उन बनते-बिखरते दिनों में मैंने शैल जी की कविताओं के पार उस स्त्री को देखा जो बिल्कुल मेरी मां जैसी थी।
वामपंथ से शुरुआती परिचय के दिनों में मैं शैल जी और उनके परिवार के बहुत करीब रहा। शायद उनके एक और बेटे की तरह। उन बनते-बिखरते दिनों में मैंने शैल जी की कविताओं के पार उस स्त्री को देखा जो बिल्कुल मेरी मां जैसी थी। दुनिया की सारी स्त्रियों की तरह खामोश। पर, जहां दूसरी औरतों की चुप्पी उनकी यंत्राणा और अवसाद को और गहरा कर देती हैं, वहीं शैल जी की खामोशी उनकी मुखरता को उस गहराई तक ले जाती थी जहाँ निर्मल जल के सोते फूटते हैं। जिंदगी को आश्वस्त करते हुए। खामोशी को मुखर बना देने की कला बहुत सारी स्त्रियां नहीं जानती हैं। शैल जी ने लेकिन इसे अर्जित किया। निःसंदेह विद्याभूषण जी के संग की भी इसमें प्रभावी भूमिका रही। बावजूद इसके खामोशी को कविता में बदल देने का पूरा कला उपक्रम नितांत उनका अपना था। उनकी सभी कविताएं इसी की बानगी हैं।
उनकी पहली प्रकाशित कविता पुस्तक ‘अपने लिए’है। इसके शीर्षक से यही आभास होता है कि शायद इसमें शामिल रचनाएं कवि के निजी अहसासों में गुंथी होंगी। परंतु ऐसा नहीं है। एक स्त्री के निजी अहसास कैसे सामाजिक ताने-बाने को अपनी इच्छाओं से रंगते हैं और उसका पुराना रूप बदलने की कोशिश करते हैं, यह हम ‘अपने लिए’ की कविताओं में बहुत ही साफ-साफ देख सकते हैं। उनका दूसरा कविता संकलन ‘चांदनी आग है’ अपने लिए के अर्थ को, उनके कविता कर्म को, घर-परिवार और समाज को समझने की दृष्टि को, भारतीय स्त्री के मुक्कमिल इंसान होने के संघर्ष को पूरी सुघड़ता और परिपक्वता के साथ उद्घाटित करता है। अपने लिए में वे जहां समाज को समझते हुए खुद की स्त्री को तैयार करती दिखती हैं, वहीं चांदनी आग है में उनके भीतर की समझदार स्त्री सुलगती हुई नदी में रूपांतरित हो जाती है। भाव, भाषा, शैली और कहन की दृष्टि से चांदी आग है की लगभग सभी कविताओं में शैली जी का निजपन दुनिया की सभी स्त्रियों का लोकगीत बन जाता है।
हमारे समाज में कोई भी स्त्री एक ही साथ अनेक मोर्चों पर जूझती है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि उसे जूझना ही होता है। शैल जी इससे अलग नहीं थीं। तब के बिहार-झारखंड का रहनेवाला और हिंदी साहित्य से जुड़ा रांची आनेवाला शायद ही कोई लिखने-पढ़ने वाला व्यक्ति हो, जो उनसे नहीं मिला हो। इसमें राजनीतिक और मीडिया के लोगों को जोड़ दें, तो मिलनेजुलने वाले लोगों का दायरा और विस्तारित हो जाता है। हांलाकि अधिकतर लोग विद्याभूषण जी से मिलने आते थे, पर वे जब लौट रहे होते तो शैली जी का शांत लेकिन बौद्धिक व्यक्तित्व भी उनके साथ होता था। घर आये मेहमान का ख्याल रखने वाली विद्याभूषण जी की पत्नी शैलप्रिया से कहीं ज्यादा कवयित्री शैल जी की छवि मन में घर कर जाती थी।
मेरी स्मृतियों में उनकी कई छवियां है, लेकिन सुलगती नदी के रूप में वे मुझे सबसे ज्यादा याद आती हैं। यह नदी उनकी खामोश आंखों में लगातार ठाठें मारती रहती थी। उमड़ती-घुमड़ती रहती थी भारतीय स्त्री चेहरे पर काबिज सामंती अवशेषों को बहा कर दूर फेंक देने के लिए। मैंने देखा है उनकी आंखों में समाज की भाषा के व्याकरण का स्त्री-पाठ। सुलगती हुई नदी का यह स्त्री-पाठ शैल जी की पंक्तियों में देखिए - आधी रात के बाद भी/नींद नहीं आती है कभी-कभी।/और सुबह के इंतजार में/कटती जाती है/प्रतीक्षा भरी बेलाएं।
सुलगती हुई नदी पर अभी इतना ही। शेष फिर ...