'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Sunday, March 29, 2009

सार्थक एक लम्हा

आज
जीना बहुत कठिन है।
लड़ना भी मुश्किल अपने-आप से।
इच्छाएं छलनी हो जाती हैं
और तनाव के ताबूत में बंद।
वैसे,
इस पसरते शहर में
कैक्टस के ढेर सारे पौधे
उग आए हैं
जंगल-झाड़ की तरह।


इन वक्रताओं से घिरी मैं
जब देखती हूं तुम्हें,
उग जाता है
कैक्टस के बीच एक गुलाब
और
जिंदगी का वह लम्हा
सार्थक हो जाता है।
(शैलप्रिया की यह कविता उनके काव्य संकलन चांदनी आग है से ली गयी है।)

Friday, March 27, 2009

उत्तर की खोज में

एक छोटे तालाब में
कमल-नाल की तरह
बढ़ता मेरा अहं
मुझसे पूछता है मेरा हाल।

मैं इस कदर एक घेरे को
प्यार क्यों करती हूं?

दिनचर्याओं की लक्ष्मण रेखाओं को
नयी यात्राओं से
क्यों नहीं काट पाती मैं?

दर्द को महसूसना
अगर आदमी होने का अर्थ है
तो मैं सवालों के चक्रव्यूह में
पाती हूं अपने को।

मुक्तिद्वार की कोई परिभाषा है
तो बोलो
वे द्वार कब तक बंद रहेंगे
औरत के लिए?

मैं घुटती हुई
खुली हवा के इंतजार में
खोती जाऊंगी अपना स्वत्व
तब शेष क्या रह जाएगा?
दिन का बचा हुआ टुकड़ा
या काली रात?
तब तक प्रश्नों की संचिका
और भारी हो जाएगी।

तब भी क्या कोई उत्तर
खोज सकूंगी मैं?

(शैलप्रिया की यह कविता उनके काव्य संकलन चांदनी आग है से ली गयी है।)

Wednesday, March 25, 2009

आधी रात के बाद

आधी रात के बाद
जब तारे ऊंघने लगते हैं,
तब भी कई जोड़ी आंखें
कंटीले पौधों की क्यारी में
भटकती होती हैं।

जब सारा शहर सो रहा होता है,
तब भी कई जोड़ी आंखें
धुंध की कीच में
रास्ते तलाशती होती हैं।

आधी रात तक
जब मन प्राण छटपटाते होते हैं,
तब धुएं से भरी
काली आंखों में
प्यार का बादल नहीं उमड़ता,
कोई स्पर्श
घायल अहसासों पर
कारगर मलहम नहीं बन पाता,
और चोट खाए अहं की तड़प
कील की तरह कसकती होती है।

आधी रात के बाद भी
नींद नहीं आती है कभी-कभी।
और सुबह के इंतजार में
कटती जाती है
प्रतीक्षा भरी बेलाएं।
(शैलप्रिया की यह कविता उनके काव्य संकलन चांदनी आग है से ली गयी है।)

Friday, March 20, 2009

अभिव्यक्ति का अधूरा सफर

नीला प्रसाद

नीला प्रसाद ने संस्मरण की इस आखिरी किस्त में शैलप्रिया की कार्यशैली और उनकी चिंताओं की चर्चा की है।

- अनुराग अन्वेषी

बै

ठक शुरू होने से पहले और बाद, सदस्य उनसे अपनापे से बात करते और अपनी समस्याएं रखते थे, जिनके समाधान को वे हमेशा प्रस्तुत रहतीं। 'सत्य-भारती' में 'पाश' और 'सफदर-हाशमी' को समर्पित बैठकें भी हुईं और ऐसी बैठकें भी जिनमें रचनाकार विशेष ने अपनी रचना (कहानी/कहानियां या कविताएं) सुनाई और किसी वरिष्ठ आलोचक समेत, बैठक में उपस्थित सदस्यों ने उस पर टिप्पणियां भी कीं। स्थिति ऐसी भी आई कि गिने-चुने सदस्य ही बैठक में उपस्थित हो पाये और ऐसी भी कि अतिरिक्त कुर्सियों की व्यवस्था करनी पड़ी। शैलजी बैठकों में लगभग हरबार सबसे पहले आतीं - फिर एक-एक कर अन्य सदस्य प्रकट होते। वे हर एक से अलग-अलग हाल पूछतीं, प्रोत्साहन देतीं, कभी रचनाएं प्रकाशन के लिए भेजने की सलाह देतीं पर बैठक शुरू होते ही वे 'कोई और' हो जातीं - कम-से-कम बोलतीं, आग्रह करने पर ही अपनी रचनाएं सुनातीं। सुनातीं भी तो इस भाव से मानों उनकी रचनाओं का महत्व आंकने की कोई जरूरत नहीं है। फिर भी, एक सहज-सरल, स्नेहिल, घरेलू महिला के उनके बाहरी आवरण को भेदकर अंदर से उस जुझारू, बेचैन, नारी जीवन की रूढ़िगत छवि और परंपरागत जीवन के विरुद्ध खड़ी महिला की छवि उनकी रचनाओं से झलकने ही लगती। हम सब प्रशंसा करते तो वे मृदु मुस्कान समेटे विनम्रता से कहतीं - बस ऐसे ही लिख डाली थी।


