'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Monday, January 05, 2009

अंधेरे में गुम रोशनी की लकीर (चौथी किस्त)

शैलप्रिया की जीवन रेखा
विद्याभूषण
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सु
रभि और बाद में जागरण (दोनों सामाजिक संस्थाएं ) से भी उनका जुड़ाव लगभग तीन दशकों तक रहा। प्रेस शुरू होने से पहले ही वे सामाजिक गतिविधियों में शरीक हो चुकी थीं। सन् 73 में आरा बाढ़ पीड़ितों के बीच राहत सामग्री के वितरण के लिए वे जागरण की टीम के साथ आरा गयी थीं । बाद के वर्षों में यह जुड़ाव कई आंदोलनों-संस्थाओं-कार्यक्रमों तक फैलता गया। फिर संगठन विशेष की सीमाएं भी नहीं रह गयीं।

शैलप्रिया के लिए संगठन या बैनर महत्वपूर्ण नहीं रहे जितना कि सवाल और प्रयोजन। उनकी भागीदारी वहां भी होती रही जहां वे संगठन में शामिल नहीं थीं। यही कारण है कि वे सहज भाव से एक तरफ जागरण और उषा सक्सेना-मीरा बुधिया से भी जुड़ी रहीं तो उसी सहजता के साथ नारी उत्पीड़न विरोधी संघर्ष समिति और मालंच घोष-प्रभावती तिवारी से भी जुड़ी रह सकीं। महिला मोर्चा और माया प्रसाद भी उनकी सहभागी बनीं, तो उमा, सुधा, कनक, कुमुद, रेणु दिवान, मणिमाला, कुंती कश्यप और निर्मला झा से भी उनके सहयात्री संबंध बने।

उन्होंने महिला उत्पीड़न विरोधी संघर्ष समिति और महिला मोर्चा के कार्यक्रमों में निःशर्त योगदान किया। शैलप्रिया के लिए संगठन या बैनर महत्वपूर्ण नहीं रहे जितना कि सवाल और प्रयोजन। उनकी भागीदारी वहां भी होती रही जहां वे संगठन में शामिल नहीं थीं। यही कारण है कि वे सहज भाव से एक तरफ जागरण और उषा सक्सेना-मीरा बुधिया से भी जुड़ी रहीं तो उसी सहजता के साथ नारी उत्पीड़न विरोधी संघर्ष समिति और मालंच घोष-प्रभावती तिवारी से भी जुड़ी रह सकीं। महिला मोर्चा और माया प्रसाद भी उनकी सहभागी बनीं, तो उमा, सुधा, कनक, कुमुद, रेणु दिवान, मणिमाला, कुंती कश्यप और निर्मला झा से भी उनके सहयात्री संबंध बने। उन्होंने संगठनों में व्यक्तियों के मतभेदों अंतर्विरोधों को जानते-समझते हुए भी कभी अपनी स्थिति बेहतर बनाने की चाल नहीं चली। उनके मैत्री-संबंधों में विविधता और स्थायित्व का रहस्य यह था कि वे लाभ-हानि के हिसाब-किताब के प्रति विरक्त थीं।
साहित्य में उनकी शुरुआत देर से हुई। प्रेस और परिवार के दायित्वों से आंशिक अवकाश मिलने के बाद। 'साहित्यिक' बनना-दिखना उन्हें कभी जरूरी नहीं लगा। 'रचनाकार' रह-हो कर ही वे संतुष्ट रहीं।
सन् 83 में 'अपने लिए' का प्रकाशन कई 'अपनों' के लिए भी तनिक आश्चर्यजनक था जो उन्हें 'नजदीक' से जानते थे। कविता-लेखन से उनका जुड़ाव स्कूली छात्रा के रूप में ही हो चुका था। विद्यालय पत्रिका में शैल कुमारी वर्मा की दो-एक गीतनुमा रचनाएं छप गयी थीं। ऐसी कुछेक अप्रकाशित रचनाएं उनकी प्रारंभिक डायरी में दर्ज हैं। जैसे -
ओट में ही रहो तुम हे अश्रु कण,
द्वार मत मेरे हृदय का खोल दो।
चाहती हूं मैं नहीं रोना कभी,
कुंतु बरबस रुलाई क्यों आ रही?
स्नेह से प्लावित हृदय में उमड़ती,
आंख में धारा अंटकती आ रही।
बंद पलकों में ढलकते अश्रु कण
राज मत मेरे हृदय का खोल दो।
(21.10.61)
या फिर
जलता दिल पास है।
आज वह उदास है।
अपनी लगन न छोड़ सकूंगी,
बढ़ते चरण न रोक सकूंगी,
बाधाएं तो आती ही हैं
रोड़े भी अंटकाती ही हैं। ....
(29.08.62)
इसके बावजूद कविताएं उनके लिए निजी मनःस्थिति और उद्गारों का

