सिर्फ 38 वर्ष की आयु में हो गया था। इस कारण उनमें यह आशंका हमेशा घर किये बैठी होती कि वे भी असामयिक मृत्यु के शिकार हो सकते हैं - और वैसा कुछ होने पर उनकी सरल-सीधी, अव्यावहारिक, भावनाशील शैलप्रिया को जीवन की विषण परिस्थितियों से लड़ने के लिए चौकस सावधान बनना चाहिए। विद्याभूषण की असंतुलित टिप्पणियों के पीछे छुपा कातर, निरीह, भावविह्वल चेहरा शैलप्रिया के लिए आत्मीय परिचित बन चुका था। शायद इसीलिए वह सब कुछ चुपचाप सुन लेतीं। अपने साथी की दुर्बलताओं, सीमाओं और भावनाओं को वे अंतरंगता से जानती-समझती थीं। संभवतः इसीलिए कटु क्षणों के अवसाद को धीरज और सहनशीलता के साथ झटक देतीं। यह जीवन की वडंबना ही है कि जिस कल्पित दुर्दिन के लिए विद्याभूषण अपनी शैलप्रिया को 'तैयार' करना चाहते थे, वह सारी 'तैयारी' धरी-रखी रह गयी, शैलप्रिया के किसी काम नहीं आयी।
(जारी)

Saturday, December 27, 2008

अंधेरे में गुम रोशनी की लकीर (दूसरी किस्त)

शैलप्रिया की जीवन रेखा

विद्याभूषण

स्कू
ली छात्रा के रूप में वह तेज थीं। एक साल उन्हें छात्रवृत्ति भी मिली थी। लेकिन बाद के वर्षों में व्यक्तिगत जीवन के कई अलंघ्य तनावों और परिस्थितियों के कारण अध्ययन के प्रति वे एकाग्र उन्मुख नहीं रह सकीं। नतीजा कि एमए तक की उनकी शिक्षा जैसे-तैसे पूरी हो गयी। वस्तुतः सन् 62 से सन् 72 के दौरान उनकी जिंदगी कई अनपेक्षित दबावों, दुश्चिंताओं, संघर्षों और

अक्सर, सन् 90-94 के दरम्यान अधिक, गोष्ठियों-आयोजनों की भीड़ छंटने पर कोई नया परिचित उनसे पूछ बैठता - 'आप कहां हैं? किस कॉलेज में?' तब मंद स्मिति के साथ उनका सधा हुआ बना-बनाया उत्तर होता - 'मैं कहीं नहीं हूं, सिर्फ लिखती-पढ़ती हूं।' उस मंद स्मिति के पीछे छुपी उनकी पीड़ा का कई बार मौन साक्षी और दर्शक रहा हूं - आत्मनिर्भर होने के उनके सपने में मददगार नहीं हो पाने के अपराध-भाव से ग्रस्त।

समस्याओं में उलझते-सुलझते बीती। अब कहा जा सकता है कि कशमकश का इतना लंबा दौर गुजार कर भी वे मनसा सहज-स्वस्थ बनी रहीं, यही उनकी जिजीविषा की बड़ी उपलब्धि थी। अपने-परायों से लगातार खरोंचें पाने के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और वे बाधाओं को ठेल-ठाल कर अपने इच्छित आकार में परिस्थितियों को ढालने लगीं। इस जद्दोजहद में वे आत्मनिर्भर होने का अवसर नहीं निकाल सकीं, इसका अफसोस उन्हें हमेशा बना रहा।

