'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Wednesday, March 11, 2009

अपने संग फाग खलती थीं वे

लेखक परिचय :

आलोचक और कवि प्रफुल्ल कोलख्यान का जन्म मिथिलांचल में हुआ। शिक्षा-दीक्षा कोयलांचल में। नाबार्ड की नौकरी उन्हें ले गयी कोलकाता। जन संस्कृति मंच से लंबे समय तक इनका जुड़ाव रहा। एक कविता पुस्तक प्रकाशित। प्रमुख पत्रिकाओं में विविध विषयों पर कई आलेख चर्चित
शै
लप्रिया हमारे बीच नहीं रहीं, यह जानकर मैं स्तब्ध रह गया था। बीमार थीं, मालूम था। मालूम तो यह भी था कि ठीक हो जायेंगी। भला यह भी कोई उम्र थी दुनिया से चल देने की। किंतु मृत्यु हमेशा से तर्कातीत यथार्थ रही है। बकौल दिनकर मरते कोमल वत्स यहां बचती न जवानी परदेशी। लेकिन मेरे स्तब्ध रहने का कारण शैलप्रिया जी के नहीं रहने की खबर के साथ-साथ अपनी जड़ता और आलस्य के बोध से भी उत्पन्न था। वे मेरी भी आत्मीय थीं। जाहिर है उनसे किये और न किये गये वायदे और विमर्श के तंतु अचानक बिखर गये। संवाद टूट गया। उन्हें कुछ कहा नहीं जा सकता है। उनसे कुछ सुना नहीं जा सकता है। जब कहा-सुना जा सकता था तब, अब-तब और आज-कल में समय गवां बैठा। शैलप्रिया जी के नहीं रहने से समय के एक संदर्भ के खो जाने की पुष्टि के सामने नतमस्तक हूं।

शैलप्रिया कवि थीं। नहीं, इसे इस तरह समझा जाये कि शैलप्रिया कवि हैं। कुछ इस तरह कि शैलप्रिया मां, बहन, भाभी, पत्नी, मौसी, मामी आदि थीं, जो अब नहीं रहीं और शैलप्रिया कवि हैं और सदैव रहेंगी। उन मित्रों के बीच जो न शैलप्रिया को जानते थे और न उनकी कविता को, उनके बीच प्रसंगतः उनका नाम आ जाने से किसी-न-किसी कोने से यह सवाल उछल जाता था 'कैसी कवि?' अब यह बड़ा विचित्र सवाल है, कवि कैसा होता है? या कैसी होती है? काव्य प्रतिभा में भावयित्री और कारयित्री प्रतिभा के दो उपखंड आचार्यों ने बताये हैं। इधर 'भाव' पक्ष थोड़ा कमजोर हुआ है लेकिन 'कार' पक्ष का जोर बढ़ा है। आज 'कार' पक्ष में कार से लेकर कारोबार तक का समावेश हो गया है। जो कविता का जितना बड़ा कारोबारी है, वह उतना ही बड़ा कवि माना जा रहा है। शैलप्रिया कविता की कारोबारी नहीं थीं। उनका 'कार' पक्ष कमजोर था, भाव पक्ष सबल था। हां, चूंकि कविता का कमजोर पक्ष ही उनका सबल पक्ष था इसलिए वे कमजोर कवि थीं। काश कि ऐसे 'कमजोर' कवि हिंदी में अधिक होते। 'मजबूत' कवियों ने जो बंटाधार किया है उस पर फिर कभी।

मैं बताना चाहता हूं कि कुछ संदर्भों में बाह्य और सामाजिक कारणों तथा प्रकृति प्रदत्त क्षमताओं के कारण महिला की हैसियत कुछ भिन्न है। उसके सरोकारों और संवेदनाओं का एक विशिष्ट पक्ष भी है। और जाहिर है इस विशिष्ट पक्ष से उसकी कई कामनाओं, भावनाओं, चिंताओं, क्रियाओं और शक्तियों के प्रभावी संदर्भ तय होते हैं। इसलिए महिला लेखन से गुजरते हुए या उस पर विचार करते हुए जो लोग दया या करुणा और कृपा से परिचालित होते हैं उनकी समझ पर सिर्फ तरस ही खायी जा सकती है। सामाजिक संदर्भों को महत्वपूर्ण माननेवाले हर लेखक को प्रायः सामाजिक इकाई के रूप में परिवार को चिह्नित करना पड़ता है। मेरे परिवार से अपरिचित मित्र जब पूछते हैं कि मेरी पत्नी कहीं काम करती हैं; तो मैं कहता हूं, हां एक प्राथमिक पाठशाला में हेडमास्टर हैं। एक बार एक मित्र ने मुझे पकड़ा और कहा कि घरेलू महिला इतनी बुरी तो नहीं होती है कि आप अपनी पत्नी को झूठ में काम-काजी बताएं?

