'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Thursday, January 22, 2009

सूरज और मैं

समीकरण

पुराणपंथी परंपराएं टूटती हैं।
घुन खाए संस्कार की लाठी के सहारे
लगातार चल नहीं सकता कोई
यह तो तय है
किंतु बिल्ली के गले में
घंटी कौन बांधे - जैसे प्रश्न
अक्सर हमें
हमारी औकात बता देते हैं
कि हम
सिर्फ ढोल और नगाड़े की थाप पर
थिरक सकते हैं
डंके की चोट पर
सच कहने का हौसला
हमारे भीतर नहीं
तो फिर
उपमाओं से लदे सूरज
को पुराणपंथी कैसे कहूं?

-अनुराग अन्वेषी, 10 फरवरी'95,
रात 10.25 बजे

विरासत में मिला
संस्कार
किसी लेबल की तरह
चिपक जाता है हरबार।
कि चिड़ियों के अजायबघर में
बिल्ली को देखा था
रोते,
अपना दुख-दर्द बांटते।

समय
कितना परिवर्तनशील है,
यह जाना था तुमसे,
कि तुम्हें किया था प्यार
दहकते उजालों से भरपूर।

एक प्रश्न कुरेदता है बार-बार।
यह अहसास
कि
उपमाओं से लदा सूरज
पुराणपंथी है,
रास्ते नहीं बदलता,
लकीर का फकीर है
मेरी तरह।

(शैलप्रिया की कविता 'सूरज और मैं' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)

2 comments:

  1. समय
    कितना परिवर्तनशील है,
    यह जाना था तुमसे,
    कि तुम्हें किया था प्यार
    दहकते उजालों से भरपूर।

    पूरी कविता बहुत सुंदर है यह पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी ..और भी इस संकलन से कविता पढ़वाते रहे ..इसको यहाँ देने का शुक्रिया

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  2. शब्द नहीं हैं अभार जताने के लिए...आपने इतने बेहतरीन ब्लाग से रुबरु होने के मौका दिया

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