मुकुल दी (अर्चना सिन्हा) मेरे चाचा की सबसे छोटी बेटी हैं। उम्र में मुझसे 10 साल बड़ी। पर मेरे लिए वह दोस्त भी हैं। यह भी सच है कि मेरा परिचय इनसे मेरे मैट्रिक पास कर लेने के बाद हुआ। कुछ वजहों से (जिन्हें न मैं जानता हूं और न जानना चाहता हूं) हम सब अलग-अलग रहे। अलग-अलग शहर में बस जाने की वजह से दूरियां बनी रहीं। इस दूरी को पाटने की नींव डाली पराग भइया ने। हम दोनों पटना गये थे संस्था सार्थक के साथ। कालिदास रंगालय में हमारे नाटक का मंचन होना था। भइया मुझे लेकर गया था बड़ी मां के घर। इसके बाद कई बार मेरा आना-जाना हुआ। हमारे बीच की दूरियां पटती गईं। अब आज किसी भी अवसर को हम एक-दूसरे से बेहिचक शेयर करते हैं। -अनुराग अन्वेषी
Monday, February 23, 2009
कुछ धुंधली यादें
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 12:06:00 AM 1 प्रतिक्रियाएं
Saturday, February 21, 2009
स्त्री के गीत
सुना है
कोई स्त्री गाती थी गीत
सन्नाटी रात में।
उजाले के गीत का
कोई श्रोता नहीं था,
नहीं कोई सहृदय
व्यथा की धुन को सुनने वाला।
समुद्र के गीत लहरों की हलचलें सुनाती हैं
पहाड़ा का गीत
झरने सुनते हैं,
सड़कों पर बड़ी भीड़ है,
मगर स्त्री के गीत का मर्म
नहीं समझता कोई।
बर्फ के टुकड़ों की तरह
पिघलता है गीत,
कांच के बर्तन में
अस्तित्वहीन होती स्त्री की तरह।
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 12:45:00 AM 6 प्रतिक्रियाएं
लेबल कविता, चांदनी आग है, शैलप्रिया
Wednesday, February 18, 2009
प्रतीक्षा
चलो, व्यूह रचें
निःशब्द होकर
बिखर जाना,
किसी ताजा खबर की आस में
सचमुच बहुत बड़ी भ्रांति है
सच है
कि सपने प्यारे होते हैं
लेकिन वासंती बयार के साथ
उन्हें उड़ा देना
ठीक वैसा ही है
कि हम विरोध करें
और हमारी तनी मुट्ठियां हवा में आघात करें
इसलिए चलो
बाहर की उमस को
बढ़ने से रोकें
और फिर से युद्ध के लिए एक व्यूह रचें।
-अनुराग अन्वेषी, 26 दिसंबर'95,
रात 9.30 बजे
कबतक भ्रांतियों में जीती हुई
काटती रहूं घटना चक्र?
व्यूह-रचना में
शामिल
मकड़े का जाल बुनते हुए
देखती हूं
झाड़-फानूस-से सपने,
बेहिसाब
चक्कर काटता मन
किसी कील की नोंक पर
लगातार घूमता है।
बाहर उमस है,
भीतर आओ।
एक बाड़वाग्नि लगातार
जलती है अंदर।
ठहरो,
झुलस जाओगे
कमजोर पन्नों की तरह।
अनुभवों को चीरते हुए
मैं निःशब्द बिखर जाती हूं
एक ताजा खबर की आस में।
(शैलप्रिया की कविता 'प्रतीक्षा' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 12:25:00 PM 2 प्रतिक्रियाएं
लेबल कविता, चांदनी आग है, शैलप्रिया
Saturday, February 14, 2009
गूलर के फूल
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 10:07:00 AM 2 प्रतिक्रियाएं
लेबल कविता, चांदनी आग है, शैलप्रिया
Wednesday, February 11, 2009
आमंत्रण
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 11:23:00 PM 1 प्रतिक्रियाएं
लेबल कविता, चांदनी आग है, शैलप्रिया
Tuesday, February 10, 2009
मां से मेरी आखिरी मुलाकात
15, 16, 17 नवंबर - इन तीन दिनों में ही दवाओं ने मां के स्वास्थ्य पर गहरा असर किया। लगा मां स्वस्थ हो रही है। ऑपरेशन के संदर्भ हमलोगों ने निर्णय किया कि जब तक घोषाल की आशा बची है तक तक ऑपरेशन की तारीख को आगे खिसकाया जायेगा। 18 नवंबर की सुबह 4 बजे मां से मेरी आखिरी मुलाकात रही। उस दिन मैं रांची लौट रहा था क्योंकि दादी की तबीयत रांची में खराब थी। उस सुबह मां ने कहा 'सबको कहना घबराने की जरूरत नहीं है, हम जल्द ही ठीक होकर रांची लौटेंगे।' सचमुच, मां की इच्छाशक्ति बहुत मजबूत थी, लेकिन वह उसका शरीर कमजोरी से नहीं लड़ सका।