पर शैलजी प्रसन्न नहीं थीं। भले ही 'अभिव्यक्ति' अपनी वर्षगांठें मना चुकी थी पर बैठकें नियमित रूप से हो नहीं पा रही थीं और उसके कार्यकलापों का भी विस्तार नहीं हो पा रहा था। वे अक्सर अपनी चिंता और बेचैनी फोन पर जाहिर करतीं। अभी कई योजनाएं कार्यरूप दिये जाने के इंतजार में दिमाग में ही थीं कि शैलजी बीमार पड़ गयीं। थोड़े दिनों के इलाज के पश्चात पता चला कि उनका ऑपरेशन करना पड़ेगा। 'अभिव्यक्ति की बैठकों का क्या होगा?' उन्होंने मुझे फोन किया। 'पहले आप स्वस्थ तो हो लें' मैंने अपनी राय जतायी पर फोन के दूसरे सिरे पर बेचैनी व्याप्त थी मानों स्वास्थ्य खराब हो जाने में उन्हीं का कोई दोष हो। साहू नर्सिंग हो में जिस दिन उनका ऑपरेशन होना था उस दिन दफ्तर से भोजनावकाश में निकलकर मैं उनसे मिली। वे ऑपरेशन थियेटर में ले जाये जाने का इंतजार कर रही थीं। दूसरे ऑपरेशनों को मिलाकर यह उनका चौथा ऑपरेशन था और वे आशंकित थीं कि कहीं यह जीवन का अंत तो नहीं? उस दिन उन्होंने अपने अतीत की, भविष्य की योजनाओं, जिसमें 'अभिव्यक्ति' भी शामिल थी और व्यक्तिगत इच्छाओं की कई बातें कीं - उनमें वैसी इच्छाएं भी शामिल थीं जिनके बारे में निर्देश था कि वे न रहें तो उनके घर ये बातें बता दी जायें। जब मैं भावनाओं की तरलता में डूबी हुई लौट रही थी तब भोजनावकाश कब का समाप्त हो चुका था। पर सौभाग्य से उनकी आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं और ऑपरेशन सफल हुआ।


वे स्वस्थ हुईं और एमए की तैयारी के साथ-साथ 'अभिव्यक्ति' को पुनर्जीवित करने के प्रयासों में जुट गयीं। उनके आवास पर दो-एक सफल बैठकें हुईं, फिर से भविष्य की योजनाएं बनीं। वक्त के हाथों छले जाने को प्रस्तुत हमने, 'अभिव्यक्ति' को लेकर एक बार और सपने देखे - बैठक के दौरान रसोई के साथ-साथ चाय बनाते हुए 'अभिव्यक्ति' को एक अलग तरह की साहित्यिक संस्था बनाने के संकल्प दुहराए गये। पर किसे पता था कि 'अभिव्यक्ति' का सफर अधूरा ही समाप्त होने को था।


शैलजी थोड़े अंतराल के बाद ही पुनः बीमार हो गयीं; अबकी कभी ठीक न होने को। वे लंबे समय तक बीमार रहीं और 'अभिव्यक्ति' जो एक तरह से उनके बूते ही चला करती थी, ठप पड़ गयी। जब मैं 24 जून 94 को प्रियदर्शन के जन्मदिन पर उनसे अंतिम बार मिली तब भी व्यक्तिगत और पारिवारिक बातों के साथ-साथ हमारे सपनों में निरंतर फलती-फूलती 'अभिव्यक्ति' के ठप पड़ जाने पर खेद उन्होंने व्यक्त किया था और स्वस्थ होते ही उसे फिर से शुरू करने की इच्छा प्रकट की थी। उसके बाद से बस उनका अंतिम फोन ही मिला - कि वे दिल्ली जा रही हैं और पता नहीं वहां से लौटें, न लौटें तो मुझसे मिलना चाहती हैं। मैंने उनके कहने को बिल्कुल हल्के ढंग से लिया और कहा कि जब इस तरह की आशंका उनके मन में है तब तो मैं उनके दिल्ली से वापस आने पर ही मिलूंगी। बाद में जब-तब हूक उठती रही कि मुझे सारे काम छोड़कर भी उनसे मिलना चाहिए था। जब सुना कि वे बहुत बीमार हैं तो दिल्ली जाने का प्रोग्राम बनाया पर नियति को यह मुलाकात मंजूर नहीं थी। मेरे दिल्ली पहुंचने के पांच दिन पहले ही वे अपनी तमाम चाहतों, सपनों और चिंताओं समेत चिर-निद्रा में चली गयीं - अपनी 'अभिव्यक्ति' का सफर अधूरा छोड़कर।

