आज
जीना बहुत कठिन है।
लड़ना भी मुश्किल अपने-आप से।
इच्छाएं छलनी हो जाती हैं
और तनाव के ताबूत में बंद।
वैसे,
इस पसरते शहर में
कैक्टस के ढेर सारे पौधे
उग आए हैं
जंगल-झाड़ की तरह।
इन वक्रताओं से घिरी मैं
जब देखती हूं तुम्हें,
उग जाता है
कैक्टस के बीच एक गुलाब
और
जिंदगी का वह लम्हा
सार्थक हो जाता है।
(शैलप्रिया की यह कविता उनके काव्य संकलन चांदनी आग है से ली गयी है।)
Sunday, March 29, 2009
सार्थक एक लम्हा
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लेबल कविता, चांदनी आग है, शैलप्रिया
Friday, March 27, 2009
उत्तर की खोज में
एक छोटे तालाब में
कमल-नाल की तरह
बढ़ता मेरा अहं
मुझसे पूछता है मेरा हाल।
मैं इस कदर एक घेरे को
प्यार क्यों करती हूं?
दिनचर्याओं की लक्ष्मण रेखाओं को
नयी यात्राओं से
क्यों नहीं काट पाती मैं?
दर्द को महसूसना
अगर आदमी होने का अर्थ है
तो मैं सवालों के चक्रव्यूह में
पाती हूं अपने को।
मुक्तिद्वार की कोई परिभाषा है
तो बोलो
वे द्वार कब तक बंद रहेंगे
औरत के लिए?
मैं घुटती हुई
खुली हवा के इंतजार में
खोती जाऊंगी अपना स्वत्व
तब शेष क्या रह जाएगा?
दिन का बचा हुआ टुकड़ा
या काली रात?
तब तक प्रश्नों की संचिका
और भारी हो जाएगी।
तब भी क्या कोई उत्तर
खोज सकूंगी मैं?
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 9:07:00 PM 1 प्रतिक्रियाएं
लेबल कविता, चांदनी आग है, शैलप्रिया
Wednesday, March 25, 2009
आधी रात के बाद
आधी रात के बाद
जब तारे ऊंघने लगते हैं,
तब भी कई जोड़ी आंखें
कंटीले पौधों की क्यारी में
भटकती होती हैं।
जब सारा शहर सो रहा होता है,
तब भी कई जोड़ी आंखें
धुंध की कीच में
रास्ते तलाशती होती हैं।
आधी रात तक
जब मन प्राण छटपटाते होते हैं,
तब धुएं से भरी
काली आंखों में
प्यार का बादल नहीं उमड़ता,
कोई स्पर्श
घायल अहसासों पर
कारगर मलहम नहीं बन पाता,
और चोट खाए अहं की तड़प
कील की तरह कसकती होती है।
आधी रात के बाद भी
नींद नहीं आती है कभी-कभी।
और सुबह के इंतजार में
कटती जाती है
प्रतीक्षा भरी बेलाएं।
(शैलप्रिया की यह कविता उनके काव्य संकलन चांदनी आग है से ली गयी है।)
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लेबल कविता, चांदनी आग है, शैलप्रिया
Friday, March 20, 2009
अभिव्यक्ति का अधूरा सफर
नीला प्रसाद
नीला प्रसाद ने संस्मरण की इस आखिरी किस्त में शैलप्रिया की कार्यशैली और उनकी चिंताओं की चर्चा की है।
- अनुराग अन्वेषी
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 12:58:00 AM 1 प्रतिक्रियाएं
Tuesday, March 17, 2009
और इस तरह बन गई 'अभिव्यक्ति'
नीला प्रसाद
अपने संस्मरण के इस हिस्से में नीला प्रसाद बता रही हैं शैलप्रिया के व्यक्तित्व के उस पहलू के बारे में जो सुनता तो सबकी था, पर काम अपनी बुद्धि और अपने विवेक से करता था।- अनुराग अन्वेषी
