'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Monday, February 23, 2009

कुछ धुंधली यादें

मुकुल दी (अर्चना सिन्हा) मेरे चाचा की सबसे छोटी बेटी हैं। उम्र में मुझसे 10 साल बड़ी। पर मेरे लिए वह दोस्त भी हैं। यह भी सच है कि मेरा परिचय इनसे मेरे मैट्रिक पास कर लेने के बाद हुआ। कुछ वजहों से (जिन्हें न मैं जानता हूं और न जानना चाहता हूं) हम सब अलग-अलग रहे। अलग-अलग शहर में बस जाने की वजह से दूरियां बनी रहीं। इस दूरी को पाटने की नींव डाली पराग भइया ने। हम दोनों पटना गये थे संस्था सार्थक के साथ। कालिदास रंगालय में हमारे नाटक का मंचन होना था। भइया मुझे लेकर गया था बड़ी मां के घर। इसके बाद कई बार मेरा आना-जाना हुआ। हमारे बीच की दूरियां पटती गईं। अब आज किसी भी अवसर को हम एक-दूसरे से बेहिचक शेयर करते हैं। -अनुराग अन्वेषी


मे
रे मन में चाची की स्मृति तब की है जब मेरे पिता की मृत्यु के पश्चात् चाचा हमलोगों को रांची, अपने यहाँ ले आए थे। उसके पहले की भी कुछ स्मृतियाँ है जब चाची ब्याह होकर आई थी या की जब चाची मेरी बड़ी दीदी के ब्याह में चाचा और डेढ़ वर्ष के पराग के साथ आई थीं। लेकिन तब की स्मृतियाँ इतनी धूमिल हैं कि उन्हें पकड़ सकना कठिन है।

तब मेरी तेरह वर्ष की आयु थी जब हम लोग रांची आए थे। हमें वहां लाते समय पिता जी की मृत्यु की सूचना नही दी गई थी और वो पहली स्मृति चाची की मुझे है वो रोती हुई दीदी को धीरज बांधती हुई है। वो मगही (हमारी घरेलु भाषा) में बोलती हुई दीदी को समझा रही थीं की अब वही (दीदी) सबसे बड़ी है उसको ही दूसरों को धीरज बंधाना है। मुझे नही पता चाचा ने हम लोगो को वहां रखने का फ़ैसला लेते समय चाची से पूछा था या नहीं लेकिन चाची ने कभी हम लोगों से इस विषय में कभी कुछ नहीं कहा।

एक मध्यवर्गीय परिवार में चार-चार व्यक्तियों का बोझ नि:संदेह चिंतित तो करता ही है। लगभग साल के वहां के प्रवास में चाची से हमारे रिश्ते औपचारिकता की सीमा को लाँघ नहीं सके। परिस्थितियां भिन्न होतीं तो शायद ये होता भी फिर भी उस एक साल की अवधि में दो तीन घटनाएँ हैं जो मेरी स्मृति में सुरक्षित हैं। चाची की एक साड़ी थी जिसपर सूरजमुखी के फूलों का प्रिंट था। मुझे उनकी वह साड़ी बहुत पसंद थी। वह साड़ी मैंने तीन-चार बार पहनी थी उन्ही के ब्लाउज में टाँके मार के और चाची ने कभी उसके लिए कभी कुछ नहीं कहा। बल्कि मेरे पूछने पर वे उसे सहजता से मेरे लिए बाहर ही छोड़ देतीं। शायद यह सहजता उनके व्यक्तिव्य का एक अहम् हिस्सा थी।

ऐसी ही एक दो और घटनाएँ हैं जब एक दिन अचानक उधर से गुजरते हुए चाचा के साथ मेरे स्कूल चली आयी थीं ( चाची भी उसी स्कूल में पढ़ी थीं ) और उन्होंने मुझसे पूछा था कि मैं बस से ही लौटूंगी या उन दोनों के साथ चलना चाहूंगी। या फिर प्रीति मौसी (उनकी छोटी बहन) की शादी में मेरे माँ की अपेक्षाकृत सादी साड़ी को उतरवा कर अपनी साड़ी मुझे पहनी के लिए दी थी। लगभग एक साल के बाद दीदी की नौकरी हो गई और हमलोग पटना आ गए और हमलोगों के संबंधों में एक लंबा अन्तराल आ गया।

