स में प्रबंधकीय चिंताओं के समांतर एक दूसरे तरह का दायित्व भी उठा लिया था उन्होंने। प्रेस के स्थायी कर्मचारी प्रायः पांच हुआ करते थे, मगर ओवरटाइम के लिए बुलाये गये कर्मचारियों की संख्या कभी बढ़कर दस-ग्यारह भी पहुंच जाती थी। वे अपने कर्मचारियों का ख्याल भी रखतीं, उनके घर-परिवार की समस्याओं में व्यक्तिगत रुचि भी लेतीं। इसलिए कर्मचारियों में, एक बुजुर्ग कंपोजीटर रमा शंकर सिंह उर्फ महाशय जी को छोड़कर, किसी ने उन्हें 'दीदी' के सिवा दूसरा कोई संबोधन नहीं दिया, चाहे वे सीताराम, बदरीकांत झा, अनिल चतुर्वेदी, राजनारायण सिंह, सुरेश राय जैसे पुराने आरंभिक दिनों के कर्मचारी हों या बदरी मल्लिक, उमेश प्रसाद, अशोक, अरुण, बिंदेश्वरी जैसे कभी-कभार संकटकाल के मददगार लोग या हेमंत बरियार, विजय प्रसाद, शत्रुघ्न, नंदलाल, नरेश जैसे बाद के मुलाजिम हों।
इस दौरान उन्होंने खोया भी कम नहीं। उनका इत्मीनान खत्म हुआ और शांति क्षतिग्रस्त हुई। प्रेस की स्थापना से लेकर बंदी के तेरह-चौदह वर्षों के दरम्यान कुल मिलाकर साधनों-संसाधनों में वृद्धि अवश्य होती गई, सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढ़ी, लेकिन उनके गहने भी बिक गये, साड़ियों की खरीदारी अंटकती रही, ऊनी कपड़ों की खरीदारी 'अगले जाड़े' तक मुल्तवी होती रही, नये साल पर पिकनिक-यात्राओं के कार्यक्रम हरबार स्थगित होते रहे। बच्चों के खिलौने नहीं खरीदे गये, त्योहारों के रंग फीके हुए। छुट्टी-अवकाश में मनचाहा समय बिताने के अवसर कम मिले।
ठेके में काम करने वाले जिल्दसाज इसहाक से भी यही सरोकार रहा। शैलप्रिया का यह अपनापा काम छोड़कर हटने वालों के साथ भी हमेशा बना रहा। उनकी उदार सहभागिता अपने निकट-दूर के पड़ोसियों के साथ भी ताउम्र निभती रही।
प्रेस संचालन के अनुभवों ने शैलप्रिया को परिपक्व बनाया। सबसे बड़ा फर्क तो यह पड़ा कि उनका अंतर्मुखी स्वभाव समाजोन्मुखी हुआ। व्यवसाय के तनावों, पूंजी, कागज, स्याही की कभी-कभी पड़ जाने वाली कमी, मशीनों की टूट-फूट और मरम्मत, काम की मंदी की अवधि, कर्मचारियों की समस्याएं, निर्धारित समय पर डेलिवरी का संकट, बिजली की आंख मिचौनी, भागमभाग, घर-प्रेस साथ होने के कारण मुलाकातियों का असमय आना-जाना, शारीरिक-मानसिक थकान और इन सबके एवज में अपने लिए अलग से कुछ बचा पाने का अर्थाभाव - इन सब परिस्थितियों में धीरे-धीरे उनके उत्साह में कमी आयी। प्रेस की समस्याएं पति-पत्नी के बीच जब-तब तनाव बुन देती थीं। यह भी उचाटपन का एक कारण रहा।
इस दौरान उन्होंने खोया भी कम नहीं। उनका इत्मीनान खत्म हुआ और शांति क्षतिग्रस्त हुई। प्रेस की स्थापना से लेकर बंदी के तेरह-चौदह वर्षों के दरम्यान कुल मिलाकर साधनों-संसाधनों में वृद्धि अवश्य होती गई, सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढ़ी, लेकिन उनके गहने भी बिक गये, साड़ियों की खरीदारी अंटकती रही, ऊनी कपड़ों की खरीदारी 'अगले जाड़े' तक मुल्तवी होती रही, नये साल पर पिकनिक-यात्राओं के कार्यक्रम हरबार स्थगित होते रहे। बच्चों के खिलौने नहीं खरीदे गये, त्योहारों के रंग फीके हुए। छुट्टी-अवकाश में मनचाहा समय बिताने के अवसर कम मिले। पांच स्थायी कर्मचारियों के छोटे-से वर्कशॉप में भी फैक्टरी एक्ट की जरूरी सहूलियतें - बोनस, छुट्टी, सवेतन छुट्टी, ओवरटाइम, वार्षिक वेतन वृद्धि, समयबद्ध भुगतान - जुटाना आसान काम नहीं था।