Tuesday, March 17, 2009

और इस तरह बन गई 'अभिव्यक्ति'

नीला प्रसाद

अपने संस्मरण के इस हिस्से में नीला प्रसाद बता रही हैं शैलप्रिया के व्यक्तित्व के उस पहलू के बारे में जो सुनता तो सबकी था, पर काम अपनी बुद्धि और अपने विवेक से करता था।- अनुराग अन्वेषी

फि
र, विचारों को ठोस शक्ल देने के लिए एक बैठक आयोजित करने का निश्चय हुआ। संस्था का नाम, स्वरूप, लक्ष्य क्या हो, किन-किन के सक्रिय सहयोग से कैसे उसे शुरू किया और लंबे समय तक चलाया जाये - संस्था सिर्फ महिला रचनाकारों के लिए हो या सभी युवा रचनाकरों के लिए, इसमें बड़ों की भूमिका क्या हो वगैरह मुद्दे तय करने के लिए 1989 के पूर्वार्द्ध में पहली बैठक श्रीमती माधुरीनाथजी के आवास पर आयोजित की गई। जहां तक मुझे याद है वह गर्मियों की शुरुआत का कोई रविवार था - दोपहर के तीन बजे का वक्त। मैं बैठक में देर से पहुंची थी और डॉ. नाथ के आवास के विशाल बैठक में कई प्रबुद्ध महिलाओं को बातचीत में सक्रिय पाया था। हां, वहां साहित्यिकों में पुरुष भी थे। शैलजी स्वभाववश कम बोल रही थीं और कहीं से भी ऐसा प्रतीत नहीं होता था कि वह बैठक उन्हीं की पहल पर बुलाई गयी है, कि संस्था चलाने की मुख्य जिम्मेदारी वे ही अपने कंधों पर लेने वाली हैं, कि भले ही संस्था के स्वरूप के बारे में परस्पर विरोधी बातें सामने आ रही हैं वे विचलित हुए बिना बीच की राह निकाल लेंगी... कुछेक मिनट ही बीते होंगे कि मेरे आने तक जितनी बातचीत हो चुकी थी उसकी जानकारी देने के लिए वे अपनी जगह से उठ कर मेरी बगल में आकर बैठीं। मुझे अच्छा लगा कि उन्हें यह अहसास था कि मैं बैठक में सक्रिय रूप से भाग ले सकूं इसके लिए पहले हो चुकी बातें जानना मेरे लिए जरूरी है। मतभेद के मुद्दे क्या हैं - यह भी उन्होंने मुझे बताया। बैठक समाप्त होने के बाद गली के मोड़ पर खड़े-खड़े और बाद में फोन पर हमने बातें कीं। मैं अन्य वरिष्ठों की राय ठीक-ठीक समझना चाहती थी। फिर, थोड़े से और विचार-विमर्शों के बाद संस्था ने आकार ग्रहण कर लिया। नाम : अभिव्यक्ति, अध्यक्षा : डॉ. माधुरीनाथ, सचिव : शैलप्रिया। कार्यकारिणी में मैं तथा कई अन्य। मासिक बैठकें डॉ. नाथ के आवास पर बुलायी जाने लगीं। पोस्टकार्ड पर हस्तलिखित या टंकित सूचनाएं भेज दी जातीं। शैलजी को यह खेद बना रहता था कि वे टंकन नहीं जानतीं और इस कारण सूचनाएं भेजने में उन्हें पति और पुत्र का सहयोग लेना पड़ता है।