लगभग 20-22 वर्षों के बाद जब मैं चाची से मिली तो मैं दो बच्चों की माँ बन चुकी थी। वो किस कारण से पटना आयी थीं ये मुझे स्मरण नहीं लेकिन वो मुझसे मिलने मेरे घर आयी थीं और जिस तरह से उन्होंने मुझसे बातें कीं मुझे यह अहसास हुआ कि मैं अपनी चाची से मिल रही हूँ जो अपनी ब्याही हुई जैधि (जेठ की बेटी) से सुख-दुख बतिया रही हैं। तब शायद उन्हें देखने समझने की मेरी दृष्टि भी थोड़ी व्यापक हो चुकी थी और जैसा कि मैंने कहा कि परिस्थितियां भिन्न होतीं तो उनकी यह सहजता हमारे बीच सहजता में बदल सकती थी। जैसा कि फिर मैंने पराग और अनुराग के संस्मरणों से उन्हें जाना कि ख़ुद के प्रति नि:संग सहजता ही उनके व्यक्तिव्य का प्रथम परिचय थी।

Saturday, February 21, 2009

स्त्री के गीत

सुना है
कोई स्त्री गाती थी गीत
सन्नाटी रात में।
उजाले के गीत का
कोई श्रोता नहीं था,
नहीं कोई सहृदय
व्यथा की धुन को सुनने वाला।


समुद्र के गीत लहरों की हलचलें सुनाती हैं
पहाड़ा का गीत
झरने सुनते हैं,
सड़कों पर बड़ी भीड़ है,
मगर स्त्री के गीत का मर्म
नहीं समझता कोई।


बर्फ के टुकड़ों की तरह
पिघलता है गीत,
कांच के बर्तन में
अस्तित्वहीन होती स्त्री की तरह।

(शैलप्रिया की कविता 'स्त्री के गीत' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)

Wednesday, February 18, 2009

प्रतीक्षा

चलो, व्यूह रचें

निःशब्द होकर
बिखर जाना,
किसी ताजा खबर की आस में
सचमुच बहुत बड़ी भ्रांति है

सच है
कि सपने प्यारे होते हैं
लेकिन वासंती बयार के साथ
उन्हें उड़ा देना
ठीक वैसा ही है
कि हम विरोध करें
और हमारी तनी मुट्ठियां हवा में आघात करें
इसलिए चलो
बाहर की उमस को
बढ़ने से रोकें
और फिर से युद्ध के लिए एक व्यूह रचें।
-अनुराग अन्वेषी, 26 दिसंबर'95,
रात 9.30 बजे

मैं
कबतक भ्रांतियों में जीती हुई
काटती रहूं घटना चक्र?
व्यूह-रचना में
शामिल
मकड़े का जाल बुनते हुए
देखती हूं
झाड़-फानूस-से सपने,
बेहिसाब
चक्कर काटता मन
किसी कील की नोंक पर
लगातार घूमता है।

बाहर उमस है,
भीतर आओ।
एक बाड़वाग्नि लगातार
जलती है अंदर।

ठहरो,
झुलस जाओगे
कमजोर पन्नों की तरह।
अनुभवों को चीरते हुए
मैं निःशब्द बिखर जाती हूं
एक ताजा खबर की आस में।
(शैलप्रिया की कविता 'प्रतीक्षा' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)

Saturday, February 14, 2009

गूलर के फूल

एक समय था

जब मेरे भीतर उग आये थे
गूलर के फूल।

एक समय था
जब सतरंगे ताल की
झिलमिलाती रोशनी
भर देती थी
मुझमें रंग।

अब कहां है
वह मौसम?
और वह फूल और गंध?

जिंदगी की पठारी जमीन
सख्त होती जा रही है।
इसमें फूल नहीं उगते,
कैक्टस उगते हैं अनचाहे।

सहज होना बहुत मुश्किल है आज
उतना ही, जितना
खोज लेना
गूलर के फूल।

Wednesday, February 11, 2009

आमंत्रण

आओ

हम फिर शुरू करें
आजादी का गीत,
कि खुले कंठ से
स्वरों को सांचा दें
कि हमारी आकांक्षाएं
पेड़ के तनों पर टंगे घोंसलों में
स्वेच्छया कैद
पंछी बन गयी है
और आकाश के उन्मुक्त फैलाव से
उसका कोई दैहिक संबंध
नहीं रह गया है।

