दोस्त,
लगातार नेवले और सर्प की तरह
फुफकारते हुए
झेलती हूं 'कुछ'
समझौतों में खोता स्वत्व,
देखती हूं अनबुझी आंखों से
टूटते
सारे रिश्तों के बीच
अतृप्त मन।
कैक्टस
तुम्हारे गांव में
उग आया था
एक कैक्टस
अपने अस्तित्व की झूठी लड़ाई में
घेरता गया तुम्हें
और तुमने भी तो फैलने दिया
इस स्नेह के बंधन में
तुम्हें कई बार होना पड़ा घायल
धूप में तपती
तुम्हारी मनःस्थली
निर्जन होती गई
और तुम बनती गई
कैक्टस
-अनुराग अन्वेषी, 9 फरवरी'95,
रात 12.05 बजे
लगातार नेवले और सर्प की तरह
फुफकारते हुए
झेलती हूं 'कुछ'
समझौतों में खोता स्वत्व,
देखती हूं अनबुझी आंखों से
टूटते
सारे रिश्तों के बीच
अतृप्त मन।
बाट जोहती सूखी तलैया पर
तैरती, खेलती लड़की।
धूप में तपती नाव
मेरी मनःस्थली, मेरा गांव
- शैलप्रिया
Bahut achi hai.
ReplyDeleteअद्भुत .!
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता है यह अदभुत
ReplyDeleteकाव्य में पूर्णता है, सच
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