'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Monday, February 23, 2009

कुछ धुंधली यादें

मुकुल दी (अर्चना सिन्हा) मेरे चाचा की सबसे छोटी बेटी हैं। उम्र में मुझसे 10 साल बड़ी। पर मेरे लिए वह दोस्त भी हैं। यह भी सच है कि मेरा परिचय इनसे मेरे मैट्रिक पास कर लेने के बाद हुआ। कुछ वजहों से (जिन्हें न मैं जानता हूं और न जानना चाहता हूं) हम सब अलग-अलग रहे। अलग-अलग शहर में बस जाने की वजह से दूरियां बनी रहीं। इस दूरी को पाटने की नींव डाली पराग भइया ने। हम दोनों पटना गये थे संस्था सार्थक के साथ। कालिदास रंगालय में हमारे नाटक का मंचन होना था। भइया मुझे लेकर गया था बड़ी मां के घर। इसके बाद कई बार मेरा आना-जाना हुआ। हमारे बीच की दूरियां पटती गईं। अब आज किसी भी अवसर को हम एक-दूसरे से बेहिचक शेयर करते हैं। -अनुराग अन्वेषी


मे
रे मन में चाची की स्मृति तब की है जब मेरे पिता की मृत्यु के पश्चात् चाचा हमलोगों को रांची, अपने यहाँ ले आए थे। उसके पहले की भी कुछ स्मृतियाँ है जब चाची ब्याह होकर आई थी या की जब चाची मेरी बड़ी दीदी के ब्याह में चाचा और डेढ़ वर्ष के पराग के साथ आई थीं। लेकिन तब की स्मृतियाँ इतनी धूमिल हैं कि उन्हें पकड़ सकना कठिन है।

तब मेरी तेरह वर्ष की आयु थी जब हम लोग रांची आए थे। हमें वहां लाते समय पिता जी की मृत्यु की सूचना नही दी गई थी और वो पहली स्मृति चाची की मुझे है वो रोती हुई दीदी को धीरज बांधती हुई है। वो मगही (हमारी घरेलु भाषा) में बोलती हुई दीदी को समझा रही थीं की अब वही (दीदी) सबसे बड़ी है उसको ही दूसरों को धीरज बंधाना है। मुझे नही पता चाचा ने हम लोगो को वहां रखने का फ़ैसला लेते समय चाची से पूछा था या नहीं लेकिन चाची ने कभी हम लोगों से इस विषय में कभी कुछ नहीं कहा।

एक मध्यवर्गीय परिवार में चार-चार व्यक्तियों का बोझ नि:संदेह चिंतित तो करता ही है। लगभग साल के वहां के प्रवास में चाची से हमारे रिश्ते औपचारिकता की सीमा को लाँघ नहीं सके। परिस्थितियां भिन्न होतीं तो शायद ये होता भी फिर भी उस एक साल की अवधि में दो तीन घटनाएँ हैं जो मेरी स्मृति में सुरक्षित हैं। चाची की एक साड़ी थी जिसपर सूरजमुखी के फूलों का प्रिंट था। मुझे उनकी वह साड़ी बहुत पसंद थी। वह साड़ी मैंने तीन-चार बार पहनी थी उन्ही के ब्लाउज में टाँके मार के और चाची ने कभी उसके लिए कभी कुछ नहीं कहा। बल्कि मेरे पूछने पर वे उसे सहजता से मेरे लिए बाहर ही छोड़ देतीं। शायद यह सहजता उनके व्यक्तिव्य का एक अहम् हिस्सा थी।

ऐसी ही एक दो और घटनाएँ हैं जब एक दिन अचानक उधर से गुजरते हुए चाचा के साथ मेरे स्कूल चली आयी थीं ( चाची भी उसी स्कूल में पढ़ी थीं ) और उन्होंने मुझसे पूछा था कि मैं बस से ही लौटूंगी या उन दोनों के साथ चलना चाहूंगी। या फिर प्रीति मौसी (उनकी छोटी बहन) की शादी में मेरे माँ की अपेक्षाकृत सादी साड़ी को उतरवा कर अपनी साड़ी मुझे पहनी के लिए दी थी। लगभग एक साल के बाद दीदी की नौकरी हो गई और हमलोग पटना आ गए और हमलोगों के संबंधों में एक लंबा अन्तराल आ गया।

लगभग 20-22 वर्षों के बाद जब मैं चाची से मिली तो मैं दो बच्चों की माँ बन चुकी थी। वो किस कारण से पटना आयी थीं ये मुझे स्मरण नहीं लेकिन वो मुझसे मिलने मेरे घर आयी थीं और जिस तरह से उन्होंने मुझसे बातें कीं मुझे यह अहसास हुआ कि मैं अपनी चाची से मिल रही हूँ जो अपनी ब्याही हुई जैधि (जेठ की बेटी) से सुख-दुख बतिया रही हैं। तब शायद उन्हें देखने समझने की मेरी दृष्टि भी थोड़ी व्यापक हो चुकी थी और जैसा कि मैंने कहा कि परिस्थितियां भिन्न होतीं तो उनकी यह सहजता हमारे बीच सहजता में बदल सकती थी। जैसा कि फिर मैंने पराग और अनुराग के संस्मरणों से उन्हें जाना कि ख़ुद के प्रति नि:संग सहजता ही उनके व्यक्तिव्य का प्रथम परिचय थी।

1 comment:

  1. अच्छा लगा पढ़कर और जानकर कि परिवार के बीच की दूरियाँ मिटी और आप लोगों ने अपने संस्मरण बांटे. अनेक शुभकामनाऐं.

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