आओ
हम फिर शुरू करें
आजादी का गीत
कि हमारी चोंच पर पहरा है
बहेलिये के जाल का।

आओ
बंधक पंखों को झटक कर नाचें
दुख-सुख समवेत बांटें
अपने कोटरों से बाहर आएं
भय के दबाव से मुक्त होकर गाएं,

आओ
हम फिर शुरू करें
आजादी का गीत।
(शैलप्रिया की कविता 'आमंत्रण' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)

Tuesday, February 10, 2009

मां से मेरी आखिरी मुलाकात

अनुराग अन्वेषी


15

की सुबह भइया, पापा और मैं मां को लेकर डॉ. घोषाल के पास गये। डॉ. घोषाल ने मां को देखा और कहा कि एक महीने की दवा के बाद ठीक हो जायेगी। जिस इत्मीनान के साथ डॉ. घोषाल ने यह बात कही थी, उस पर विश्वास कर पाना सहज नहीं था हमलोगों के लिए। 16 की सुबह एक बार फिर भइया और मैंने डॉ. घोषाल से मुलाकात की और इस बार की मुलाकात ने हमारे भीतर बहु बड़ी आशा जगा दी। घोषाल ने बगैर किसी रिपोर्ट को देखे हमलोगों से कहा कि तुम्हारी मां को जिगर का कैंसर है, लेकिन ठीक हो जायेगा। इस बीच कई अन्य रोगियों ने भी डॉक्टर के संदर्भ में अद्भुत बातें बताईं।

15, 16, 17 नवंबर - इन तीन दिनों में ही दवाओं ने मां के स्वास्थ्य पर गहरा असर किया। लगा मां स्वस्थ हो रही है। ऑपरेशन के संदर्भ हमलोगों ने निर्णय किया कि जब तक घोषाल की आशा बची है तक तक ऑपरेशन की तारीख को आगे खिसकाया जायेगा। 18 नवंबर की सुबह 4 बजे मां से मेरी आखिरी मुलाकात रही। उस दिन मैं रांची लौट रहा था क्योंकि दादी की तबीयत रांची में खराब थी। उस सुबह मां ने कहा 'सबको कहना घबराने की जरूरत नहीं है, हम जल्द ही ठीक होकर रांची लौटेंगे।' सचमुच, मां की इच्छाशक्ति बहुत मजबूत थी, लेकिन वह उसका शरीर कमजोरी से नहीं लड़ सका।

रांची जब मैं लौटा तो मां के कैंसर के संबंध में मैंने किसी से कुछ नहीं कहा क्योंकि आशंका थी कि इस खबर के बाद लोग तुरंत दिल्ली पहुंचेंगे और मां की इच्छाशक्ति कमजोर पड़ेगी। उसे यह पक्का यकीन हो जाता कि उसे कोई असाध्य बीमारी है। दूसरी तरफ मैं इस आशा से भी लैस था कि घोषाल की दवा से मां ठीक होकर जल्द ही रांची आयेगी।

रांची में इस बार मुझे ऊब हो रही थी। फिर भी वक्त की जरूरत समझ मैं रांची में ही रह रहा ता। इस बीच अरुण मामा मां को देखने दिल्ली गये। उनका लौटना 1 दिसंबर की दोपहर को हुआ। उस दिन मामा के हाथों पापा का पत्र मिला। यह पत्र 30 नवंबर 94 की सुबह 5:25 पर लिखा गया था। पत्र की कुछ पंक्तियों को पढकर मेरा मन बहुत अशांत हो गया। पापा ने पत्र में एक जगह लिखा था 'इतने कम समय में क्या लिखूं और क्या न लिखूं, यह समझ में नहीं आ रहा। तुम धीरज रखना और घर की व्यवस्था किये रहना तुम्हारा रांची में रहना अभी जरूरी है।'

