मैं नहीं जानती,
बह गई एक नदी
सुलगती नदी
बहती गई
गर्म रेत अब भी
आंखों के सामने है
इनमें इंद्रधनुष का
कोई रंग नहीं
मेरे अंदर एक नदी
जमती गई
इंद्रधनुष
ताड़ के झाड़ में
उलझ कर रह गया
मेरा मैं उद्विग्न हो कर
दिनचर्या में खो गया
सचमुच
एक सुलगती नदी बह गई
जिंदगी के मुहानों को तोड़ती हुई
बहती गई
गर्म रेत अब भी
आंखों के सामने है
इनमें इंद्रधनुष का
कोई रंग नहीं
मेरे अंदर एक नदी
जमती गई
इंद्रधनुष
ताड़ के झाड़ में
उलझ कर रह गया
मेरा मैं उद्विग्न हो कर
दिनचर्या में खो गया
सचमुच
एक सुलगती नदी बह गई
जिंदगी के मुहानों को तोड़ती हुई
-अनुराग अन्वेषी,
11 फरवरी'95,
दिन के 2 बजे
कब से
मेरे आस-पास
एक सुलगती नदी
बहती है।
सबकी आंखों का इंद्रधनुष
उदास है
अर्थचक्र में पिसता है मधुमास।
मैं देखती हूं
सलाखों के पीछे
जिंदगी की आंखें
आदमियों के समंदर को
नहीं भिगोतीं।
उस दिन
लाल पाढ़ की बनारसी साड़ी ने
चूड़ियों का जखीरा
खरीदा था,
मगर सफेद सलवार-कुर्ते की जेब में
लिपस्टिक के रंग नहीं समा रहे थे।
मैं नहीं जानती,
कब से
मेरे आस-पास बहती है
एक सुलगती नदी।
(शैलप्रिया की यह कविता उनके काव्य संकलन चांदनी आग है से ली गयी है।)
बहुत सुन्दर रचनाएं प्रेषित की हैं।आभार।
ReplyDeleteउस दिन
ReplyDeleteलाल पाढ़ की बनारसी साड़ी ने
चूड़ियों का जखीरा
खरीदा था,
मगर सफेद सलवार-कुर्ते की जेब में
लिपस्टिक के रंग नहीं समा रहे थे।
मैं नहीं जानती,
कब से
मेरे आस-पास बहती है
एक सुलगती नदी।
बेमिसाल ......अद्भुत !
मैं नहीं जानती,
ReplyDeleteकब से
मेरे आस-पास बहती है
एक सुलगती नदी।
एक और अनमोल रचना पढने को मिली इस खजाने से ...भाव बहुत सुन्दर हैं इस के ..
बस यही कह पा रही हूं कि सभी रचनाओं की तरह यह भी पिछली से बढ़ कर..पिछली से अधिक संवेदनशील..पिछली से ज्यादा सच्ची..पिछली से ज्यादा अपनी सी..पिछली से ज्यादा करीब है यह। साथ ही मां की कविताओं पर समानांतर चलने वालीं थीम को पकड़े हुए आपकी रचना भी अच्छा अंदाजेबयां है...
ReplyDeletesabki aakhon ka .....
ReplyDeletemadhumaas.---bahut sachchi si lagi ye paktiyaan.