शैलप्रिया की जीवन रेखा
विद्याभूषण
स्कू
ली छात्रा के रूप में वह तेज थीं। एक साल उन्हें छात्रवृत्ति भी मिली थी। लेकिन बाद के वर्षों में व्यक्तिगत जीवन के कई अलंघ्य तनावों और परिस्थितियों के कारण अध्ययन के प्रति वे एकाग्र उन्मुख नहीं रह सकीं। नतीजा कि एमए तक की उनकी शिक्षा जैसे-तैसे पूरी हो गयी। वस्तुतः सन् 62 से सन् 72 के दौरान उनकी जिंदगी कई अनपेक्षित दबावों, दुश्चिंताओं, संघर्षों और
अक्सर, सन् 90-94 के दरम्यान अधिक, गोष्ठियों-आयोजनों की भीड़ छंटने पर कोई नया परिचित उनसे पूछ बैठता - 'आप कहां हैं? किस कॉलेज में?' तब मंद स्मिति के साथ उनका सधा हुआ बना-बनाया उत्तर होता - 'मैं कहीं नहीं हूं, सिर्फ लिखती-पढ़ती हूं।' उस मंद स्मिति के पीछे छुपी उनकी पीड़ा का कई बार मौन साक्षी और दर्शक रहा हूं - आत्मनिर्भर होने के उनके सपने में मददगार नहीं हो पाने के अपराध-भाव से ग्रस्त।
समस्याओं में उलझते-सुलझते बीती। अब कहा जा सकता है कि कशमकश का इतना लंबा दौर गुजार कर भी वे मनसा सहज-स्वस्थ बनी रहीं, यही उनकी जिजीविषा की बड़ी उपलब्धि थी। अपने-परायों से लगातार खरोंचें पाने के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और वे बाधाओं को ठेल-ठाल कर अपने इच्छित आकार में परिस्थितियों को ढालने लगीं। इस जद्दोजहद में वे आत्मनिर्भर होने का अवसर नहीं निकाल सकीं, इसका अफसोस उन्हें हमेशा बना रहा।
अक्सर, सन् 90-94 के दरम्यान अधिक, गोष्ठियों-आयोजनों की भीड़ छंटने पर कोई नया परिचित उनसे पूछ बैठता - 'आप कहां हैं? किस कॉलेज में?' तब मंद स्मिति के साथ उनका सधा हुआ बना-बनाया उत्तर होता - 'मैं कहीं नहीं हूं, सिर्फ लिखती-पढ़ती हूं।' उस मंद स्मिति के पीछे छुपी उनकी पीड़ा का कई बार मौन साक्षी और दर्शक रहा हूं - आत्मनिर्भर होने के उनके सपने में मददगार नहीं हो पाने के अपराध-भाव से ग्रस्त। यूं कायदे से किसी नौकरी के लिए उनकी ओर से या विद्याभूषण की ओर से कोशिश भी नहीं हुई। तो भी आर्थिक स्वावलंबन की आकांक्षा उनमें जीवनपर्यंत बनी रही। कभी-कभी यह कसक घनीभूत पीड़ा का रूप ले लेती थी जिससे उबरने में किसी बाहरी तसल्ली से कोई फर्क नहीं पड़ता था उनको। शुरू में जब किसी छोटी-मोटी नौकरी में लग जाना चाहती थीं तो विद्याभूषण को यह मंजूर नहीं हुआ और विद्याभूषण जिस ऊंचाई पर उन्हें देखना चाहते रहे, वह कभी नजदीक नहीं हुई।
अपनी ओर से छिटपुट कोशिश करके वे रह गयीं। एक बार आकाशवाणी की अनाउंसर के लिए उन्होंने साक्षात्कार दिया था। अध्यापकी की चाह भी पाली थी उन्होंने। अपने पड़ोस में आदर्श बाल निकेतन की स्थापना में उन्होंने सोत्साह मदद की थी और महीनों तक सहयोगी बाव से निःशुल्क पढ़ाती रहीं। एक बार संभवतः सन् 75 के आसपास, पियरलेस जेनरल फिनांस एंड इन्वेस्टमेंट कंपनी की एजेंटी भी की। उस काम में मन नहीं रमा तो छोड़ दिया।
सन् 75 में शिक्षित बोरोजगारों के लिए वित्तीय सहायता योजना के अंतर्गत उन्होंने उद्योग विभाग से कार्यशील पूंजी ली और पंजाब नेशनल बैंक से ऋण लिया। इस प्रकार, अगस्त 75 में प्रतिमान प्रेस की शुरुआत हुई। बेशक यह काम विद्याभूषण की प्रेरण, सहमति और सहयोग से हुआ था। पति-पत्नी की सहकारी में प्रेस तेजी से आगे बढ़ा। प्रारंभिक सात वर्षों तक शैलप्रिया प्रतिमान प्रेस के संचालन में मेहनत के साथ जुटी रहीं - प्रूफ रीडिंग, कंपोजिंग, नंबरिंग, जिल्दसाजी से लेकर प्रबंधन और संचालन के काम में जब जहां जरूरत पड़ी उसे भिड़कर पूरा किया। बाद में कार्याधिक्य के तनाव और व्यावसायिक चतुराई में अंतर्लिप्त होने से इनकार की मानसिकता के कारण प्रेस में उनकी दिलचस्पी कम होने लगी। तब तक प्रेस की आमदनी प्रेस में ही निवेशित होती रही थी। अपने लिए
अगस्त 75 से नवंबर 82 तक यानी लगभग सात साल प्रेस संचालन का 65% कार्यभार शैलप्रिया ने ही वहन किया था। पति-पत्नी के बीच प्रेस के कार्यकाल का समय विभाजित था - सुबह-शाम विद्याभूषण और सारा दिन शैलप्रिया - यही व्यवस्था वर्षों तक चली प्रतिमान प्रेस की।
या घर के लिए कुछ उल्लेख्य निकाल पाना संभव नहीं होता ता। इससे भी उनका मन खिन्न हुआ। तब कार्यालय संभालने के लिए एक प्रबंधक की नियुक्ति हुई। बाद में दो प्रबंधक भी हुए।
इस प्रकार, अगस्त 75 से नवंबर 82 तक यानी लगभग सात साल प्रेस संचालन का 65% कार्यभार शैलप्रिया ने ही वहन किया था। पति-पत्नी के बीच प्रेस के कार्यकाल का समय विभाजित था - सुबह-शाम विद्याभूषण और सारा दिन शैलप्रिया - यही व्यवस्था वर्षों तक चली प्रतिमान प्रेस की। अधिकतर काम फुटकर होते। कुछेक स्कूल-कॉलेजों और संस्थानों से भी काम मिल जाता था। साल के कम से कम तीन महीने ऐसे भी बीतते जब प्रेस में दो-दो शिफ्टों में काम चलता। प्रश्न पत्र, स्मारिका और मतदता सूचियों की छपाई के दिनों में बहुत बार रात-रात भर काम होता रहता। शैलप्रिया के जिम्मे घर और प्रेस के खुदरा कामों का अंबार लगा रहता। वे धीरज के साथ यह सब निबटा लेतीं और बहुत बार हताश थके विद्याभूषण को सहारा भी देतीं।
(जारी)
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