अक्सर, सन् 90-94 के दरम्यान अधिक, गोष्ठियों-आयोजनों की भीड़ छंटने पर कोई नया परिचित उनसे पूछ बैठता - 'आप कहां हैं? किस कॉलेज में?' तब मंद स्मिति के साथ उनका सधा हुआ बना-बनाया उत्तर होता - 'मैं कहीं नहीं हूं, सिर्फ लिखती-पढ़ती हूं।' उस मंद स्मिति के पीछे छुपी उनकी पीड़ा का कई बार मौन साक्षी और दर्शक रहा हूं - आत्मनिर्भर होने के उनके सपने में मददगार नहीं हो पाने के अपराध-भाव से ग्रस्त। यूं कायदे से किसी नौकरी के लिए उनकी ओर से या विद्याभूषण की ओर से कोशिश भी नहीं हुई। तो भी आर्थिक स्वावलंबन की आकांक्षा उनमें जीवनपर्यंत बनी रही। कभी-कभी यह कसक घनीभूत पीड़ा का रूप ले लेती थी जिससे उबरने में किसी बाहरी तसल्ली से कोई फर्क नहीं पड़ता था उनको। शुरू में जब किसी छोटी-मोटी नौकरी में लग जाना चाहती थीं तो विद्याभूषण को यह मंजूर नहीं हुआ और विद्याभूषण जिस ऊंचाई पर उन्हें देखना चाहते रहे, वह कभी नजदीक नहीं हुई।
अपनी ओर से छिटपुट कोशिश करके वे रह गयीं। एक बार आकाशवाणी की अनाउंसर के लिए उन्होंने साक्षात्कार दिया था। अध्यापकी की चाह भी पाली थी उन्होंने। अपने पड़ोस में आदर्श बाल निकेतन की स्थापना में उन्होंने सोत्साह मदद की थी और महीनों तक सहयोगी बाव से निःशुल्क पढ़ाती रहीं। एक बार संभवतः सन् 75 के आसपास, पियरलेस जेनरल फिनांस एंड इन्वेस्टमेंट कंपनी की एजेंटी भी की। उस काम में मन नहीं रमा तो छोड़ दिया।
सन् 75 में शिक्षित बोरोजगारों के लिए वित्तीय सहायता योजना के अंतर्गत उन्होंने उद्योग विभाग से कार्यशील पूंजी ली और पंजाब नेशनल बैंक से ऋण लिया। इस प्रकार, अगस्त 75 में प्रतिमान प्रेस की शुरुआत हुई। बेशक यह काम विद्याभूषण की प्रेरण, सहमति और सहयोग से हुआ था। पति-पत्नी की सहकारी में प्रेस तेजी से आगे बढ़ा। प्रारंभिक सात वर्षों तक शैलप्रिया प्रतिमान प्रेस के संचालन में मेहनत के साथ जुटी रहीं - प्रूफ रीडिंग, कंपोजिंग, नंबरिंग, जिल्दसाजी से लेकर प्रबंधन और संचालन के काम में जब जहां जरूरत पड़ी उसे भिड़कर पूरा किया। बाद में कार्याधिक्य के तनाव और व्यावसायिक चतुराई में अंतर्लिप्त होने से इनकार की मानसिकता के कारण प्रेस में उनकी दिलचस्पी कम होने लगी। तब तक प्रेस की आमदनी प्रेस में ही निवेशित होती रही थी। अपने लिए

अगस्त 75 से नवंबर 82 तक यानी लगभग सात साल प्रेस संचालन का 65% कार्यभार शैलप्रिया ने ही वहन किया था। पति-पत्नी के बीच प्रेस के कार्यकाल का समय विभाजित था - सुबह-शाम विद्याभूषण और सारा दिन शैलप्रिया - यही व्यवस्था वर्षों तक चली प्रतिमान प्रेस की।

या घर के लिए कुछ उल्लेख्य निकाल पाना संभव नहीं होता ता। इससे भी उनका मन खिन्न हुआ। तब कार्यालय संभालने के लिए एक प्रबंधक की नियुक्ति हुई। बाद में दो प्रबंधक भी हुए।
इस प्रकार, अगस्त 75 से नवंबर 82 तक यानी लगभग सात साल प्रेस संचालन का 65% कार्यभार शैलप्रिया ने ही वहन किया था। पति-पत्नी के बीच प्रेस के कार्यकाल का समय विभाजित था - सुबह-शाम विद्याभूषण और सारा दिन शैलप्रिया - यही व्यवस्था वर्षों तक चली प्रतिमान प्रेस की। अधिकतर काम फुटकर होते। कुछेक स्कूल-कॉलेजों और संस्थानों से भी काम मिल जाता था। साल के कम से कम तीन महीने ऐसे भी बीतते जब प्रेस में दो-दो शिफ्टों में काम चलता। प्रश्न पत्र, स्मारिका और मतदता सूचियों की छपाई के दिनों में बहुत बार रात-रात भर काम होता रहता। शैलप्रिया के जिम्मे घर और प्रेस के खुदरा कामों का अंबार लगा रहता। वे धीरज के साथ यह सब निबटा लेतीं और बहुत बार हताश थके विद्याभूषण को सहारा भी देतीं।
(जारी)