रांची जब मैं लौटा तो मां के कैंसर के संबंध में मैंने किसी से कुछ नहीं कहा क्योंकि आशंका थी कि इस खबर के बाद लोग तुरंत दिल्ली पहुंचेंगे और मां की इच्छाशक्ति कमजोर पड़ेगी। उसे यह पक्का यकीन हो जाता कि उसे कोई असाध्य बीमारी है। दूसरी तरफ मैं इस आशा से भी लैस था कि घोषाल की दवा से मां ठीक होकर जल्द ही रांची आयेगी।
रांची में इस बार मुझे ऊब हो रही थी। फिर भी वक्त की जरूरत समझ मैं रांची में ही रह रहा ता। इस बीच अरुण मामा मां को देखने दिल्ली गये। उनका लौटना 1 दिसंबर की दोपहर को हुआ। उस दिन मामा के हाथों पापा का पत्र मिला। यह पत्र 30 नवंबर 94 की सुबह 5:25 पर लिखा गया था। पत्र की कुछ पंक्तियों को पढकर मेरा मन बहुत अशांत हो गया। पापा ने पत्र में एक जगह लिखा था 'इतने कम समय में क्या लिखूं और क्या न लिखूं, यह समझ में नहीं आ रहा। तुम धीरज रखना और घर की व्यवस्था किये रहना तुम्हारा रांची में रहना अभी जरूरी है।'
एम्स के डॉक्टर ने 5 दिसंबर की भर्ती करने के लिए कहा था। इस संदर्भ में पापा ने उसी पत्र में लिखा था 'ऑपरेशन की डेट कम से कम पंद्रह दिनों के लिए बढ़ाने का विचार पक्का है। अभी एम्स में 5 दिसंबर को भर्ती करने को लिखा-कहा है। लेकिन मध्य दिसंबर तक कम-से-कम डॉ. घोषाल की दवाओं का असर देखना है। उम्मीद अच्छी है, फिर भी कुछ निश्चित सोच पाना मुश्किल है। वैसे, तुम्हारी मां की कमजोरी की मौजूदा स्थिति में कोई भी ऑपरेशन आसान नहीं लगता। कैसे झेल सकेगी वह, यह सब?'
मैं पत्र की बातों को ही सोच रहा था। रात के 10:30 बज रहे थे। तभी फोन की घंटी बजी। भइया की आवाज थी कि अनुराग, मां की तबीयत बहुत खराब है, हमलोग मां को लेकर आ रेह हैं। मेरे सामने मां का कमजोर शरीर और चेहरा घूम गया। मंझली मामी मेरी बगल में खड़ी थीं। मैंने डरते-डरते पूछा - ट्रेन से या प्लेन से? भइया ने जवाब दिया - प्लेन से। तभी घर का कॉलबेल बजा। इसके बाद मुझे कुछ भी याद नहीं कि भइया से मेरी क्या बातचीत हुई। मामी ने बताया कि अनूप मामा ड्यूटी से आ चुके हैं। मैं कांप रहा था। मामी ने पूछा 'कांप क्यों रहे हैं आप?' मैंने कहा 'दिसंबरी जाड़े की रात है।' बड़ी मुश्कल से अपने को संतुलित कर सका। मेरे जेहन में तो सिर्फ मां थी। मामी-मामा को खाना खिला कर मैंने उन्हें सोने के लिए भेज दिया और खुद कमरे में आकर लेट गया। उस बंद कमरे में मैंने पंखे को पांच पर कर दिया ताकि मेरी रुलाई घर के अन्य सदस्यों तक न पहुंचे। बार-बार मुझे लगता था कि नहीं, ऐसा कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ होगा; मां मुझे छोड़कर ऐसे कैसे चली जायेगी? कान में भइया के शब्द गूंज रहे थे - प्लेन से। ख्याल आता कि मां प्लेन से उतर रही है, बड़ी कमजोर हो चुकी है, पापा मां को सहारा दिये हुए हैं। मुझे देखकर मां की आंखें भर आई हैं। मैं दौड़कर मां से लिपट जाता हूं, मां कहती है, बस तुम्हारा ही इंतजार था और मां मेरी गोद में दम तोड़ देती है। पता नहीं और कैसे-कैसे चित्र आंखों में घूमते रहे। मैं अपने कमरे में रोता रहा।
उस रात के बाद मेरी आंखों से आंसू तो नहीं बहे, लेकिन अब भी इंतजार करता हूं अपनी मां का कि शायद मेरे सपने में आयेगी, मुझसे बातें करेगी मेरी प्यारी मां।
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 5:46:00 PM 4 प्रतिक्रियाएं
मां का स्वार्थ
13
