लेखक परिचय
अश्विनी कुमार पंकज 1964 में जन्म/डॉ. एम. एस.‘अवधेश’ और स्व. कमला देवी के सात संतानों में से एक/1991 से जिंदगी और सृजन के मोर्चे पर वंदना टेटे की सहभागिता/आयुध और अटूट संतोष दो बच्चे/राँची विश्वविद्यालय, राँची से कला स्नातकोतर/पिछले तीन दशकों (सवा दशक राजस्थान के उदयपुर और अजमेर में) से रंगकर्म, कविता-कहानी, आलोचना, पत्रकारिता एवं डाक्यूमेंट्री से गहरी यारी/अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों -प्रिंट, ऑडियो, विजुअल, ग्राफिक्स, परफॉर्मेंस और वेब के साथ जम कर साझेदारी/ पत्र-पत्रिकाओं में और आकाशवाणी राँची एवं उदयपुर से साहित्यिक विधाओं में रचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसारण/झारखण्ड आंदोलन में सघन संस्कृतिकर्म/झारखण्ड एवं राजस्थान के आदिवासी जीवन, समाज, भाषा-संस्कृति, इतिहास और पर्यावरण पर थियेटर, फिल्म और साहित्यिक माध्यमों में विशेष कार्य/फिलहाल झारखण्ड की लुप्तप्राय आदिवासी भाषाओं तथा उनके इतिहास पर सक्रिय. पहला नाटक ‘एक सही निर्णय’ 1983 में/पहली पत्रिका ‘बिदेसिया’ का प्रकाशन-संपादन 1987 में/आदिवासी-देशज थियेटर की स्थापना 1988 में/पहली डॉक्युमेंटरी ‘कहिया बिहान होवी’ (हिन्दी एवं झारखण्ड की क्षेत्रीय भाषा नागपुरी में) 1989-90 में/कविताओं पर पहला रंगमंचीय प्रयोग (हम लड़ेंगे साथी) 1989 में/पहली वेब पत्रिका आरंगन डॉट ओआरजी का निर्माण 1996 में/ देश का पहला आदिवासी वेबपोर्टल (आदिवासी एवं क्षेत्रीय सहित हिंदी-अंग्रेजी 11 भाषाओं में का सृजन 2003 में/झारखण्ड की पहली बायोग्राफिकल फिल्म ‘प्यारा मास्टर’ की रचना 2003 में/झारखंड की एकमात्र लोकप्रिय प्रोफेशनल मासिक नागपुरी पत्रिका ‘जोहार सहिया’ की शुरुआत 2006 में/नब्बे के शुरुआती दशक में जन संस्कृति मंच एवं उलगुलान संगीत नाट्य दल, राँची के संस्थापक संगठक सदस्य. पेनाल्टी कार्नर (कहानी संग्रह), जो मिट्टी की नमी जानते हैं, खामोशी का अर्थ पराजय नहीं होता, युद्ध और प्रेम, भाषा कर रही है दावा (कविता संग्रह), अब हामर हक बनेला (हिंदी कविताओं का नागपुरी अनुवाद), छाँइह में रउद (दुष्यंत की गजलों का नागपुरी अनुवाद) प्रकाशित पुस्तकें/आदिवासी सौंदर्यशास्त्र, हिंदी साहित्यः एक सबाल्टर्न परख (आलोचना), नागपुरी भासा-साहितः सिरजन आउर बिकास, झारखंडी साहित्य का इतिहास (भाषा-साहित्य), एक ‘अराष्ट्रीय’ वक्तव्य (विमर्श), डायरी वाली स्त्री, सैंतालिसवाँ, दूजो कबीर, पहली लड़की (नाटक), रंग-बिदेसिया (व्यक्तित्व) पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य/22 डॉक्युमेंटरी फिल्मों की रचना/28 पूर्णकालिक और 126 मुक्ताकाशी नाटकों का लेखन-निर्देशन/देश भर में सात हजार से अधिक रंगप्रस्तुतियां/मीडिया और थियेटर के लगभग 60 वोर्क्शोप्स का निर्देशन/‘जोहार सहिया’ (मासिक) और पाक्षिक बहुभाषायी अखबार ‘जोहार दिसुम खबर’ का संपादन/2004 से झारखण्ड की 12 आदिवासी एवं क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका ‘झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ के रचनात्मक सलाहकार.