बाद में बैठक बाहर भी आयोजित करने का निर्णय हुआ और 'सत्य भारती' का कमरा किराये पर लिया जाने लगा। किराया, सदस्यों से प्राप्त चंदे की राशि से दिया जाना था पर शैलजी यह अपनी जेब से दे दिया करती थीं ताकि चंदे से प्राप्त राशि का ज्यादा सार्थक उपयोग हो सके। बैठक में चाय-नाश्ते की व्यवस्था भी खुद ही कर दिया करती थीं। बैठक में आई लड़कियों को वापस लौटने में असुविधा नहीं हो - इसका जिम्मा उन्हें अपना लगता था और कुछेक लड़कियों को घर तक पहुंचवाने के लिए वे गोष्ठी में आये लड़कों के स्कूटर का उपयोग वे उनकी सहमति से कर लिया करती थीं। जिनके लिए किसी स्कूटर या साथ की व्यवस्था नहीं हो पाती उसे अपने पुत्रों से आग्रह करके स्कूटर से घर तक पहुंचवातीं। इस तरह लड़कियां निश्चिंत रहतीं। उन निश्चिंत लिड़कियों में मैं भी शामिल थी।
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 2:03:00 AM 2 प्रतिक्रियाएं
Sunday, March 15, 2009
'अभिव्यक्ति' का अधूरा सफर
लेखक परिचय
नीला प्रसादजन्म और शिक्षा रांची में। भौतिकी प्रतिष्ठा के साथ स्नातक। कार्मिक प्रबंधन और औद्योगिक संबंध में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा। पेशे से कोल इण्डिया लिमिटेड में कार्मिक प्रबंधक। पहली पहचान भी वही है। कुछ बातें हैं, कुछ मुद्दे हैं, कुछ सपने हैं, जो लिखकर अपनी बात करने को उकसाते रहते हैं। गुटबाजियों और ‘वादों’ के माहौल में फिट नहीं बैठते हुए भी, अपना लिखा कुछ कहीं छप जाता है तो अच्छा लगता है। लेखन से उत्पन्न परिवर्तन की रफ्तार इतनी धीमी है कि अपने लिखने को लेकर एक हताशा की स्थिति घेरे रहती है।
बंध जहां आकर्षण-विकर्षण की चुंबकीय रेखाओं से लगातार प्रभावित होते, बनते-बिगड़ते, शक्लें बदलते रहते हों और जहां स्नेह और आदर की मीठी धूप में निरंतर फलते-फूलते, पुख्ता होते रहते हों, उनमें बड़ा अंतर होता है। शैलप्रिया जी से मेरे संबंध भले ही पारिवारिक परिचय की छाया में बने, पर उनके पनपने का आधार निश्चय ही पिछली पीढ़ी से चले आ रहे अतीत के रिश्तों में नहीं थे। वे पनपे और प्रगाढ़ हुए तो आपसी स्नेह, वैचारिक तालमेल और आपसी संपर्क से निरंतर कुछ पाते रहने के सघन अहसासों से।
पहचाने नाम वाली, पर तब तक मेरे लिए कुछ अनपहचाने व्यक्तित्व की शैलप्रिया जी से सात बरस पहले, जब मैं बरसों बाद व्यस्क होने पर फिर से मिली, तब तक वे अपनी रचनात्मक क्षमताओं की 'अभिव्यक्ति' के बहुत सारे पड़ाव तय कर चुकी थीं। कविता की दुनिया ही नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं तथा महिला-समितियों में भी शैलप्रिया का नाम अपनी जगह बना चुका था।
बात वर्ष 1988 की सर्दियों की शुरुआत की है। 'सारिका' में रांची की किसी लड़की का छोटा-सा आत्मकथ्य प्रकाशित हुआ और सारे शहर की सभी छोटी-बड़ी संभावनाओं, प्रतिभाओं को खोज निकालने को उत्सुक, उन्हें विकसित होने में सहयोग देने के उत्साह से छलकते विद्याभूषणजी और शैलजी उस लड़की की खोज में लग गये। वैसे भी वे दोनों उन दिनों रांची में संभावनापूर्ण युवा प्रतिभाओं को 'अभिव्यक्ति' का एक मंच दे सकने के प्रयास में जुटे हुए थे।
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 12:08:00 PM 0 प्रतिक्रियाएं
Friday, March 13, 2009
फाग और मैं
एक बार फिर
फाग के रंग
एक अनोखी जलतरंग छेड़ कर
लौट गये हैं।
मेरे आंगन में फैले हैं
रंगों के तीखे-फीके धब्बे।
चालीस पिचकारियों की फुहारों से
भींगती रंगभूमि-सी
यह जिंदगी।
और लौट चुके फाग की यादों से
वर्तमान में
एक अंतराल को
झेलती हूं मैं
अपने संग
फाग खेलती हूं मैं।
(शैलप्रिया की यह कविता उनके काव्य संकलन चांदनी आग है से ली गयी है।)