बाद में बैठक बाहर भी आयोजित करने का निर्णय हुआ और 'सत्य भारती' का कमरा किराये पर लिया जाने लगा। किराया, सदस्यों से प्राप्त चंदे की राशि से दिया जाना था पर शैलजी यह अपनी जेब से दे दिया करती थीं ताकि चंदे से प्राप्त राशि का ज्यादा सार्थक उपयोग हो सके। बैठक में चाय-नाश्ते की व्यवस्था भी खुद ही कर दिया करती थीं। बैठक में आई लड़कियों को वापस लौटने में असुविधा नहीं हो - इसका जिम्मा उन्हें अपना लगता था और कुछेक लड़कियों को घर तक पहुंचवाने के लिए वे गोष्ठी में आये लड़कों के स्कूटर का उपयोग वे उनकी सहमति से कर लिया करती थीं। जिनके लिए किसी स्कूटर या साथ की व्यवस्था नहीं हो पाती उसे अपने पुत्रों से आग्रह करके स्कूटर से घर तक पहुंचवातीं। इस तरह लड़कियां निश्चिंत रहतीं। उन निश्चिंत लिड़कियों में मैं भी शामिल थी।
(जारी)

Sunday, March 15, 2009

'अभिव्यक्ति' का अधूरा सफर


लेखक परिचय

नीला प्रसाद

जन्म और शिक्षा रांची में। भौतिकी प्रतिष्ठा के साथ स्नातक। कार्मिक प्रबंधन और औद्योगिक संबंध में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा। पेशे से कोल इण्डिया लिमिटेड में कार्मिक प्रबंधक। पहली पहचान भी वही है। कुछ बातें हैं, कुछ मुद्दे हैं, कुछ सपने हैं, जो लिखकर अपनी बात करने को उकसाते रहते हैं। गुटबाजियों और ‘वादों’ के माहौल में फिट नहीं बैठते हुए भी, अपना लिखा कुछ कहीं छप जाता है तो अच्छा लगता है। लेखन से उत्पन्न परिवर्तन की रफ्तार इतनी धीमी है कि अपने लिखने को लेकर एक हताशा की स्थिति घेरे रहती है।

p.neela1@gmail.com

सं

बंध जहां आकर्षण-विकर्षण की चुंबकीय रेखाओं से लगातार प्रभावित होते, बनते-बिगड़ते, शक्लें बदलते रहते हों और जहां स्नेह और आदर की मीठी धूप में निरंतर फलते-फूलते, पुख्ता होते रहते हों, उनमें बड़ा अंतर होता है। शैलप्रिया जी से मेरे संबंध भले ही पारिवारिक परिचय की छाया में बने, पर उनके पनपने का आधार निश्चय ही पिछली पीढ़ी से चले आ रहे अतीत के रिश्तों में नहीं थे। वे पनपे और प्रगाढ़ हुए तो आपसी स्नेह, वैचारिक तालमेल और आपसी संपर्क से निरंतर कुछ पाते रहने के सघन अहसासों से।

पहचाने नाम वाली, पर तब तक मेरे लिए कुछ अनपहचाने व्यक्तित्व की शैलप्रिया जी से सात बरस पहले, जब मैं बरसों बाद व्यस्क होने पर फिर से मिली, तब तक वे अपनी रचनात्मक क्षमताओं की 'अभिव्यक्ति' के बहुत सारे पड़ाव तय कर चुकी थीं। कविता की दुनिया ही नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं तथा महिला-समितियों में भी शैलप्रिया का नाम अपनी जगह बना चुका था।

बात वर्ष 1988 की सर्दियों की शुरुआत की है। 'सारिका' में रांची की किसी लड़की का छोटा-सा आत्मकथ्य प्रकाशित हुआ और सारे शहर की सभी छोटी-बड़ी संभावनाओं, प्रतिभाओं को खोज निकालने को उत्सुक, उन्हें विकसित होने में सहयोग देने के उत्साह से छलकते विद्याभूषणजी और शैलजी उस लड़की की खोज में लग गये। वैसे भी वे दोनों उन दिनों रांची में संभावनापूर्ण युवा प्रतिभाओं को 'अभिव्यक्ति' का एक मंच दे सकने के प्रयास में जुटे हुए थे।
इस परिप्रेक्ष्य में आत्मकथ्य लिखने वाली लड़की की तलाश शुरू हुई थी। अल्प प्रयासों के बाद ही पता चला कि लड़की तो 'अपने घर की' ही है। इस अप्रत्याशित तलाश में वह लड़की यानी मैं सुखद आश्चर्य में डूब गयी। सहज-सरल शैलजी के स्नेह की छाया में तुरंत ही समेट लिए जाने से तुष्ट और गर्वित हुई, उनके व्यक्तित्व के आंतरिक आकर्षण से बिंध गई।
मुलाकात के बाद से नयी संस्था के बारे में हो रहे विचार-विमर्शों की जानकारियां मुझे शैलजी देती रहीं - ज्यादातर फोन पर - क्योंकि हम जल्दी-जल्दी मिल पाते नहीं थे; मैं कार्यालय की व्यस्तताओं और आलस्य के कारण तथा शैलजी गृहस्थी, लेखन, विभिन्न संस्थाओं से जुड़ी जिम्मेदारियों के कारण। फोन पर हम देर तक बतियाते (तब रांची में एक कॉल की समय-सीमा निर्धारित भी नहीं थी) - संस्था के स्वरूप के बारे में, उसके उद्देश्यों, उसके नाम के बारे में; साहित्य, परिवार और अपनी घटनाओं, सोचों के बारे में। मैं सलाह देने की स्थिति में कम ही होती थी फिर भी अपने मत सामने रख देती थी जिन्हें वे (शायद मेरा मन रखने को) बड़ी गंभीरता से सुनती थीं मानो वे किसी प्रौढ़, अनुभवी व्यक्ति के मत हों।