Friday, December 26, 2008

अंधेरे में गुम रोशनी की लकीर

शैलप्रिया की जीवन रेखा

लेखक परिचय


विद्याभूषण


जन्म : 5 सितंबर 1940


शिक्षा : पीएच. डी. तक


जीविका : अध्यापकी. किरानीगीरी, व्यवसाय, खेती-बारी और पत्रकारिता के सामयिक पड़ावों के बाद समाज, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कई दिशाखोजी गतिविधियों से गुजरते हुए संप्रति सृजन और विचार की शब्द-यात्रा।


प्रकाशित कविता संग्रह : सिर्फ सोलह सफे, अतिपूर्वा, सीढ़ियों पर धूप, मन एक जंगल है, ईंधन चुनते हुए, आग के आस-पास, ईंधन और आग के बीच, बीस सुरों की सदी।


प्रकाशित कहानी संग्रह : कोरस, कोरस वाली गली, नायाब नर्सरी


प्रकाशित नाटक : आईने में लोग


प्रकाशित आलोचना पुस्तक : वनस्थली के कथा पुरुष, बीसवीं सदी का उत्तरार्ध


प्रकाशित समाजदर्शन : झारखंड : समाज, संस्कृति और विकास


संपादित पुस्तकें : कविताएं सातवें दशक की, प्रपंच, घर की तलाश में यात्रा, महासर्ग, धूमकेतुओं की जन्मपत्री, तीसरी आंख, हारे को हरनाम, काश! यह कहानी होती


संपर्क : प्रतिमान प्रकाशन, किशोर गंज, हरमू पथ, रांची- 834001

कु
छ लोग कविता लिखते हैं, कुछ लोग कविता जीते हैं और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो कविता जीते भी हैं और लिखते भी हैं। शैलप्रिया ऐसी ही रचनाकार थीं। अपनी हथेलियों की अबूझ रेखाओं को टटोलती हुई उनकी नजर अक्सर जीवन रेखा पर टिक जाती थी जो कलाई पर खत्म होने से पहले क्षतिग्रस्त थी। कई बार रेखा-विशारदों ने उनका ध्यान इस ओर खींचा था। परिणामस्वरूप अक्सर वे अपने बिंदास लहजे में कह देती थीं - 'मुझे अधिक जीना नहीं है।' दुर्योगवश यह सच हुआ।


कई बातें जो अब कही जा सकती हैं, पहले - कुछ पहले सामने आ पातीं तो संभव था, शैलप्रिया के जीवन में कुछ सुखद पल और जुड़े होते। लेकिन जीवन में सब कुछ सबको नहीं मिल पाता और कभी मिलता भी है तो सही समय पर नहीं मिलता। और जो पाने को प्रयत्नशील भी नहीं हो, उसकी नियति तो अजनबीपन से टकराने को अभिशप्त होती ही है।


शैलप्रिया का जन्म रांची के संत बर्नवास अस्पताल में 11 दिसंबर 1946 की रात में हुआ था। उस रात अस्पताल में सात लड़कियों का जन्म हुआ था। उनकी दादी ने पहचान के लिए कलाई में काला धागा बांध दिया था। अपने पांच भाइयों और तीन बहनों में वह सबसे बड़ी थीं। उनका बचपन बड़े लाड़-प्यार में गुजरा था। तभी अपने बचपन की याद खूब आती-सताती थी। पिता श्री मुकुटधारी लाल वन विभाग में मुलाजिम थे और मुख्य वन संरक्षक, बिहार के निजी सहायक पद से सेवा निवृत हुए। दादा मुंशी शीतल प्रसाद पालकोट पालकोट राज के अधीनस्थ कर्मचारी थे और मैनेजर साहब कहलाते थे। वह एक संयुक्त परिवार था, जिसमें दादा के भाइयों के बाल-बच्चों तक विशेष अवसरों पर उपस्थित हुआ करते थे। इस प्रकार, घर-परिवार से भरापुरा रूढ़िवादी माहौल मौजूद था। सबके लाड़-प्यार के बावजूद वह 'बिगड़ी' नहीं तो शायद इसलिए कि वह बेहद सरल, विनम्र और भोली बालिका थी। पुराने लोग यही कहते हैं।