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 12:18:00 PM 2 प्रतिक्रियाएं
लेबल कविता, चांदनी आग है, शैलप्रिया
Wednesday, March 11, 2009
अपने संग फाग खलती थीं वे
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 5:28:00 PM 2 प्रतिक्रियाएं
Sunday, March 08, 2009
जिंदगी का हिसाब
मातृत्व कविता की अगली कड़ी हैं जिंदगी का हिसाब। कल पोस्ट की गई कविता मातृत्व के लिए यहां क्लिक करें। -अनुराग अन्वेषी
अंगारों पर पांव धर कर
फफोले फूंकती हुई
चितकबरे काले अहसासों
से घिरी हूं।
मगर अब
चरमराई जूतियां उतार कर
नंगे पांव
खुले मैदान में दौड़ना चाहती हूं।
हे सखी,
मौसम जब खुशनुमा होता है
अब भी बज उठते हैं
सलोने गीत,
कच्ची उम्र की टहनियां
मंजरित हो जाती हैं।
यथार्थ की घेराबंदी मापते हैं पांव।
हे सखी,
कब तक चौराहों पर
खड़ी जोड़ती रहूं
जिंदगी का हिसाब?
उम्र
चुकी हुई सांसों का
ब्याज मांगती है।
(शैलप्रिया की कविता 'जिंदगी का हिसाब' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 11:24:00 PM 1 प्रतिक्रियाएं
लेबल कविता, चांदनी आग है, शैलप्रिया
मातृत्व
हे सखी,
औरत फूलों से प्यार करती है,
कांटों से डरती है,
दीपक-सी जलती है,
बाती-सी बुझती है।
एक युद्ध लड़ती है औरत
खुद से, अपने आसपास से,
अपनों से, सपनों से।
जन्म से मृत्यु तक
जुल्म-सितम सहती है,
किंतु मौन रहती है।
हे सखी,
कल मैंने सपने में देखा है -
मेरी मोम-सी गुड़िया
लोहे के पंख लगा चुकी है।
मौत के कुएं से नहीं डरती वह,
बेड़ियों से बगावत करती है,
जुल्म से लड़ती है,
और मेरे भीतर
एक नयी औरत
गढ़ती है।
(शैलप्रिया की यह कविता उनके काव्य संकलन चांदनी आग है से ली गयी है।)
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 2:04:00 AM 2 प्रतिक्रियाएं
लेबल कविता, चांदनी आग है, शैलप्रिया
Saturday, March 07, 2009
सवाल
क्या होता है किसी स्त्री का दर्द? कैसी होती है उसकी दुनिया? किन सवालों और किन हालातों से जूझती होती है वह? और अयाचित या खिलाफ हालात में कैसी होती है उसकी मनोदशा? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाबों से मैं बार-बार रुबरु होता हूं मां की कविताओं से गुजरते हुए। ऐसा नहीं कि इन सवालों के जवाब सिर्फ मेरी मां की कविताओं में हैं। इन विषयों पर पहले भी खूब लिखी गई हैं कविताएं और आज भी लिखी जा रही हैं। सिर्फ कविताएं ही क्यों, स्त्री के जीवन के ये पहलू तो लेखन की तमाम विधाओं में बार-बार नजर आते हैं। पर सही है कि दूसरी जगहों पर तमाम चीजों को पढ़ते हुए मैं उनसे सिर्फ मानसिक स्तर पर जुड़ा, इन हालातों से उपजे सवाल मन में गहरे नहीं उतरे। गहरे नहीं उतरने की वजह दूसरों का लेखन नहीं, बल्कि मैं हूं। क्योंकि मैंने उन्हें महज पढ़ा, महसूस नहीं किया। पर मां को पढ़ते हुए बातें बड़ी तेजी से मेरे भीतर घर बनाती गईं, क्योंकि मां के लेखन से मैं मावनात्मक स्तर से जुड़ा रहा। चीजों को महसूस करने की कोशिश नहीं की, अनायास ही चीजें महसूस होती गईं और मुझे मेरा अपराध दिखने लगा।
बहरहाल, कल जिंदगी नाम की मां की कविता पोस्ट की थी, उसी कड़ी की अगली कविता है सवाल। -अनुराग अन्वेषी
पिताश्री,
तुमने क्यों
आकाशबेल की तरह
चढ़ा दिया था
शाल वृक्ष के कंधों पर?
