'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

Hindi Roman Gujarati Bangla Oriya Gurmukhi Telugu Tamil Kannada Malayalam

'शेष है अवशेष' पर कमेंट करने के लिए यहां रोमन में लिखें अपनी बात। स्पेसबार दबाते ही वह देवनागरी लिपि में तब्दील होती दिखेगी।

Tuesday, January 13, 2009

इस साल मैं 42 का हो जाऊंगा। मां 48 की थी, जब हम लोगों को छोड़कर गई। जल्द ही मैं उसकी उम्र छू लूंगा। अब समझ में आता है, ज़िंदगी ने उसे कितना कम समय दिया। यह कम समय भी उसने हम लोगों के लिए लगाया। मुझसे तो वह अपनी मृत्यु से साल भर पहले से अलग रही। मैं दिल्ली में था और वह रांची में बैठकर मेरी मुश्किलों और छिटपुट सफलताओं का अंदाजा लगाया करती। मेरी प्रकाशित एक-एक रचना पर वह इतनी खुश होती, जितना अपनी पूरी किताब पर कभी नहीं दिखी। 1 दिसंबर 1994 को वह हमारे बीच से चली गई। उसके आखिरी छह महीने बहुत तकलीफ में गुजरे। यह तकलीफ दर्द रोकने की कोशिश में उसकी काली पड़ गई कुहनियों और कातर होते चेहरे पर भी चली आती। लेकिन वह कभी उसके मन पर छा नहीं सकी। वह बहुत शांत भाव से गई। 14 साल में हम सबका जीवन बहुत बदल गया, उसमें बहुत सारे लोग आ जुड़े- लेकिन मां के नहीं रहने से जो खालीपन है, वह बना हुआ है।

-प्रियदर्शन

मां

-प्रियदर्शन

शा
यद हम सबके भीतर कई-कई दरवाजे होते हैं। हर दरवाजे के पीछे एक दुनिया होती है - हमारे गहरे अनुभवों की दुनिया, हमारी गोपन इच्छाओं की दुनिया, हमारे स्थगित लोगों और विस्मृत आलोकों की दुनिया। इनमें से कुछ दरवाजे सबके लिए खुल जाते हैं, कुछ बहुत कम लोगों के लिए और कुछ शायद किसी के लिए भी नहीं। कुछ ऐसे भी दरवाजे होते हैं, जिनका खुद हमें भी पता नहीं चलता। सहसा कोई पीड़ा आकर उन्हें प्रकाश में ला देती है। ये दरवाजे उस दुनिया के होते हैं जहां निर्वासित स्वप्न जीते हैं, जहां निजी इच्छाएं सोती हैं।

लेकिन इन दरवाजों पर अक्सर हमारा वश नहीं चलता। कोई दबी हुई पीड़ा सिर उठाती है और एक दरवाजा खोल देती है। पीड़ा को भी बाहर की हवा चाहिए होती है ताकि उसका हरापन बना रहे।
मेरे भीतर एक दरवाजा बार-बार खुलने को होता है और बार-बार मैं उसे बंद करना चाहता हूं।
इस दरवाजे के भीतर की दुनिया में मां है। वह बाहर की दुनिया छोड़ गयी है। हालांकि अब भी मुझे यकीन नहीं होता।

या मैं यकीन करना नहीं चाहता। इसीलिए वह दरवाजा खोलने से डरता हूं। लगता है भीतर एक पानी का रेला है जो मुझे बहाकर ले जायेगा।

कभी-कभी सोचता हूं तो लगता है मां याद करने की चीज नहीं होती। वह हमेशा साथ होती है, एक आश्वस्ति सी, वह इस दुनिया में हो या उस दुनिया में। याद करने से डर लगता है। मन कातर हो जाता है। अकेला और असहाय हो जाने का अहसास...

क्या निर्लिप्त होकर मां के बारे में सोचा जा सकता है? उसे एक लेख का विषय बनाया जा सकता है?
मां में यह गुण था। वह बड़ी तेजी से निर्लिप्त और निस्संग हो जाया करती थी - कम से कम अपनी पीड़ाओं के प्रति। या इस निस्संगता के भी कई स्तर थे। इसकी एक प्रक्रिया थी। शुरू में उसे कोई दुःख बहुत गहरे छूता था, फिर अचानक ताकत जुटाकर वह अपने को वह अपने-आपको उससे काट लेती थी। कम से कम अपने-आपको लेकर, अपनी तकलीफ को लेकर उदासीन हो उठने की यह ताकत उसमें गजब की थी।

