चलो, व्यूह रचें
निःशब्द होकर
बिखर जाना,
किसी ताजा खबर की आस में
सचमुच बहुत बड़ी भ्रांति है
सच है
कि सपने प्यारे होते हैं
लेकिन वासंती बयार के साथ
उन्हें उड़ा देना
ठीक वैसा ही है
कि हम विरोध करें
और हमारी तनी मुट्ठियां हवा में आघात करें
इसलिए चलो
बाहर की उमस को
बढ़ने से रोकें
और फिर से युद्ध के लिए एक व्यूह रचें।
-अनुराग अन्वेषी, 26 दिसंबर'95,
रात 9.30 बजे
कबतक भ्रांतियों में जीती हुई
काटती रहूं घटना चक्र?
व्यूह-रचना में
शामिल
मकड़े का जाल बुनते हुए
देखती हूं
झाड़-फानूस-से सपने,
बेहिसाब
चक्कर काटता मन
किसी कील की नोंक पर
लगातार घूमता है।
बाहर उमस है,
भीतर आओ।
एक बाड़वाग्नि लगातार
जलती है अंदर।
ठहरो,
झुलस जाओगे
कमजोर पन्नों की तरह।
अनुभवों को चीरते हुए
मैं निःशब्द बिखर जाती हूं
एक ताजा खबर की आस में।
(शैलप्रिया की कविता 'प्रतीक्षा' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)
बहुत अच्छि रचनाएं प्रेषित की हैं।आभार।
ReplyDeleteमैं निःशब्द बिखर जाती हूं
ReplyDeleteएक ताजा खबर की आस में।
दोनों हो रचनाये अदभुत है .पर यह प्रतीक्षा विशेष रूप से पसंद आई ..शुक्रिया इसको पढाने का