मैं जादू दिखाने लगा। मां बड़े चाव से जादू देख रही थी। कभी-कभी बीच में मुस्कुरा देती। अचानक मां ने लेटते हुए कहा - 'कुछ ऐसा जादू करो कि हम सब रांची पहुंच जायें...।' यह कहकर मां ने दूसरी तरफ मुंह फेर लिया। इस बात को मैंने अनसुना करने की कोशिश की। लेकिन मां तो सारा कुछ कह चुकी थी।
(जारी)
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 12:18:00 AM 2 प्रतिक्रियाएं
Sunday, February 01, 2009
दिस लेडि इज डेंजरस
दिल्ली से 4 नवंबर को पापा का फोन आया कि 11 को मां का ऑपरेशन है। और यह रिस्की भी है।
11 नवंबर को जब मां एम्स में ऑपरेशन थिएटर के सामने बैठी थी, एक डॉक्टर ने मां की ओर इशारा करते हुए दूसरे से कहा 'इनका ऑपरेशन डेंजरस है।' इस बात को मां ने सुन लिया। घर आकर उसने हमसे इस संदर्भ में पूछा। हमसब ने बात को हंस कर उड़ा दिया। मैंने मां से कहा कि तुमने गलत सुना होगा, डॉक्टर कह रहा होगा कि यह महिला बहुत डेंजरस है। और फिर इस बात पर काफी देर तक मजाक चलाता रहा।
10 तारीख को पापा मुझे लेकर कुछ खरीदारी के बहाने बाहर निकले। रास्ते में उन्होंने बताया कि मां को कैंसर है और ऑपरेशन में बहुत ज्यादा रिस्क है। एम्स के डॉक्टर पीयूष साहनी का कहना है कि ऑपरेशन के सफल होने की बहुत कम संभावना है, लेकिन ऑपरेशन का रिस्क लेना चाहिए। क्योंकि बाद की जो स्थिति आएगी, वह और भी दुःसहनीय होगी। उनके मुताबिक, मां को बाद के दिनों में भूख-प्यास बहुत तेज लगेगी, लेकिन मां न तो कुछ खा पाएंगी और न ही कुछ पी पाएंगी। यह सब बताते हुए पापा की आंखें नम थीं और मेरी भी। फुटपाथ पर हम दोनों काफी देर इसी स्थिति में खड़े रहे, दोनों चुप।
पापा ने आगे कहा - सोचो आगे क्या करना है? हमलोगों के पास वक्त बहुत कम है। फिर पापा ने कहा - स्थिति अगर हमारे अनुकूल रही तब तो बहुत अच्छी बात होगी और यदि ऑपरेशन सफन नहीं हुआ तब...? इसी 'तब' पर आकर तो दिमाग शिथिल हुआ जा रहा था। खैर, अंत में हमारी सहमति इस बात पर हुई कि प्रतिकूल स्थिति में पापा और रेमी, मां को लेकर रांची की फ्लाइट से लौटेंगे और मैं और भाई ट्रेन से।
दिमाग की नसें फटी जा रही थीं। और हम घर वापस लौटे। मां से लिपट कर बहुत रोने को जी चाह रहा था। सारी कमजोर भावनाओं को दबाते हुए मैं मां के पास बैठ गया। इधर-उधर की बातें करने लगा। अपने स्वभाव के मुताबिक मैं मां को छेड़ रहा था, हंस रहा था और हंसाने की कोशिश कर रहा था।
दूसरे दिन, हम सभी ने एम्स में बड़ी बेचैनी का दिन गुजारा। पापा, भइया, मंजुल प्रकाश, संजय लाल और राजेश प्रियदर्शी सभी के चेहरे पर अनिश्चितता के भाव थे। रेमी को एम्स में ही बताया गया कि आज का दिन बड़ा भारी है। कैंसर की बात तब भी रेमी से नहीं कही गयी थी क्योंकि आशंका थी कि फिर वह मां के सामने खुद को सामान्य नहीं रख पाएगी। ऑपरेशन में रिस्क की बात सुनकर रेमी व्याकुल हो गयी। चूंकि कुछ अन्य ऑपरेशनों में उस दिन डॉक्टर को देर हो गयी, इसीलिए हमें फिर 13 नवंबर को बुलाया गया।
11 नवंबर को जब मां एम्स में ऑपरेशन थिएटर के सामने बैठी थी, एक डॉक्टर ने मां की ओर इशारा करते हुए दूसरे से कहा 'इनका ऑपरेशन डेंजरस है।' इस बात को मां ने सुन लिया। घर आकर उसने हमसे इस संदर्भ में पूछा। हमसब ने बात को हंस कर उड़ा दिया। मैंने मां से कहा कि तुमने गलत सुना होगा, डॉक्टर कह रहा होगा कि यह महिला बहुत डेंजरस है। और फिर इस बात पर काफी देर तक मजाक चलाता रहा। मां को बहलाने की हमारी कोशिश चलती रही। पता नहीं मां हमलोगों की बातों से कितना संतुष्ट हुई थी।
(जारी)
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 11:12:00 PM 2 प्रतिक्रियाएं