'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Tuesday, February 10, 2009

मां का स्वार्थ

अनुराग अन्वेषी

13

नवंबर, फिर वैसा ही यातना भरा दिन था। मां ऑपरेशन थियेटर में जा चुकी थी। हम सभी ऑपरेशन थियेटर के सामने के लॉन में हताश बैठे थे। अचानक पापा ने कहा कि देखो ऑपरेशन थियेटर के बरामदे में जो महिला बैठी है उसके केश शैल से कितने मिलते हैं न? हमसब ने नजदीक जाकर देखा - अरे यह तो मां है जो ऑपरेशन थियेटर से बाहर आ चुकी थी। दरअसल, जिस विधि से ऑपरेशन होना था, उससे यह संभव नहीं हो सका। डॉक्टरों ने कहा कि अब फिर से वे आपस में विचार-विमर्श करके किसी दूसरे तरीके से ऑपरेशन करेंगे। तारीख भी बाद में तय की जायेगी।

मैं जादू दिखाने लगा। मां बड़े चाव से जादू देख रही थी। कभी-कभी बीच में मुस्कुरा देती। अचानक मां ने लेटते हुए कहा - 'कुछ ऐसा जादू करो कि हम सब रांची पहुंच जायें...।' यह कहकर मां ने दूसरी तरफ मुंह फेर लिया। इस बात को मैंने अनसुना करने की कोशिश की। लेकिन मां तो सारा कुछ कह चुकी थी।


हमलोग फिर घर वापस लौटे। भइया को कुछ लोगों ने बताया कि दिल्ली में डॉ. घोषाल होम्योपैथ के अच्छे डॉक्टर हैं और कई असाध्य रोगों को ठीक करते हैं। भइया ने 14 नवंबर को उनसे मुलाकात की। इसी दिन, जब मां सुबह-सुबह छत पर मुंह धो रही थी, मैंने उससे कहा, मां तुम कुछ लिखना चाहती हो तो बोलो, हम बैठकर लिखा करेंगे। उस वक्त मां ने सिर्फ ना में सिर हिलाया। फिर कमरे में आकर मुझसे कहा - 'हम बहुत स्वार्थी हो गये हैं, अब कविता-कहानी कुछ नहीं सूझती, सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं, अपनी बीमारी के बारे में सोचते हैं...। कुछ भी अच्छा नहीं लगता।' मुझे लगा, मां यह सब कहते-कहते बहुत उदास हो गयी है। बात बदलने के ख्याल से मैंने ताश निकाल कर मां के साथ खेलना चाहा। उसने इससे भी इससे भी इनकार कर दिया। फिर मैं जादू दिखाने लगा। मां बड़े चाव से जादू देख रही थी। कभी-कभी बीच में मुस्कुरा देती। अचानक मां ने लेटते हुए कहा - 'कुछ ऐसा जादू करो कि हम सब रांची पहुंच जायें...।' यह कहकर मां ने दूसरी तरफ मुंह फेर लिया। इस बात को मैंने अनसुना करने की कोशिश की। लेकिन मां तो सारा कुछ कह चुकी थी। उसे अपना शहर बहुत याद आता था। अपने शहर के लोगों से, अपने शुभचिंतकों से, अपने प्रशंसकों से, अपने परिचितों और अपने रिश्तेदारों से दूर रहना उसे खल रहा था। लेकिन मां भी समझती थी अपनी और हमारी मजबूरी।

हम सभी चाहते थे कि मां को जल्द से जल्द रांची ले चलें। लेकिन उसकी सेहत के लिए बची किसी भी आशा को आजमाने से चूकना नहीं चाहते थे। मनुष्य के भीतर का यह दायित्व बोध ही उसकी कई कोमल भावनाओं को कुचल जाता है, इसका अहसास भी मुझे तब ही हुआ। ताश के पत्ते मेरे हाथ में पड़े रहे और न जाने कब तक मैं चुपचाप मां के पास बैठा रहा। मां को नींद आ चुकी थी।

(जारी)

2 comments:

  1. मां को सच्‍ची श्रद्धांजलि दे रहे हैं आप.....मां से जुडी आपकी यादों को पढना अच्‍छा लग रहा है.....घर में किसी को भी कोई बडी बीमारी हो तो जैसा माहौल बन जाता है......उसको बखूबी चित्रित किया है......आगे की कडियों का भी इंतजार रहेगा।

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