आज तारीख 7 है। इस महीने का पहला हफ्ता अभी बीत रहा है। और हमें यह चिंता अभी से खाए जा रही है कि महीने भर घर का खर्च कैसे चलेगा। वैसे यह खूब पता है कि ऐसी चिंता में सिर्फ हम ही नहीं घुल रहे, बल्कि इस चिंता से आपको भी दो-चार होना पड़ता है। यह तो घर-घर की कहानी है। खैर, अपने घर के बजट से उबरा, तो मां की किताब 'चांदनी आग है' लेकर बैठ गया। और संयोग देखिए कि जो पन्ना खुला, उस पन्ने की कविता भी आम आदमी के घरेलू बजट से जुड़ी निकली। आप भी पढ़ें :
अखबारों की दुनिया में
महंगी साड़ियों के सस्ते इश्तहार हैं।
शो-केसों में मिठाइयों और चूड़ियों की भरमार है।
प्रभू, तुम्हारी महिमा अपरम्पार है
कि घरेलू बजट को बुखार है।
तीज और करमा
अग्रिम और कर्ज
एक फर्ज।
इनका समीकरण
खुशियों का बंध्याकरण।
त्योहारों के मेले में
उत्साह अकेला है,
जिंदगी एक ठेला है।
(शैलप्रिया की कविता 'जिंदगी' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)