एम्स के डॉक्टर ने 5 दिसंबर की भर्ती करने के लिए कहा था। इस संदर्भ में पापा ने उसी पत्र में लिखा था 'ऑपरेशन की डेट कम से कम पंद्रह दिनों के लिए बढ़ाने का विचार पक्का है। अभी एम्स में 5 दिसंबर को भर्ती करने को लिखा-कहा है। लेकिन मध्य दिसंबर तक कम-से-कम डॉ. घोषाल की दवाओं का असर देखना है। उम्मीद अच्छी है, फिर भी कुछ निश्चित सोच पाना मुश्किल है। वैसे, तुम्हारी मां की कमजोरी की मौजूदा स्थिति में कोई भी ऑपरेशन आसान नहीं लगता। कैसे झेल सकेगी वह, यह सब?'
मैं पत्र की बातों को ही सोच रहा था। रात के 10:30 बज रहे थे। तभी फोन की घंटी बजी। भइया की आवाज थी कि अनुराग, मां की तबीयत बहुत खराब है, हमलोग मां को लेकर आ रेह हैं। मेरे सामने मां का कमजोर शरीर और चेहरा घूम गया। मंझली मामी मेरी बगल में खड़ी थीं। मैंने डरते-डरते पूछा - ट्रेन से या प्लेन से? भइया ने जवाब दिया - प्लेन से। तभी घर का कॉलबेल बजा। इसके बाद मुझे कुछ भी याद नहीं कि भइया से मेरी क्या बातचीत हुई। मामी ने बताया कि अनूप मामा ड्यूटी से आ चुके हैं। मैं कांप रहा था। मामी ने पूछा 'कांप क्यों रहे हैं आप?' मैंने कहा 'दिसंबरी जाड़े की रात है।' बड़ी मुश्कल से अपने को संतुलित कर सका। मेरे जेहन में तो सिर्फ मां थी। मामी-मामा को खाना खिला कर मैंने उन्हें सोने के लिए भेज दिया और खुद कमरे में आकर लेट गया। उस बंद कमरे में मैंने पंखे को पांच पर कर दिया ताकि मेरी रुलाई घर के अन्य सदस्यों तक न पहुंचे। बार-बार मुझे लगता था कि नहीं, ऐसा कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ होगा; मां मुझे छोड़कर ऐसे कैसे चली जायेगी? कान में भइया के शब्द गूंज रहे थे - प्लेन से। ख्याल आता कि मां प्लेन से उतर रही है, बड़ी कमजोर हो चुकी है, पापा मां को सहारा दिये हुए हैं। मुझे देखकर मां की आंखें भर आई हैं। मैं दौड़कर मां से लिपट जाता हूं, मां कहती है, बस तुम्हारा ही इंतजार था और मां मेरी गोद में दम तोड़ देती है। पता नहीं और कैसे-कैसे चित्र आंखों में घूमते रहे। मैं अपने कमरे में रोता रहा।

उस रात के बाद मेरी आंखों से आंसू तो नहीं बहे, लेकिन अब भी इंतजार करता हूं अपनी मां का कि शायद मेरे सपने में आयेगी, मुझसे बातें करेगी मेरी प्यारी मां।

मां का स्वार्थ

अनुराग अन्वेषी

13

नवंबर, फिर वैसा ही यातना भरा दिन था। मां ऑपरेशन थियेटर में जा चुकी थी। हम सभी ऑपरेशन थियेटर के सामने के लॉन में हताश बैठे थे। अचानक पापा ने कहा कि देखो ऑपरेशन थियेटर के बरामदे में जो महिला बैठी है उसके केश शैल से कितने मिलते हैं न? हमसब ने नजदीक जाकर देखा - अरे यह तो मां है जो ऑपरेशन थियेटर से बाहर आ चुकी थी। दरअसल, जिस विधि से ऑपरेशन होना था, उससे यह संभव नहीं हो सका। डॉक्टरों ने कहा कि अब फिर से वे आपस में विचार-विमर्श करके किसी दूसरे तरीके से ऑपरेशन करेंगे। तारीख भी बाद में तय की जायेगी।

मैं जादू दिखाने लगा। मां बड़े चाव से जादू देख रही थी। कभी-कभी बीच में मुस्कुरा देती। अचानक मां ने लेटते हुए कहा - 'कुछ ऐसा जादू करो कि हम सब रांची पहुंच जायें...।' यह कहकर मां ने दूसरी तरफ मुंह फेर लिया। इस बात को मैंने अनसुना करने की कोशिश की। लेकिन मां तो सारा कुछ कह चुकी थी।