मित्रो, हम में से सबने बचपन में ही पढ़ा है परिवार सामाजिक जीवन की प्राथमिक पाठशाला है। यह अलग बात है कि बड़े होने पर हम इस 'पाठ' को भूल जाते हैं। मुझे याद है। और मैं मानता हूं कि परिवार सामाजिक स्तर की प्राथमिक पाठशाला है और हर गृहिणी इसकी पदेन और स्वाभाविक 'हेडमास्टर'।

ऐसी ही कुशल हेडमास्टर थीं शैलप्रिया जी। अपनी कलम से सिर्फ शब्दों के सम्यक व्यवस्थापन से कविता को संभव नहीं करती थीं, बल्कि अपनी क्रियाशीलता से हमेशा उस घर की तलाश और निर्माण के लिए मानसिक और वैचारिक यात्राएं किया करती थीं जिसे प्या का नीड़ कहा जा सके।

महिला लेखन में व्यापक परिवार (घर) बोध के संवेदनागत जागतिक विस्तार के कारण अपनी बहुआयामी विवृति के साथ रिश्तों की जिन सतहों और स्तरों के उद्घाटन की क्षमता रहती है और उससे जो परिवार-मूल्य उपजते हैं उसकी विशेष तलाश के क्रम में मैं महिला लेखन के अतिरिक्त महत्व को स्थापित करने का आग्रह करता हूं, और पाता हूं कि विचारकों का ध्यान शैलप्रिया जी की कविताओं पर न जाये तो यह सिर्फ उनकी ही सीमा होगी। सारे संकटों का दुष्प्रभाव घर (परिवार) पर ही पड़ता है। परिवार असुरक्षित होते जा रहे हैं। महिलाएं विशेष रूप से असुरक्षित रही हैं। इस असुरक्षा की गिरफ्त से बाहर निकलने और वसुधा को कुटुंब बनाने के संघर्ष से जो मूल्य बनते हैं, उन्हें शैलप्रिया जी की कविताओं में खोजा जाना चाहिए। महिला का महत्व इस संदर्भ से 'मूल्यकोश' के रूप में भी है। और निश्चित रूप से शैलप्रिया जी जैसी कवि इस 'मूल्यकोश' की साक्षी हैं, प्रमाण भी। और उसके संवर्द्धन-परिमार्जन की कारिका भी।

उनकी कविताओं को उद्धृत करने से जानबूझ कर बचा गया है। उद्धरण जन्मना अपूर्ण होते हैं और अपूर्ण 'असुंदर' होता है। इसीलिए पूरी कविता यहां देने लगूं तो संकलन हो जायेगा। इसलिए उनकी तमाम कविताओं को इस विचार का अनुलग्नक माने जाने के विनम्र प्रस्ताव के साथ अपने संतोष के लिए उनकी एक कविता मैं यहां रख रहा हूं -

एक सांझ
जब तुम नहीं थे पड़ोस में,
चांदनी
सफेद लिफाफों में बंद
खत की तरह
आयी थी मेरे पास।
रजनीगंधा की कलियों की तरह
खुलने लगी थी मेरी प्रतीक्षा
और मुझे लगा था
कि सन्नाटे के तार पर
सिर्फ मेरे दर्द की कोई धुन
बज रही है।
और इसी के साथ उस कवि को प्रणाम जिसने चांदनी में आग का भी संधान किया है।

2 comments:

  1. बहुत अच्छी कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद।
    होली की शुभकामनाएँ।
    घुघूती बासूती

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