जबकि हर साल मंदी के महीने में प्रेस घाटे में चलता था - काम की कमी, पूंजी का अभाव, बिजली संकट, परिचितों-मित्रों की उधारी और जरूरतमंद लोगों की यथासंभव सहायता जैसे काम भी नहीं छूटे कभी। विद्याभूषण की नौकरी की तनख्वाह भी प्रेस में लग जाती।
प्रेस संचालन में कभी-कभार हो जानेवाली असावधानियों के लिए उन्होंने पति की आलोचनाएं भी झेलीं। व्यावसायिक तनावों को दांपत्य तनावों का कारम मानकर उन्होंने प्रेस-प्रबंध से हाथ खींच लेने का फैसला किया। तब तक इतनी देर हो चुकी थी कि आर्थिक स्वावलंबन के लिए नौकरी के द्वार बंद हो चुके थे। पति की भूमिका कभी दफ्तर के बॉस की तरह हो जाती, कभी गुरुकुल के शिक्षक की तरह। तब कभी छोटे-छोटे मुद्दों पर भी नसीहतों की बेमौसम बरसात हो जाती। किसी काम के गुण-दोष की खामियों-खूबियों का घिसापिटा रेकॉर्ड बजने लग जाता। वे नीलकंठ भाव से ये गरल पी जातीं।
नतीजा रहा कि शैलप्रिया के हाथ में कभी किसी महीने घरखर्च के लिए कोई एकमुश्त रकम शायद ही आ पायी हो। घर चलता रहा - दिक्कतों में चलता रहा। बेशक, इन सभी मुश्किलों का सामना उन्होंने अकेले नहीं किया, विद्याभूषण की समझदारी और साझेदारी भी मिली उन्हें। लेकिन इच्चाओं को तो घुटना ही था, मंसूबों-इरादों को तो हमेशा धक्के पड़ते ही रहे, सपनों-चाहतों को 'फिर कभी' के अंधेरे कोनों में सिमटना ही पड़ा। अपने लिए साधन, समय, सुविधा, विश्राम, इत्मीनान, सुकून नहीं निकाल पायीं शैलप्रिया, इसमें कोई त्युक्ति नहीं है।
प्रेस संचालन में कभी-कभार हो जानेवाली असावधानियों के लिए उन्होंने पति की आलोचनाएं भी झेलीं। व्यावसायिक तनावों को दांपत्य तनावों का कारम मानकर उन्होंने प्रेस-प्रबंध से हाथ खींच लेने का फैसला किया। तब तक इतनी देर हो चुकी थी कि आर्थिक स्वावलंबन के लिए नौकरी के द्वार बंद हो चुके थे। पति की भूमिका कभी दफ्तर के बॉस की तरह हो जाती, कभी गुरुकुल के शिक्षक की तरह। तब कभी छोटे-छोटे मुद्दों पर भी नसीहतों की बेमौसम बरसात हो जाती। किसी काम के गुण-दोष की खामियों-खूबियों का घिसापिटा रेकॉर्ड बजने लग जाता। वे नीलकंठ भाव से ये गरल पी जातीं। उन्हें पति की परेशानियों, चिंताओं, तनावों, कठिनाइयों का पूरा अहसास था। वे पति के उस मनोभाव से भी परिचित थीं जहां से यह लावा फूटता था। विद्याभूषण का पिताविहीन बचपन अरक्षा और अभाव में पिसते बीता था। पिता की मृत्यु 42 वर्ष की अवस्था में हुई थी और बड़े भाई का देहावसान सिर्फ 38 वर्ष की आयु में हो गया था। इस कारण उनमें यह आशंका हमेशा घर किये बैठी होती कि वे भी असामयिक मृत्यु के शिकार हो सकते हैं - और वैसा कुछ होने पर उनकी सरल-सीधी, अव्यावहारिक, भावनाशील शैलप्रिया को जीवन की विषण परिस्थितियों से लड़ने के लिए चौकस सावधान बनना चाहिए। विद्याभूषण की असंतुलित टिप्पणियों के पीछे छुपा कातर, निरीह, भावविह्वल चेहरा शैलप्रिया के लिए आत्मीय परिचित बन चुका था। शायद इसीलिए वह सब कुछ चुपचाप सुन लेतीं। अपने साथी की दुर्बलताओं, सीमाओं और भावनाओं को वे अंतरंगता से जानती-समझती थीं। संभवतः इसीलिए कटु क्षणों के अवसाद को धीरज और सहनशीलता के साथ झटक देतीं। यह जीवन की वडंबना ही है कि जिस कल्पित दुर्दिन के लिए विद्याभूषण अपनी शैलप्रिया को 'तैयार' करना चाहते थे, वह सारी 'तैयारी' धरी-रखी रह गयी, शैलप्रिया के किसी काम नहीं आयी।
(जारी)
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