वह बतलाती थीं कि बचपन में सहेलियों को खिलाने के लिए मां से बिना पूछे लड्डू ले जाती थी। लेकिन वह नहीं जानती थी कि छिपाया कैसे जाता है। बस, दोनों हाथों की कैंची पीठ के पीछे ले जाकर घर की ड्योढ़ी से बाहर भागती ताकि मां देख न ले - जबकि नन्हे हाथों में लड्डू दिखता रहता था। वह किसी चीज के लिए जिद नहीं करती थी। अंचार, साग या मट्ठा के साथ भात उस बच्ची का प्रिय भोजन था। सजने-धजने या पहनने-ओढ़ने का कुछ खास शौक नहीं था उसे। जो भी मिला, जितना मिला, वही पर्याप्त था। ऐसी ही थीं शैलप्रिया और उनका बचपन। सीधी-सादी, शांत, संतोषी, गुड़ियों और कल्पनाओं की दुनिया में सिमटी हुई।


शैलप्रिया की स्कूली शिक्षा-दीक्षा छठी कक्षा तक अपर बाजार, रांची स्थित शिवनारायण कन्या पाठशाला में हुई थी। सातवीं से ग्यारहवीं कक्षा तक की शिक्षा गवर्नमेंट गर्ल्स हायर सेकेंडरी स्कूल, बरियातू, रांची में संपन्न हुई जहां सन् 1965 में उन्होंने उच्चतर माध्यमिक परीक्षा में उत्तीर्णता प्राप्त की। उसी वर्ष विवाहोपरांत कॉलेज की पढ़ाई शुरू हुई। वे सन् 65 से सन् 71 तक रांची विमेंस कॉलेज की छात्रा रहीं। जून 67, मई 70 और फरवरी 72 में उनके तीन सीजेरियन ऑपरेशन हुए। इस कारण एमए तक की पढ़ाई रुकती-अंटकती चली। सन् 71 में रांची विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने स्नातकोत्तर हिंदी विभाग में एमए में दाखिला लिया। लेक्चर्स पूरे करने के बावजूद शारीरिक-पारिवारिक समस्याओं के कारण उन्होंने यथासमय परीक्षा नहीं दी। बहुत वर्ष बाद सन् 91 में उन्होंने एमए की उपाधि रांची विश्वविद्यालय से ली। दो वर्ष बाद पीएच. डी. के लिए शोध हेतु अपना मन बनाया। फिर विषय और निदेशक का चुनाव भी किया। सन् 94 के प्रारंभ में डॉ. सिद्धनाथ कुमार 'हिंदी कविता मे जनजातीय जीवन' विषय पर शोध निदेशक होने के लिए सहमत हो गये थे, मगर सिनौप्सिस बन कर पड़ी रह गयी। पहली जनवरी 94 से ही शैलप्रिया अस्वस्थ रहने लगी थीं। उनकी बीमारी पेटदर्द, अल्सर, जॉन्डिस और आखिरश जिगर के कैंसर के रूप में जानलेवा साबित हुई। इस प्रकार, उनका शोध कार्य का मंसूबा अनकिया रह गया।
(जारी)

Tuesday, December 23, 2008

मनःस्थली

दोस्त,

कैक्टस

तुम्हारे गांव में
उग आया था
एक कैक्टस
अपने अस्तित्व की झूठी लड़ाई में
घेरता गया तुम्हें
और तुमने भी तो फैलने दिया

इस स्नेह के बंधन में
तुम्हें कई बार होना पड़ा घायल
धूप में तपती
तुम्हारी मनःस्थली
निर्जन होती गई
और तुम बनती गई
कैक्टस

-अनुराग अन्वेषी, 9 फरवरी'95,
रात 12.05 बजे


लगातार नेवले और सर्प की तरह
फुफकारते हुए
झेलती हूं 'कुछ'

समझौतों में खोता स्वत्व,
देखती हूं अनबुझी आंखों से
टूटते
सारे रिश्तों के बीच
अतृप्त मन।

बाट जोहती सूखी तलैया पर
तैरती, खेलती लड़की।
धूप में तपती नाव
मेरी मनःस्थली, मेरा गांव

- शैलप्रिया