पत्र-पत्रिकाओं से दूर-दूर या अलग-थलग रहने से कम नुकसान नहीं उठाया उन्होंने, जबकि उनके सहजलब्ध परिचय-परिधि में भी ऐसे अनेक अवसर मिल सकते थे। क्रमशः, अभिज्ञान, अभिकल्प, प्रसंग, कतार, विपक्ष, युद्धरत आम आदमी, नवतारा, उत्तरा, दस्तक, सार्थक जैसी कई पत्रिकाएं और रांची एक्सप्रेस, देशप्राण, न्यू मेसेज, रांची विकली जैसे बड़े-छोटे पत्रों के संपादकों से उनके निकट व सीधे संपर्क रहे। इन दर्जन भर पत्र-पत्रिकाओं के अलावा भी उनकी आसान पहुंच कई पत्र-पत्रिकाओं तक भी हो सकती थी। लेकिन उन्होंने वह सब नहीं किया, जो अनिवार्यतः कर लेना चाहिए था।

अभिलेख भ बनी रहीं और अनेक वर्षों तक उन्होंने निजी डायरी की तरह उन्हें दूसरों से छिपा कर रखा। सत्यदेव राजहंस ने ऐसी ही तीन रचाओं को गरस्त, 66 में रेडियो से प्रसारण के लिए चुना था। शुरू की कुछ कविताएं अभिज्ञान मासिक, युगश्री और प्रताप इंडिया में भी छपीं। लेकिन सिलसिलेवार लिखना बहुत बाद में हुआ। सन् 83 में 'अपने लिए' के प्रकाशन के साथ शैलप्रिया एक छोटे-से दायरे में भावप्रवण कवयित्री के रूप में जानी गयीं। इस तरह उनकी साहित्य-यात्रा की अवधि सिर्फ ग्यार वर्ष ठहरती है। वैसे, कायदे से जीवन के अंतिम पांच वर्षों में ही वे अपने विचारों और लेखन को मनचाही दिशा-दशा देकर अपने को साधने में लग पायीं।
पत्र-पत्रिकाओं से दूर-दूर या अलग-थलग रहने से कम नुकसान नहीं उठाया उन्होंने, जबकि उनके सहजलब्ध परिचय-परिधि में भी ऐसे अनेक अवसर मिल सकते थे। क्रमशः, अभिज्ञान, अभिकल्प, प्रसंग, कतार, विपक्ष, युद्धरत आम आदमी, नवतारा, उत्तरा, दस्तक, सार्थक जैसी कई पत्रिकाएं और रांची एक्सप्रेस, देशप्राण, न्यू मेसेज, रांची विकली जैसे बड़े-छोटे पत्रों के संपादकों से उनके निकट व सीधे संपर्क रहे। इन दर्जन भर पत्र-पत्रिकाओं के अलावा भी उनकी आसान पहुंच कई पत्र-पत्रिकाओं तक भी हो सकती थी। लेकिन उन्होंने वह सब नहीं किया, जो अनिवार्यतः कर लेना चाहिए था। शायद वे मांग कर कुछ पाना नहीं चाहती थीं और बिना कोशिश इस दुनिया में कुछ भी हासिल होता नहीं। ऐसा एक भी अवसर बताया नहीं जा सकता कि उन्होंने व्यक्तिगत संबंधों का कारोबारी उपयोग किया हो।
अब लगता है, निकटस्थ कई लोगों से भी अनचाहे-अनजाने उनकी अनदेखी होती रही। दरअसल यह अनदेखी घर में भी हुई। विद्याभूषण के संपादन-सहयोग से निकलने वाली अनियतकालीन पत्रिकाओं - क्रमशः, अभिज्ञान, अभिकल्प, प्रसंग - में इस या उस संकोच के कारण शैलप्रिया की रचनाएं शामिल नहीं हो पायीं। दुर्योग यह कि यह सिलसिला आगे भी जारी रह गया।
(जारी)

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