हमलोग फिर घर वापस लौटे। भइया को कुछ लोगों ने बताया कि दिल्ली में डॉ. घोषाल होम्योपैथ के अच्छे डॉक्टर हैं और कई असाध्य रोगों को ठीक करते हैं। भइया ने 14 नवंबर को उनसे मुलाकात की। इसी दिन, जब मां सुबह-सुबह छत पर मुंह धो रही थी, मैंने उससे कहा, मां तुम कुछ लिखना चाहती हो तो बोलो, हम बैठकर लिखा करेंगे। उस वक्त मां ने सिर्फ ना में सिर हिलाया। फिर कमरे में आकर मुझसे कहा - 'हम बहुत स्वार्थी हो गये हैं, अब कविता-कहानी कुछ नहीं सूझती, सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं, अपनी बीमारी के बारे में सोचते हैं...। कुछ भी अच्छा नहीं लगता।' मुझे लगा, मां यह सब कहते-कहते बहुत उदास हो गयी है। बात बदलने के ख्याल से मैंने ताश निकाल कर मां के साथ खेलना चाहा। उसने इससे भी इससे भी इनकार कर दिया। फिर मैं जादू दिखाने लगा। मां बड़े चाव से जादू देख रही थी। कभी-कभी बीच में मुस्कुरा देती। अचानक मां ने लेटते हुए कहा - 'कुछ ऐसा जादू करो कि हम सब रांची पहुंच जायें...।' यह कहकर मां ने दूसरी तरफ मुंह फेर लिया। इस बात को मैंने अनसुना करने की कोशिश की। लेकिन मां तो सारा कुछ कह चुकी थी। उसे अपना शहर बहुत याद आता था। अपने शहर के लोगों से, अपने शुभचिंतकों से, अपने प्रशंसकों से, अपने परिचितों और अपने रिश्तेदारों से दूर रहना उसे खल रहा था। लेकिन मां भी समझती थी अपनी और हमारी मजबूरी।

हम सभी चाहते थे कि मां को जल्द से जल्द रांची ले चलें। लेकिन उसकी सेहत के लिए बची किसी भी आशा को आजमाने से चूकना नहीं चाहते थे। मनुष्य के भीतर का यह दायित्व बोध ही उसकी कई कोमल भावनाओं को कुचल जाता है, इसका अहसास भी मुझे तब ही हुआ। ताश के पत्ते मेरे हाथ में पड़े रहे और न जाने कब तक मैं चुपचाप मां के पास बैठा रहा। मां को नींद आ चुकी थी।

(जारी)

Sunday, February 01, 2009

दिस लेडि इज डेंजरस

अनुराग अन्वेषी


हॉ
स्पिटल में दो रात इधर लगातार मैं जागता रहा था, क्योंकि कभी भी मां को मेरी कोई जरूरत महसूस हो सकती थी। इसके अतिरिक्त इस महानगर में अकेलेपन का तनाव, मां की लगातार बढ़ती कमजोरी, कुछ लोगों के चुभते व्यवहार, इन सबसे मैं लगातार तनाव में रह रहा ता। पापा को देखते सब के सब तनाव हल्के हो गये। उस रोज घर लौटकर मुझे बड़ी इत्मीनान की नींद आयी। और जब नींद टूटी तो देखता हूं कि मां-पापा, भइया सभी घर आ चुके हैं। मां को एम्स से छुट्टी मिल चुकी थी। मां, पापा से कह रही थी 'हम तो ठीक होने की आशा छोड़ चुके थे। लेकिन अब उम्मीद फिर से बनी है।'

2 नवंबर को मां के बायोप्सी की रिपोर्ट मिलनी थी और इसी दिन राजेश प्रियदर्शी को रांची जाना था। मुझे लगा रांची में रेमी-दादी अकेली हैं, 3 नवंबर को दीपावली है, रेमी खुद को बहुत अकेला महसूस करेगी। पापा, भइया और मां सबकी सलाह से मैं भी 2 नवंबर को रांची के लिए चला। साथ में मामी भी रांची लौंटी।

दिल्ली से 4 नवंबर को पापा का फोन आया कि 11 को मां का ऑपरेशन है। और यह रिस्की भी है।

11 नवंबर को जब मां एम्स में ऑपरेशन थिएटर के सामने बैठी थी, एक डॉक्टर ने मां की ओर इशारा करते हुए दूसरे से कहा 'इनका ऑपरेशन डेंजरस है।' इस बात को मां ने सुन लिया। घर आकर उसने हमसे इस संदर्भ में पूछा। हमसब ने बात को हंस कर उड़ा दिया। मैंने मां से कहा कि तुमने गलत सुना होगा, डॉक्टर कह रहा होगा कि यह महिला बहुत डेंजरस है। और फिर इस बात पर काफी देर तक मजाक चलाता रहा।