शै
ल जी से मेरा परिचय न तो उनके पति विद्याभूषण जी ने करवाया था और न ही उनके बेटे पराग ने। मेरे और उनके बीच परिचय कराया था उनकी कविताओं ने। उनकी साहित्यिक अभिरूचियों और उनकी वंचित स्त्री दुनिया ने। इस परिचय को संबंध में रूपांतरित होने में जरूर विद्याभूषण जी की भूमिका रही जिसे आगे चलकर और प्रगाढ़ बनाया पराग की दोस्ती ने। शायद इसीलिए मैं उन्हें कभी आंटी नहीं कह सका। वह हमेशा मेरे लिए शैल जी ही बनी रहीं।
वामपंथ से शुरुआती परिचय के दिनों में मैं शैल जी और उनके परिवार के बहुत करीब रहा। शायद उनके एक और बेटे की तरह।
उन बनते-बिखरते दिनों में मैंने शैल जी की कविताओं के पार उस स्त्री को देखा जो बिल्कुल मेरी मां जैसी थी।
वामपंथ से शुरुआती परिचय के दिनों में मैं शैल जी और उनके परिवार के बहुत करीब रहा। शायद उनके एक और बेटे की तरह। उन बनते-बिखरते दिनों में मैंने शैल जी की कविताओं के पार उस स्त्री को देखा जो बिल्कुल मेरी मां जैसी थी। दुनिया की सारी स्त्रियों की तरह खामोश। पर, जहां दूसरी औरतों की चुप्पी उनकी यंत्राणा और अवसाद को और गहरा कर देती हैं, वहीं शैल जी की खामोशी उनकी मुखरता को उस गहराई तक ले जाती थी जहाँ निर्मल जल के सोते फूटते हैं। जिंदगी को आश्वस्त करते हुए। खामोशी को मुखर बना देने की कला बहुत सारी स्त्रियां नहीं जानती हैं। शैल जी ने लेकिन इसे अर्जित किया। निःसंदेह विद्याभूषण जी के संग की भी इसमें प्रभावी भूमिका रही। बावजूद इसके खामोशी को कविता में बदल देने का पूरा कला उपक्रम नितांत उनका अपना था। उनकी सभी कविताएं इसी की बानगी हैं।
उनकी पहली प्रकाशित कविता पुस्तक ‘अपने लिए’है। इसके शीर्षक से यही आभास होता है कि शायद इसमें शामिल रचनाएं कवि के निजी अहसासों में गुंथी होंगी। परंतु ऐसा नहीं है। एक स्त्री के निजी अहसास कैसे सामाजिक ताने-बाने को अपनी इच्छाओं से रंगते हैं और उसका पुराना रूप बदलने की कोशिश करते हैं, यह हम ‘अपने लिए’ की कविताओं में बहुत ही साफ-साफ देख सकते हैं। उनका दूसरा कविता संकलन ‘चांदनी आग है’ अपने लिए के अर्थ को, उनके कविता कर्म को, घर-परिवार और समाज को समझने की दृष्टि को, भारतीय स्त्री के मुक्कमिल इंसान होने के संघर्ष को पूरी सुघड़ता और परिपक्वता के साथ उद्घाटित करता है। अपने लिए में वे जहां समाज को समझते हुए खुद की स्त्री को तैयार करती दिखती हैं, वहीं चांदनी आग है में उनके भीतर की समझदार स्त्री सुलगती हुई नदी में रूपांतरित हो जाती है। भाव, भाषा, शैली और कहन की दृष्टि से चांदी आग है की लगभग सभी कविताओं में शैली जी का निजपन दुनिया की सभी स्त्रियों का लोकगीत बन जाता है।
हमारे समाज में कोई भी स्त्री एक ही साथ अनेक मोर्चों पर जूझती है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि उसे जूझना ही होता है। शैल जी इससे अलग नहीं थीं। तब के बिहार-झारखंड का रहनेवाला और हिंदी साहित्य से जुड़ा रांची आनेवाला शायद ही कोई लिखने-पढ़ने वाला व्यक्ति हो, जो उनसे नहीं मिला हो। इसमें राजनीतिक और मीडिया के लोगों को जोड़ दें, तो मिलनेजुलने वाले लोगों का दायरा और विस्तारित हो जाता है। हांलाकि अधिकतर लोग विद्याभूषण जी से मिलने आते थे, पर वे जब लौट रहे होते तो शैली जी का शांत लेकिन बौद्धिक व्यक्तित्व भी उनके साथ होता था। घर आये मेहमान का ख्याल रखने वाली विद्याभूषण जी की पत्नी शैलप्रिया से कहीं ज्यादा कवयित्री शैल जी की छवि मन में घर कर जाती थी।
मेरी स्मृतियों में उनकी कई छवियां है, लेकिन सुलगती नदी के रूप में वे मुझे सबसे ज्यादा याद आती हैं। यह नदी उनकी खामोश आंखों में लगातार ठाठें मारती रहती थी। उमड़ती-घुमड़ती रहती थी भारतीय स्त्री चेहरे पर काबिज सामंती अवशेषों को बहा कर दूर फेंक देने के लिए। मैंने देखा है उनकी आंखों में समाज की भाषा के व्याकरण का स्त्री-पाठ। सुलगती हुई नदी का यह स्त्री-पाठ शैल जी की पंक्तियों में देखिए - आधी रात के बाद भी/नींद नहीं आती है कभी-कभी।/और सुबह के इंतजार में/कटती जाती है/प्रतीक्षा भरी बेलाएं।
सुलगती हुई नदी पर अभी इतना ही। शेष फिर ...