मुझे सख्त जमीन चाहिए थी।
अब तक और अब तक
चढ़ती रही हूं
पीपल के तनों पर
नीम सी उगी हुई मैं
फैलती रही है तुम्हारी बेल
जबकि उलझाता रहा यह सवाल
कि मेरी जड़ें कहां हैं?
मेरी मिट्टी कहां है?
कब तक और कब तक
एक बैसाखी के सहारे
चढ़ती रहूं,
झूलती रहूं
शाल वृक्ष के तनों पर।
झेलती रहूं
आंधी, पानी और धूप?
(शैलप्रिया की कविता 'सवाल' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 12:41:00 PM 3 प्रतिक्रियाएं
लेबल कविता, चांदनी आग है, शैलप्रिया
जिंदगी
सुबह हो या शाम
हर दिन बस एक ही सिलसिला,
काम, काम और काम...।
जिंदगी बीत रही यूं ही
कि जैसे
अनगिनत पांवों से रौंदी हुई
भीड़ भरी शाम।
सीढ़ियां
गिनती हुई,
चढ़ती-उतरती
मैं
खोजती हूं अपनी पहचान।
दुविधाओं से भरे पड़े प्रश्न।
रात के अंधेरे में
प्रेतों की तरह खड़े हुए प्रश्न।
खाली सन्नाटे में
संतरी से अड़े हुए प्रश्न।
मन के वीराने में
मुर्दों से गड़े हुए प्रश्न।
मुश्किल में जान।
जिंदगी बीत रही
जैसे हो भीड़ भरी शाम।
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 1:02:00 AM 3 प्रतिक्रियाएं
लेबल कविता, चांदनी आग है, शैलप्रिया
Tuesday, March 03, 2009
क्रंदन
क्षमा याचना
जब कभी
मोती से सुंदर शब्दों में
तुम्हारा अकेलापन
देखता हूं
शब्द नहीं रह जाते
महज शब्द
बल्कि शूल की तरह
चुभने लगते हैं
मेरा स्वत्व
अचानक अपरिचित हो जाता है
कि तुम्हारा रुदन
मेरी चीख में
तब्दील होता गया है
लेकिन तुम
अब नहीं सुन सकती
मेरी कविताएं/मेरी चीख
ठीक वैसे ही
जैसे मैंने
अनदेखी की हैं
तुम्हारी कविताओं की/तुम्हारे रुदन की
-अनुराग अन्वेषी,
6 फरवरी'95,
रात 1.30 बजे
चखा है तुमने?
उतना विषैला नहीं होता
जितनी विषैली होती हैं बातें,
कि जैसे
काली रातों से उजली होती हैं
सूनी रातें।
पिरामिडी खंडहर में
राजसिंहासन की खोज
एक भूल है
और सूखी झील में
लोटती मछलियों को
जाल में समेटना भी क्या खेल है?
दंभी दिन
पराजित होकर ढलता है
हर शाम को
और शाम
अंधेरी हवाओं की ओट में
सिसकती है
तो दूर तलक दिशाओं में
प्रतिध्वनित होती है
अल्हड़ चांदनी की चीख।
और मुझमें एक रुदन
शुरू हो जाता है।
(शैलप्रिया की कविता 'क्रंदन' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)
मॉडरेटर : अनुराग अन्वेषी at 11:40:00 PM 0 प्रतिक्रियाएं
लेबल कविता, चांदनी आग है, शैलप्रिया