'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Saturday, February 14, 2009

गूलर के फूल

एक समय था

जब मेरे भीतर उग आये थे
गूलर के फूल।

एक समय था
जब सतरंगे ताल की
झिलमिलाती रोशनी
भर देती थी
मुझमें रंग।

अब कहां है
वह मौसम?
और वह फूल और गंध?

जिंदगी की पठारी जमीन
सख्त होती जा रही है।
इसमें फूल नहीं उगते,
कैक्टस उगते हैं अनचाहे।

सहज होना बहुत मुश्किल है आज
उतना ही, जितना
खोज लेना
गूलर के फूल।

2 comments:

  1. जिंदगी की पठारी जमीन
    सख्त होती जा रही है।
    इसमें फूल नहीं उगते,
    कैक्टस उगते हैं अनचाहे।

    बहुत बहुत सुंदर कविता ..इसको यहाँ पढ़वाने का शुक्रिया

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