संस्था के बहाने शैलजी के विचारों, उनकी प्रतिबद्धताओं को धीरे-धीरे जानना शुरू किया। संस्था उनके मस्तिष्क में आकार ग्रहण करने लगी थी - स्वरूप से लेकर उद्देश्यों तक में। वैसे तो उन दिनों शहर में साहित्यिक संस्थाओं का अकाल नहीं था और न ही गतिविधियों के क्षेत्र में नितांत सन्नाटा, परंतु नयी संस्था को वे 'कुछ अलग', 'कुछ विशिष्ट', 'कुछ ज्यादा सार्थक', 'वृहत्तर उद्देश्यों वाली' बनाना चाहती थीं। संस्था ऐसी हो जहां अनुभवी, वरिष्ठ लोगों की रचनाएं भी सुनी जायें और किसी नयी पौध की पहली रचना भी, ताजा प्रकाशित राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित रचना की बारीकियों की चर्चा आलोचना भी हो और किसी स्थानीय रचनाकार की प्रकाशित/अप्रकाशित रचना की चर्चा-आलोचना भी, ताकि साहित्य के क्षेत्र में कदम रख रहे एक युवा रचनाकार की सही साहित्यिक समझ विकसित हो सके और उसके लिए अपने लिखे का सही आकलन, सही परिप्रेक्ष्यों में संभव हो सके - ऐसा उनका सपना था।
(नीला प्रसाद के संस्मरण की अगली किस्त में पढ़ें क्या हुआ शैलजी के सपने का)

Friday, March 13, 2009

फाग और मैं

एक बार फिर
फाग के रंग
एक अनोखी जलतरंग छेड़ कर
लौट गये हैं।
मेरे आंगन में फैले हैं
रंगों के तीखे-फीके धब्बे।


चालीस पिचकारियों की फुहारों से
भींगती रंगभूमि-सी
यह जिंदगी।
और लौट चुके फाग की यादों से
वर्तमान में
एक अंतराल को
झेलती हूं मैं
अपने संग
फाग खेलती हूं मैं।
(शैलप्रिया की यह कविता उनके काव्य संकलन चांदनी आग है से ली गयी है।)

Wednesday, March 11, 2009

अपने संग फाग खलती थीं वे

लेखक परिचय :

आलोचक और कवि प्रफुल्ल कोलख्यान का जन्म मिथिलांचल में हुआ। शिक्षा-दीक्षा कोयलांचल में। नाबार्ड की नौकरी उन्हें ले गयी कोलकाता। जन संस्कृति मंच से लंबे समय तक इनका जुड़ाव रहा। एक कविता पुस्तक प्रकाशित। प्रमुख पत्रिकाओं में विविध विषयों पर कई आलेख चर्चित
शै
लप्रिया हमारे बीच नहीं रहीं, यह जानकर मैं स्तब्ध रह गया था। बीमार थीं, मालूम था। मालूम तो यह भी था कि ठीक हो जायेंगी। भला यह भी कोई उम्र थी दुनिया से चल देने की। किंतु मृत्यु हमेशा से तर्कातीत यथार्थ रही है। बकौल दिनकर मरते कोमल वत्स यहां बचती न जवानी परदेशी। लेकिन मेरे स्तब्ध रहने का कारण शैलप्रिया जी के नहीं रहने की खबर के साथ-साथ अपनी जड़ता और आलस्य के बोध से भी उत्पन्न था। वे मेरी भी आत्मीय थीं। जाहिर है उनसे किये और न किये गये वायदे और विमर्श के तंतु अचानक बिखर गये। संवाद टूट गया। उन्हें कुछ कहा नहीं जा सकता है। उनसे कुछ सुना नहीं जा सकता है। जब कहा-सुना जा सकता था तब, अब-तब और आज-कल में समय गवां बैठा। शैलप्रिया जी के नहीं रहने से समय के एक संदर्भ के खो जाने की पुष्टि के सामने नतमस्तक हूं।