...पिछले साल नवंबर में उसे अहसास हो गया ता कि उसे कोई गंभीर रोग है। उसने कभी उसका नाम जानने की कोशिश नहीं की। अपनी कमजोर आवाज मं बस इतना कहा था 'अब हमलोगों को मन मजबूत कर लेना चाहिए...' इस कांपती हुई आवाज में वह सहज मृदु दृढ़ता थी जो उसका निजी गुण रही। वह कभी कातर नहीं हुई। या उसने इस कातरता को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया।

गोकि उसने तकलीफें झेली थीं, पापा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ती रही थी। पापा के तने भंवों और लंबे समय तक पेशानियों पर पड़े रहने वाले बल की खूब-खूब याद है, लेकिन मां ने कभी ऐसे किसी तनाव को स्थायी बनाया हो, याद नहीं है। यह मां की ताकत भी थी और कमजोरी भी। ताकत इसलिए कि अपने इसी गुण की वजह से वह कई छोटी-मोटी चीजों से बड़ी आसानी से ऊपर उठ जाती थी, और कमजोरी इसलिए कि इसी की वजह से वह पर्याप्त आक्रामक और महत्वाकांक्षी नहीं हो पाती थी।

हां, मां महत्वाकांक्षी नहीं थी। ना ही आक्रामक थी। और ऊपर कही गयी अपनी बात मुझे उलटी लग रही है। दरअसल वह महत्वकांक्षी और आक्रामक नहीं थी, इसलिए किसी तनाव को, किसी खिंचाव को बड़ी आसानी से झटक देती थी। आक्रमण और महत्वाकांक्षा शायद पुरुष-तत्व है। स्त्री जब आक्रामक और महत्वाकांक्षी होती है तो शायद, वह अपने भीतर के पुरुष-तत्व को अपना मुख्य तत्व बनाने की कोशिश कर रही होती है। मां ने यह कोशिश कभी नहीं की। करती तो शायद हो ज्यादा ताकतवर होती, मगर तब कुछ दूसरे ढंग की होती।

तब उसमें उतनी करुणा नहीं होती, जितनी थी। यह सिर्फ एक मां की अपने बच्चों के प्रति करुणा नहीं थी। दूसरों का दुःख दूसरों से ज्यादा उसका हो जाता था। एक बहुत बचपन की घटना याद आती है। मेरे कान में एक जख्म था जिसके इलाज के लिए मां के साथ मैं आर.एम.सी.एच जा रहा था। उस दिन टेंपो वालों की मेडिकल के छात्रों के साथ कोई झड़प हुई थी। और इसका खमियाजा हमारे टेंपो वाले को भुगतना पड़ा। हमलोग जैसे ही टेंपो से उतरे, कुछ छात्रों ने उसे घेर लिया और धक्का-मुक्की करते हुए एक-दो तमाचे जड़ दिये। बात आयी-गयी हो गयी। टेंपो वाला गाल सहलाता हुआ निकल गया था। इस घटना ने मां को बिल्कुल स्तब्ध कर दिया था। सहमा हुआ मैं भी था, लेकिन मां उस टेंपो वाले को भूल ही नहीं पा रही थी। आज सोचता हूं तो लगता है कि पता नहीं, उस टेंपो वाले को कितनी चोट पहुंची थी, मगर मां उसकी यंत्रणा कई दिनों तक झेलती रही थी।

शायद यह वही करुणा थी जिसने उसे दूसरे सामाजिक मोर्चों की ओर उन्मुक किया। लेकिन यह एकमात्र वजह नहीं थी। उसके अपने अनुभव भी थे। जिस किशोरगंज में वह आजीवन रही (अपने आखिरी दो महीनों को छोड़कर) वह मध्यवर्गीय और निम्ममध्यवर्गीय आबादी का मिला-जुला मुहल्ला है। इस मुहल्ले के दुःख-सुख आंगन आंगन में पसरते थे। पास-पड़ोस की स्त्रियां आतीं और मां को अपनी परेशानियां बताया करती थीं। पता नहीं, उन्होंने मां में क्या देखा था? शायद वही करुणा, जिसका जिक्र मैं ऊपर कर चुका हूं। लेकिन यह बेबस और लाचार करुणा नहीं थी। यह करुणा एक मानवीय गुस्से में ढल जाती और मां अपने ढंग से प्रतिरोध के तरीके आजमाया करती। किसी का पति पीटता है, किसी के सास-ससुर अच्छा बर्ताव नहीं करते, किसी को गलत ढंग से फंसाने की कोशिश हो रही है, ये शिकायतें मां तक पहुंचतीं तो मां प्रतिकार की मुद्रा में आ जाती। इसी बिंदु से संभवतः नगर के सामाजिक संगठनों से उसका जुड़ाव शुरू हुआ था।


(जारी)

2 comments:

  1. आपकी मां से मिल कर अच्छा लगा।

    ReplyDelete
  2. आलेख बहुत अच्‍छा लगा .....अगली कडी का इंतजार रहेगा।

    ReplyDelete