लेखक परिचय
नीला प्रसाद जन्म और शिक्षा रांची में। भौतिकी प्रतिष्ठा के साथ स्नातक। कार्मिक प्रबंधन और औद्योगिक संबंध में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा। पेशे से कोल इण्डिया लिमिटेड में कार्मिक प्रबंधक। पहली पहचान भी वही है। कुछ बातें हैं, कुछ मुद्दे हैं, कुछ सपने हैं, जो लिखकर अपनी बात करने को उकसाते रहते हैं। गुटबाजियों और ‘वादों’ के माहौल में फिट नहीं बैठते हुए भी, अपना लिखा कुछ कहीं छप जाता है तो अच्छा लगता है। लेखन से उत्पन्न परिवर्तन की रफ्तार इतनी धीमी है कि अपने लिखने को लेकर एक हताशा की स्थिति घेरे रहती है।
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बंध जहां आकर्षण-विकर्षण की चुंबकीय रेखाओं से लगातार प्रभावित होते, बनते-बिगड़ते, शक्लें बदलते रहते हों और जहां स्नेह और आदर की मीठी धूप में निरंतर फलते-फूलते, पुख्ता होते रहते हों, उनमें बड़ा अंतर होता है। शैलप्रिया जी से मेरे संबंध भले ही पारिवारिक परिचय की छाया में बने, पर उनके पनपने का आधार निश्चय ही पिछली पीढ़ी से चले आ रहे अतीत के रिश्तों में नहीं थे। वे पनपे और प्रगाढ़ हुए तो आपसी स्नेह, वैचारिक तालमेल और आपसी संपर्क से निरंतर कुछ पाते रहने के सघन अहसासों से।
पहचाने नाम वाली, पर तब तक मेरे लिए कुछ अनपहचाने व्यक्तित्व की शैलप्रिया जी से सात बरस पहले, जब मैं बरसों बाद व्यस्क होने पर फिर से मिली, तब तक वे अपनी रचनात्मक क्षमताओं की 'अभिव्यक्ति' के बहुत सारे पड़ाव तय कर चुकी थीं। कविता की दुनिया ही नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं तथा महिला-समितियों में भी शैलप्रिया का नाम अपनी जगह बना चुका था।
बात वर्ष 1988 की सर्दियों की शुरुआत की है। 'सारिका' में रांची की किसी लड़की का छोटा-सा आत्मकथ्य प्रकाशित हुआ और सारे शहर की सभी छोटी-बड़ी संभावनाओं, प्रतिभाओं को खोज निकालने को उत्सुक, उन्हें विकसित होने में सहयोग देने के उत्साह से छलकते विद्याभूषणजी और शैलजी उस लड़की की खोज में लग गये। वैसे भी वे दोनों उन दिनों रांची में संभावनापूर्ण युवा प्रतिभाओं को 'अभिव्यक्ति' का एक मंच दे सकने के प्रयास में जुटे हुए थे।
इस परिप्रेक्ष्य में आत्मकथ्य लिखने वाली लड़की की तलाश शुरू हुई थी। अल्प प्रयासों के बाद ही पता चला कि लड़की तो 'अपने घर की' ही है। इस अप्रत्याशित तलाश में वह लड़की यानी मैं सुखद आश्चर्य में डूब गयी। सहज-सरल शैलजी के स्नेह की छाया में तुरंत ही समेट लिए जाने से तुष्ट और गर्वित हुई, उनके व्यक्तित्व के आंतरिक आकर्षण से बिंध गई।
मुलाकात के बाद से नयी संस्था के बारे में हो रहे विचार-विमर्शों की जानकारियां मुझे शैलजी देती रहीं - ज्यादातर फोन पर - क्योंकि हम जल्दी-जल्दी मिल पाते नहीं थे; मैं कार्यालय की व्यस्तताओं और आलस्य के कारण तथा शैलजी गृहस्थी, लेखन, विभिन्न संस्थाओं से जुड़ी जिम्मेदारियों के कारण। फोन पर हम देर तक बतियाते (तब रांची में एक कॉल की समय-सीमा निर्धारित भी नहीं थी) - संस्था के स्वरूप के बारे में, उसके उद्देश्यों, उसके नाम के बारे में; साहित्य, परिवार और अपनी घटनाओं, सोचों के बारे में। मैं सलाह देने की स्थिति में कम ही होती थी फिर भी अपने मत सामने रख देती थी जिन्हें वे (शायद मेरा मन रखने को) बड़ी गंभीरता से सुनती थीं मानो वे किसी प्रौढ़, अनुभवी व्यक्ति के मत हों।
संस्था के बहाने शैलजी के विचारों, उनकी प्रतिबद्धताओं को धीरे-धीरे जानना शुरू किया। संस्था उनके मस्तिष्क में आकार ग्रहण करने लगी थी - स्वरूप से लेकर उद्देश्यों तक में। वैसे तो उन दिनों शहर में साहित्यिक संस्थाओं का अकाल नहीं था और न ही गतिविधियों के क्षेत्र में नितांत सन्नाटा, परंतु नयी संस्था को वे 'कुछ अलग', 'कुछ विशिष्ट', 'कुछ ज्यादा सार्थक', 'वृहत्तर उद्देश्यों वाली' बनाना चाहती थीं। संस्था ऐसी हो जहां अनुभवी, वरिष्ठ लोगों की रचनाएं भी सुनी जायें और किसी नयी पौध की पहली रचना भी, ताजा प्रकाशित राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित रचना की बारीकियों की चर्चा आलोचना भी हो और किसी स्थानीय रचनाकार की प्रकाशित/अप्रकाशित रचना की चर्चा-आलोचना भी, ताकि साहित्य के क्षेत्र में कदम रख रहे एक युवा रचनाकार की सही साहित्यिक समझ विकसित हो सके और उसके लिए अपने लिखे का सही आकलन, सही परिप्रेक्ष्यों में संभव हो सके - ऐसा उनका सपना था।
(नीला प्रसाद के संस्मरण की अगली किस्त में पढ़ें क्या हुआ शैलजी के सपने का)
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