शैलप्रिया कवि थीं। नहीं, इसे इस तरह समझा जाये कि शैलप्रिया कवि हैं। कुछ इस तरह कि शैलप्रिया मां, बहन, भाभी, पत्नी, मौसी, मामी आदि थीं, जो अब नहीं रहीं और शैलप्रिया कवि हैं और सदैव रहेंगी। उन मित्रों के बीच जो न शैलप्रिया को जानते थे और न उनकी कविता को, उनके बीच प्रसंगतः उनका नाम आ जाने से किसी-न-किसी कोने से यह सवाल उछल जाता था 'कैसी कवि?' अब यह बड़ा विचित्र सवाल है, कवि कैसा होता है? या कैसी होती है? काव्य प्रतिभा में भावयित्री और कारयित्री प्रतिभा के दो उपखंड आचार्यों ने बताये हैं। इधर 'भाव' पक्ष थोड़ा कमजोर हुआ है लेकिन 'कार' पक्ष का जोर बढ़ा है। आज 'कार' पक्ष में कार से लेकर कारोबार तक का समावेश हो गया है। जो कविता का जितना बड़ा कारोबारी है, वह उतना ही बड़ा कवि माना जा रहा है। शैलप्रिया कविता की कारोबारी नहीं थीं। उनका 'कार' पक्ष कमजोर था, भाव पक्ष सबल था। हां, चूंकि कविता का कमजोर पक्ष ही उनका सबल पक्ष था इसलिए वे कमजोर कवि थीं। काश कि ऐसे 'कमजोर' कवि हिंदी में अधिक होते। 'मजबूत' कवियों ने जो बंटाधार किया है उस पर फिर कभी।

मैं बताना चाहता हूं कि कुछ संदर्भों में बाह्य और सामाजिक कारणों तथा प्रकृति प्रदत्त क्षमताओं के कारण महिला की हैसियत कुछ भिन्न है। उसके सरोकारों और संवेदनाओं का एक विशिष्ट पक्ष भी है। और जाहिर है इस विशिष्ट पक्ष से उसकी कई कामनाओं, भावनाओं, चिंताओं, क्रियाओं और शक्तियों के प्रभावी संदर्भ तय होते हैं। इसलिए महिला लेखन से गुजरते हुए या उस पर विचार करते हुए जो लोग दया या करुणा और कृपा से परिचालित होते हैं उनकी समझ पर सिर्फ तरस ही खायी जा सकती है। सामाजिक संदर्भों को महत्वपूर्ण माननेवाले हर लेखक को प्रायः सामाजिक इकाई के रूप में परिवार को चिह्नित करना पड़ता है। मेरे परिवार से अपरिचित मित्र जब पूछते हैं कि मेरी पत्नी कहीं काम करती हैं; तो मैं कहता हूं, हां एक प्राथमिक पाठशाला में हेडमास्टर हैं। एक बार एक मित्र ने मुझे पकड़ा और कहा कि घरेलू महिला इतनी बुरी तो नहीं होती है कि आप अपनी पत्नी को झूठ में काम-काजी बताएं?

मित्रो, हम में से सबने बचपन में ही पढ़ा है परिवार सामाजिक जीवन की प्राथमिक पाठशाला है। यह अलग बात है कि बड़े होने पर हम इस 'पाठ' को भूल जाते हैं। मुझे याद है। और मैं मानता हूं कि परिवार सामाजिक स्तर की प्राथमिक पाठशाला है और हर गृहिणी इसकी पदेन और स्वाभाविक 'हेडमास्टर'।

ऐसी ही कुशल हेडमास्टर थीं शैलप्रिया जी। अपनी कलम से सिर्फ शब्दों के सम्यक व्यवस्थापन से कविता को संभव नहीं करती थीं, बल्कि अपनी क्रियाशीलता से हमेशा उस घर की तलाश और निर्माण के लिए मानसिक और वैचारिक यात्राएं किया करती थीं जिसे प्या का नीड़ कहा जा सके।