तुम और रेमी वहां से 7 को चल दो, कुछ पैसे भी लेते आना। ऑपरेशन में रिस्क की बात रांची में मैंने किसी को नहीं बताई, रेमी को भी नहीं। 8 नवंबर की ट्रेन में हम दोनों का रिजर्वेशन हो सका। ट्रेन काफी विलंब से दिल्ली पहुंची थी। तकरीबन 1:30 बजे रात को। भइया स्टेशन पर मौजूद था।

10 तारीख को पापा मुझे लेकर कुछ खरीदारी के बहाने बाहर निकले। रास्ते में उन्होंने बताया कि मां को कैंसर है और ऑपरेशन में बहुत ज्यादा रिस्क है। एम्स के डॉक्टर पीयूष साहनी का कहना है कि ऑपरेशन के सफल होने की बहुत कम संभावना है, लेकिन ऑपरेशन का रिस्क लेना चाहिए। क्योंकि बाद की जो स्थिति आएगी, वह और भी दुःसहनीय होगी। उनके मुताबिक, मां को बाद के दिनों में भूख-प्यास बहुत तेज लगेगी, लेकिन मां न तो कुछ खा पाएंगी और न ही कुछ पी पाएंगी। यह सब बताते हुए पापा की आंखें नम थीं और मेरी भी। फुटपाथ पर हम दोनों काफी देर इसी स्थिति में खड़े रहे, दोनों चुप।

पापा ने आगे कहा - सोचो आगे क्या करना है? हमलोगों के पास वक्त बहुत कम है। फिर पापा ने कहा - स्थिति अगर हमारे अनुकूल रही तब तो बहुत अच्छी बात होगी और यदि ऑपरेशन सफन नहीं हुआ तब...? इसी 'तब' पर आकर तो दिमाग शिथिल हुआ जा रहा था। खैर, अंत में हमारी सहमति इस बात पर हुई कि प्रतिकूल स्थिति में पापा और रेमी, मां को लेकर रांची की फ्लाइट से लौटेंगे और मैं और भाई ट्रेन से।

दिमाग की नसें फटी जा रही थीं। और हम घर वापस लौटे। मां से लिपट कर बहुत रोने को जी चाह रहा था। सारी कमजोर भावनाओं को दबाते हुए मैं मां के पास बैठ गया। इधर-उधर की बातें करने लगा। अपने स्वभाव के मुताबिक मैं मां को छेड़ रहा था, हंस रहा था और हंसाने की कोशिश कर रहा था।

दूसरे दिन, हम सभी ने एम्स में बड़ी बेचैनी का दिन गुजारा। पापा, भइया, मंजुल प्रकाश, संजय लाल और राजेश प्रियदर्शी सभी के चेहरे पर अनिश्चितता के भाव थे। रेमी को एम्स में ही बताया गया कि आज का दिन बड़ा भारी है। कैंसर की बात तब भी रेमी से नहीं कही गयी थी क्योंकि आशंका थी कि फिर वह मां के सामने खुद को सामान्य नहीं रख पाएगी। ऑपरेशन में रिस्क की बात सुनकर रेमी व्याकुल हो गयी। चूंकि कुछ अन्य ऑपरेशनों में उस दिन डॉक्टर को देर हो गयी, इसीलिए हमें फिर 13 नवंबर को बुलाया गया।

11 नवंबर को जब मां एम्स में ऑपरेशन थिएटर के सामने बैठी थी, एक डॉक्टर ने मां की ओर इशारा करते हुए दूसरे से कहा 'इनका ऑपरेशन डेंजरस है।' इस बात को मां ने सुन लिया। घर आकर उसने हमसे इस संदर्भ में पूछा। हमसब ने बात को हंस कर उड़ा दिया। मैंने मां से कहा कि तुमने गलत सुना होगा, डॉक्टर कह रहा होगा कि यह महिला बहुत डेंजरस है। और फिर इस बात पर काफी देर तक मजाक चलाता रहा। मां को बहलाने की हमारी कोशिश चलती रही। पता नहीं मां हमलोगों की बातों से कितना संतुष्ट हुई थी।

(जारी)