'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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'शेष है अवशेष' पर कमेंट करने के लिए यहां रोमन में लिखें अपनी बात। स्पेसबार दबाते ही वह देवनागरी लिपि में तब्दील होती दिखेगी।

Friday, March 20, 2009

अभिव्यक्ति का अधूरा सफर

नीला प्रसाद

नीला प्रसाद ने संस्मरण की इस आखिरी किस्त में शैलप्रिया की कार्यशैली और उनकी चिंताओं की चर्चा की है।

- अनुराग अन्वेषी

बै

ठक शुरू होने से पहले और बाद, सदस्य उनसे अपनापे से बात करते और अपनी समस्याएं रखते थे, जिनके समाधान को वे हमेशा प्रस्तुत रहतीं। 'सत्य-भारती' में 'पाश' और 'सफदर-हाशमी' को समर्पित बैठकें भी हुईं और ऐसी बैठकें भी जिनमें रचनाकार विशेष ने अपनी रचना (कहानी/कहानियां या कविताएं) सुनाई और किसी वरिष्ठ आलोचक समेत, बैठक में उपस्थित सदस्यों ने उस पर टिप्पणियां भी कीं। स्थिति ऐसी भी आई कि गिने-चुने सदस्य ही बैठक में उपस्थित हो पाये और ऐसी भी कि अतिरिक्त कुर्सियों की व्यवस्था करनी पड़ी। शैलजी बैठकों में लगभग हरबार सबसे पहले आतीं - फिर एक-एक कर अन्य सदस्य प्रकट होते। वे हर एक से अलग-अलग हाल पूछतीं, प्रोत्साहन देतीं, कभी रचनाएं प्रकाशन के लिए भेजने की सलाह देतीं पर बैठक शुरू होते ही वे 'कोई और' हो जातीं - कम-से-कम बोलतीं, आग्रह करने पर ही अपनी रचनाएं सुनातीं। सुनातीं भी तो इस भाव से मानों उनकी रचनाओं का महत्व आंकने की कोई जरूरत नहीं है। फिर भी, एक सहज-सरल, स्नेहिल, घरेलू महिला के उनके बाहरी आवरण को भेदकर अंदर से उस जुझारू, बेचैन, नारी जीवन की रूढ़िगत छवि और परंपरागत जीवन के विरुद्ध खड़ी महिला की छवि उनकी रचनाओं से झलकने ही लगती। हम सब प्रशंसा करते तो वे मृदु मुस्कान समेटे विनम्रता से कहतीं - बस ऐसे ही लिख डाली थी।


पर शैलजी प्रसन्न नहीं थीं। भले ही 'अभिव्यक्ति' अपनी वर्षगांठें मना चुकी थी पर बैठकें नियमित रूप से हो नहीं पा रही थीं और उसके कार्यकलापों का भी विस्तार नहीं हो पा रहा था। वे अक्सर अपनी चिंता और बेचैनी फोन पर जाहिर करतीं। अभी कई योजनाएं कार्यरूप दिये जाने के इंतजार में दिमाग में ही थीं कि शैलजी बीमार पड़ गयीं। थोड़े दिनों के इलाज के पश्चात पता चला कि उनका ऑपरेशन करना पड़ेगा। 'अभिव्यक्ति की बैठकों का क्या होगा?' उन्होंने मुझे फोन किया। 'पहले आप स्वस्थ तो हो लें' मैंने अपनी राय जतायी पर फोन के दूसरे सिरे पर बेचैनी व्याप्त थी मानों स्वास्थ्य खराब हो जाने में उन्हीं का कोई दोष हो। साहू नर्सिंग हो में जिस दिन उनका ऑपरेशन होना था उस दिन दफ्तर से भोजनावकाश में निकलकर मैं उनसे मिली। वे ऑपरेशन थियेटर में ले जाये जाने का इंतजार कर रही थीं। दूसरे ऑपरेशनों को मिलाकर यह उनका चौथा ऑपरेशन था और वे आशंकित थीं कि कहीं यह जीवन का अंत तो नहीं? उस दिन उन्होंने अपने अतीत की, भविष्य की योजनाओं, जिसमें 'अभिव्यक्ति' भी शामिल थी और व्यक्तिगत इच्छाओं की कई बातें कीं - उनमें वैसी इच्छाएं भी शामिल थीं जिनके बारे में निर्देश था कि वे न रहें तो उनके घर ये बातें बता दी जायें। जब मैं भावनाओं की तरलता में डूबी हुई लौट रही थी तब भोजनावकाश कब का समाप्त हो चुका था। पर सौभाग्य से उनकी आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं और ऑपरेशन सफल हुआ।


वे स्वस्थ हुईं और एमए की तैयारी के साथ-साथ 'अभिव्यक्ति' को पुनर्जीवित करने के प्रयासों में जुट गयीं। उनके आवास पर दो-एक सफल बैठकें हुईं, फिर से भविष्य की योजनाएं बनीं। वक्त के हाथों छले जाने को प्रस्तुत हमने, 'अभिव्यक्ति' को लेकर एक बार और सपने देखे - बैठक के दौरान रसोई के साथ-साथ चाय बनाते हुए 'अभिव्यक्ति' को एक अलग तरह की साहित्यिक संस्था बनाने के संकल्प दुहराए गये। पर किसे पता था कि 'अभिव्यक्ति' का सफर अधूरा ही समाप्त होने को था।


शैलजी थोड़े अंतराल के बाद ही पुनः बीमार हो गयीं; अबकी कभी ठीक न होने को। वे लंबे समय तक बीमार रहीं और 'अभिव्यक्ति' जो एक तरह से उनके बूते ही चला करती थी, ठप पड़ गयी। जब मैं 24 जून 94 को प्रियदर्शन के जन्मदिन पर उनसे अंतिम बार मिली तब भी व्यक्तिगत और पारिवारिक बातों के साथ-साथ हमारे सपनों में निरंतर फलती-फूलती 'अभिव्यक्ति' के ठप पड़ जाने पर खेद उन्होंने व्यक्त किया था और स्वस्थ होते ही उसे फिर से शुरू करने की इच्छा प्रकट की थी। उसके बाद से बस उनका अंतिम फोन ही मिला - कि वे दिल्ली जा रही हैं और पता नहीं वहां से लौटें, न लौटें तो मुझसे मिलना चाहती हैं। मैंने उनके कहने को बिल्कुल हल्के ढंग से लिया और कहा कि जब इस तरह की आशंका उनके मन में है तब तो मैं उनके दिल्ली से वापस आने पर ही मिलूंगी। बाद में जब-तब हूक उठती रही कि मुझे सारे काम छोड़कर भी उनसे मिलना चाहिए था। जब सुना कि वे बहुत बीमार हैं तो दिल्ली जाने का प्रोग्राम बनाया पर नियति को यह मुलाकात मंजूर नहीं थी। मेरे दिल्ली पहुंचने के पांच दिन पहले ही वे अपनी तमाम चाहतों, सपनों और चिंताओं समेत चिर-निद्रा में चली गयीं - अपनी 'अभिव्यक्ति' का सफर अधूरा छोड़कर।

1 comment:

  1. प्रिय मित्र
    सादर अभिवादन
    आपके ब्लाग पर बहुत ही सुंदर सामग्री है। इसे प्रकाशनाथ्ज्र्ञ अवश्य ही भेंजे जिससे अन्य पाठकों को यह पढ़ने के लिए उपलब्ध हो सके।
    अखिलेश शुक्ल
    संपादक कथा चक्र
    please visit us--
    http://katha-chakra.blogspot.com

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