महिला लेखन में व्यापक परिवार (घर) बोध के संवेदनागत जागतिक विस्तार के कारण अपनी बहुआयामी विवृति के साथ रिश्तों की जिन सतहों और स्तरों के उद्घाटन की क्षमता रहती है और उससे जो परिवार-मूल्य उपजते हैं उसकी विशेष तलाश के क्रम में मैं महिला लेखन के अतिरिक्त महत्व को स्थापित करने का आग्रह करता हूं, और पाता हूं कि विचारकों का ध्यान शैलप्रिया जी की कविताओं पर न जाये तो यह सिर्फ उनकी ही सीमा होगी। सारे संकटों का दुष्प्रभाव घर (परिवार) पर ही पड़ता है। परिवार असुरक्षित होते जा रहे हैं। महिलाएं विशेष रूप से असुरक्षित रही हैं। इस असुरक्षा की गिरफ्त से बाहर निकलने और वसुधा को कुटुंब बनाने के संघर्ष से जो मूल्य बनते हैं, उन्हें शैलप्रिया जी की कविताओं में खोजा जाना चाहिए। महिला का महत्व इस संदर्भ से 'मूल्यकोश' के रूप में भी है। और निश्चित रूप से शैलप्रिया जी जैसी कवि इस 'मूल्यकोश' की साक्षी हैं, प्रमाण भी। और उसके संवर्द्धन-परिमार्जन की कारिका भी।

उनकी कविताओं को उद्धृत करने से जानबूझ कर बचा गया है। उद्धरण जन्मना अपूर्ण होते हैं और अपूर्ण 'असुंदर' होता है। इसीलिए पूरी कविता यहां देने लगूं तो संकलन हो जायेगा। इसलिए उनकी तमाम कविताओं को इस विचार का अनुलग्नक माने जाने के विनम्र प्रस्ताव के साथ अपने संतोष के लिए उनकी एक कविता मैं यहां रख रहा हूं -

एक सांझ
जब तुम नहीं थे पड़ोस में,
चांदनी
सफेद लिफाफों में बंद
खत की तरह
आयी थी मेरे पास।
रजनीगंधा की कलियों की तरह
खुलने लगी थी मेरी प्रतीक्षा
और मुझे लगा था
कि सन्नाटे के तार पर
सिर्फ मेरे दर्द की कोई धुन
बज रही है।
और इसी के साथ उस कवि को प्रणाम जिसने चांदनी में आग का भी संधान किया है।

Sunday, March 08, 2009

जिंदगी का हिसाब

मातृत्व कविता की अगली कड़ी हैं जिंदगी का हिसाब। कल पोस्ट की गई कविता मातृत्व के लिए यहां क्लिक करें। -अनुराग अन्वेषी

हे सखी,
अंगारों पर पांव धर कर
फफोले फूंकती हुई
चितकबरे काले अहसासों
से घिरी हूं।
मगर अब
चरमराई जूतियां उतार कर
नंगे पांव
खुले मैदान में दौड़ना चाहती हूं।

हे सखी,
मौसम जब खुशनुमा होता है
अब भी बज उठते हैं
सलोने गीत,
कच्ची उम्र की टहनियां
मंजरित हो जाती हैं।
यथार्थ की घेराबंदी मापते हैं पांव।

हे सखी,
कब तक चौराहों पर
खड़ी जोड़ती रहूं
जिंदगी का हिसाब?
उम्र
चुकी हुई सांसों का
ब्याज मांगती है।
(शैलप्रिया की कविता 'जिंदगी का हिसाब' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)

मातृत्व

हे सखी,
औरत फूलों से प्यार करती है,
कांटों से डरती है,
दीपक-सी जलती है,
बाती-सी बुझती है।
एक युद्ध लड़ती है औरत
खुद से, अपने आसपास से,
अपनों से, सपनों से।
जन्म से मृत्यु तक
जुल्म-सितम सहती है,
किंतु मौन रहती है।

हे सखी,
कल मैंने सपने में देखा है -
मेरी मोम-सी गुड़िया
लोहे के पंख लगा चुकी है।
मौत के कुएं से नहीं डरती वह,
बेड़ियों से बगावत करती है,
जुल्म से लड़ती है,
और मेरे भीतर
एक नयी औरत
गढ़ती है।
(शैलप्रिया की यह कविता उनके काव्य संकलन चांदनी आग है से ली गयी है।)

