जब मेरे भीतर उग आये थे
गूलर के फूल।
एक समय था
जब सतरंगे ताल की
झिलमिलाती रोशनी
भर देती थी
मुझमें रंग।
अब कहां है
वह मौसम?
और वह फूल और गंध?
जिंदगी की पठारी जमीन
सख्त होती जा रही है।
इसमें फूल नहीं उगते,
कैक्टस उगते हैं अनचाहे।
सहज होना बहुत मुश्किल है आज
उतना ही, जितना
खोज लेना
गूलर के फूल।
जिंदगी की पठारी जमीन
ReplyDeleteसख्त होती जा रही है।
इसमें फूल नहीं उगते,
कैक्टस उगते हैं अनचाहे।
बहुत बहुत सुंदर कविता ..इसको यहाँ पढ़वाने का शुक्रिया
सुंदर अभिव्यक्ति ../
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