शैलप्रिया की जीवन रेखालेखक परिचय
विद्याभूषण
जन्म : 5 सितंबर 1940
शिक्षा : पीएच. डी. तक
जीविका : अध्यापकी. किरानीगीरी, व्यवसाय, खेती-बारी और पत्रकारिता के सामयिक पड़ावों के बाद समाज, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कई दिशाखोजी गतिविधियों से गुजरते हुए संप्रति सृजन और विचार की शब्द-यात्रा।
प्रकाशित कविता संग्रह : सिर्फ सोलह सफे, अतिपूर्वा, सीढ़ियों पर धूप, मन एक जंगल है, ईंधन चुनते हुए, आग के आस-पास, ईंधन और आग के बीच, बीस सुरों की सदी।
प्रकाशित कहानी संग्रह : कोरस, कोरस वाली गली, नायाब नर्सरी।
प्रकाशित नाटक : आईने में लोग
प्रकाशित आलोचना पुस्तक : वनस्थली के कथा पुरुष, बीसवीं सदी का उत्तरार्ध
प्रकाशित समाजदर्शन : झारखंड : समाज, संस्कृति और विकास
संपादित पुस्तकें : कविताएं सातवें दशक की, प्रपंच, घर की तलाश में यात्रा, महासर्ग, धूमकेतुओं की जन्मपत्री, तीसरी आंख, हारे को हरनाम, काश! यह कहानी होती
संपर्क : प्रतिमान प्रकाशन, किशोर गंज, हरमू पथ, रांची- 834001
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छ लोग कविता लिखते हैं, कुछ लोग कविता जीते हैं और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो कविता जीते भी हैं और लिखते भी हैं। शैलप्रिया ऐसी ही रचनाकार थीं। अपनी हथेलियों की अबूझ रेखाओं को टटोलती हुई उनकी नजर अक्सर जीवन रेखा पर टिक जाती थी जो कलाई पर खत्म होने से पहले क्षतिग्रस्त थी। कई बार रेखा-विशारदों ने उनका ध्यान इस ओर खींचा था। परिणामस्वरूप अक्सर वे अपने बिंदास लहजे में कह देती थीं - 'मुझे अधिक जीना नहीं है।' दुर्योगवश यह सच हुआ।
कई बातें जो अब कही जा सकती हैं, पहले - कुछ पहले सामने आ पातीं तो संभव था, शैलप्रिया के जीवन में कुछ सुखद पल और जुड़े होते। लेकिन जीवन में सब कुछ सबको नहीं मिल पाता और कभी मिलता भी है तो सही समय पर नहीं मिलता। और जो पाने को प्रयत्नशील भी नहीं हो, उसकी नियति तो अजनबीपन से टकराने को अभिशप्त होती ही है।
शैलप्रिया का जन्म रांची के संत बर्नवास अस्पताल में 11 दिसंबर 1946 की रात में हुआ था। उस रात अस्पताल में सात लड़कियों का जन्म हुआ था। उनकी दादी ने पहचान के लिए कलाई में काला धागा बांध दिया था। अपने पांच भाइयों और तीन बहनों में वह सबसे बड़ी थीं। उनका बचपन बड़े लाड़-प्यार में गुजरा था। तभी अपने बचपन की याद खूब आती-सताती थी। पिता श्री मुकुटधारी लाल वन विभाग में मुलाजिम थे और मुख्य वन संरक्षक, बिहार के निजी सहायक पद से सेवा निवृत हुए। दादा मुंशी शीतल प्रसाद पालकोट पालकोट राज के अधीनस्थ कर्मचारी थे और मैनेजर साहब कहलाते थे। वह एक संयुक्त परिवार था, जिसमें दादा के भाइयों के बाल-बच्चों तक विशेष अवसरों पर उपस्थित हुआ करते थे। इस प्रकार, घर-परिवार से भरापुरा रूढ़िवादी माहौल मौजूद था। सबके लाड़-प्यार के बावजूद वह 'बिगड़ी' नहीं तो शायद इसलिए कि वह बेहद सरल, विनम्र और भोली बालिका थी। पुराने लोग यही कहते हैं।
वह बतलाती थीं कि बचपन में सहेलियों को खिलाने के लिए मां से बिना पूछे लड्डू ले जाती थी। लेकिन वह नहीं जानती थी कि छिपाया कैसे जाता है। बस, दोनों हाथों की कैंची पीठ के पीछे ले जाकर घर की ड्योढ़ी से बाहर भागती ताकि मां देख न ले - जबकि नन्हे हाथों में लड्डू दिखता रहता था। वह किसी चीज के लिए जिद नहीं करती थी। अंचार, साग या मट्ठा के साथ भात उस बच्ची का प्रिय भोजन था। सजने-धजने या पहनने-ओढ़ने का कुछ खास शौक नहीं था उसे। जो भी मिला, जितना मिला, वही पर्याप्त था। ऐसी ही थीं शैलप्रिया और उनका बचपन। सीधी-सादी, शांत, संतोषी, गुड़ियों और कल्पनाओं की दुनिया में सिमटी हुई।
शैलप्रिया की स्कूली शिक्षा-दीक्षा छठी कक्षा तक अपर बाजार, रांची स्थित शिवनारायण कन्या पाठशाला में हुई थी। सातवीं से ग्यारहवीं कक्षा तक की शिक्षा गवर्नमेंट गर्ल्स हायर सेकेंडरी स्कूल, बरियातू, रांची में संपन्न हुई जहां सन् 1965 में उन्होंने उच्चतर माध्यमिक परीक्षा में उत्तीर्णता प्राप्त की। उसी वर्ष विवाहोपरांत कॉलेज की पढ़ाई शुरू हुई। वे सन् 65 से सन् 71 तक रांची विमेंस कॉलेज की छात्रा रहीं। जून 67, मई 70 और फरवरी 72 में उनके तीन सीजेरियन ऑपरेशन हुए। इस कारण एमए तक की पढ़ाई रुकती-अंटकती चली। सन् 71 में रांची विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने स्नातकोत्तर हिंदी विभाग में एमए में दाखिला लिया। लेक्चर्स पूरे करने के बावजूद शारीरिक-पारिवारिक समस्याओं के कारण उन्होंने यथासमय परीक्षा नहीं दी। बहुत वर्ष बाद सन् 91 में उन्होंने एमए की उपाधि रांची विश्वविद्यालय से ली। दो वर्ष बाद पीएच. डी. के लिए शोध हेतु अपना मन बनाया। फिर विषय और निदेशक का चुनाव भी किया। सन् 94 के प्रारंभ में डॉ. सिद्धनाथ कुमार 'हिंदी कविता मे जनजातीय जीवन' विषय पर शोध निदेशक होने के लिए सहमत हो गये थे, मगर सिनौप्सिस बन कर पड़ी रह गयी। पहली जनवरी 94 से ही शैलप्रिया अस्वस्थ रहने लगी थीं। उनकी बीमारी पेटदर्द, अल्सर, जॉन्डिस और आखिरश जिगर के कैंसर के रूप में जानलेवा साबित हुई। इस प्रकार, उनका शोध कार्य का मंसूबा अनकिया रह गया।
(जारी)
जीवनी पढ़कर अच्छा लगा
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चाँद ,बादल और शाम
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