Saturday, March 07, 2009

सवाल

क्या होता है किसी स्त्री का दर्द? कैसी होती है उसकी दुनिया? किन सवालों और किन हालातों से जूझती होती है वह? और अयाचित या खिलाफ हालात में कैसी होती है उसकी मनोदशा? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाबों से मैं बार-बार रुबरु होता हूं मां की कविताओं से गुजरते हुए। ऐसा नहीं कि इन सवालों के जवाब सिर्फ मेरी मां की कविताओं में हैं। इन विषयों पर पहले भी खूब लिखी गई हैं कविताएं और आज भी लिखी जा रही हैं। सिर्फ कविताएं ही क्यों, स्त्री के जीवन के ये पहलू तो लेखन की तमाम विधाओं में बार-बार नजर आते हैं। पर सही है कि दूसरी जगहों पर तमाम चीजों को पढ़ते हुए मैं उनसे सिर्फ मानसिक स्तर पर जुड़ा, इन हालातों से उपजे सवाल मन में गहरे नहीं उतरे। गहरे नहीं उतरने की वजह दूसरों का लेखन नहीं, बल्कि मैं हूं। क्योंकि मैंने उन्हें महज पढ़ा, महसूस नहीं किया। पर मां को पढ़ते हुए बातें बड़ी तेजी से मेरे भीतर घर बनाती गईं, क्योंकि मां के लेखन से मैं मावनात्मक स्तर से जुड़ा रहा। चीजों को महसूस करने की कोशिश नहीं की, अनायास ही चीजें महसूस होती गईं और मुझे मेरा अपराध दिखने लगा।

बहरहाल, कल जिंदगी नाम की मां की कविता पोस्ट की थी, उसी कड़ी की अगली कविता है सवाल। -अनुराग अन्वेषी

पिताश्री,
तुमने क्यों
आकाशबेल की तरह
चढ़ा दिया था
शाल वृक्ष के कंधों पर?

मुझे सख्त जमीन चाहिए थी।

अब तक और अब तक
चढ़ती रही हूं
पीपल के तनों पर

नीम सी उगी हुई मैं
फैलती रही है तुम्हारी बेल
जबकि उलझाता रहा यह सवाल
कि मेरी जड़ें कहां हैं?
मेरी मिट्टी कहां है?

कब तक और कब तक
एक बैसाखी के सहारे
चढ़ती रहूं,
झूलती रहूं
शाल वृक्ष के तनों पर।
झेलती रहूं
आंधी, पानी और धूप?
(शैलप्रिया की कविता 'सवाल' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)

जिंदगी

सुबह हो या शाम
हर दिन बस एक ही सिलसिला,
काम, काम और काम...।
जिंदगी बीत रही यूं ही
कि जैसे
अनगिनत पांवों से रौंदी हुई
भीड़ भरी शाम।


सीढ़ियां
गिनती हुई,
चढ़ती-उतरती
मैं
खोजती हूं अपनी पहचान।
दुविधाओं से भरे पड़े प्रश्न।
रात के अंधेरे में
प्रेतों की तरह खड़े हुए प्रश्न।
खाली सन्नाटे में
संतरी से अड़े हुए प्रश्न।
मन के वीराने में
मुर्दों से गड़े हुए प्रश्न।

प्रश्नों से मैं हूं हैरान।
मुश्किल में जान।
जिंदगी बीत रही
जैसे हो भीड़ भरी शाम।
(शैलप्रिया की कविता 'जिंदगी' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)

Tuesday, March 03, 2009

क्रंदन

क्षमा याचना


जब कभी
मोती से सुंदर शब्दों में
तुम्हारा अकेलापन
देखता हूं
शब्द नहीं रह जाते
महज शब्द
बल्कि शूल की तरह
चुभने लगते हैं
मेरा स्वत्व
अचानक अपरिचित हो जाता है
कि तुम्हारा रुदन
मेरी चीख में
तब्दील होता गया है

लेकिन तुम
अब नहीं सुन सकती
मेरी कविताएं/मेरी चीख
ठीक वैसे ही
जैसे मैंने
अनदेखी की हैं
तुम्हारी कविताओं की/तुम्हारे रुदन की
-अनुराग अन्वेषी,
6 फरवरी'95,
रात 1.30 बजे

जहर का स्वाद
चखा है तुमने?
उतना विषैला नहीं होता
जितनी विषैली होती हैं बातें,
कि जैसे
काली रातों से उजली होती हैं
सूनी रातें।

पिरामिडी खंडहर में
राजसिंहासन की खोज
एक भूल है
और सूखी झील में
लोटती मछलियों को
जाल में समेटना भी क्या खेल है?

दंभी दिन
पराजित होकर ढलता है
हर शाम को
और शाम
अंधेरी हवाओं की ओट में
सिसकती है
तो दूर तलक दिशाओं में
प्रतिध्वनित होती है
अल्हड़ चांदनी की चीख।

और मुझमें एक रुदन
शुरू हो जाता है।
(शैलप्रिया की कविता 'क्रंदन' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)