मातृत्व कविता की अगली कड़ी हैं जिंदगी का हिसाब। कल पोस्ट की गई कविता मातृत्व के लिए यहां क्लिक करें। -अनुराग अन्वेषी
अंगारों पर पांव धर कर
फफोले फूंकती हुई
चितकबरे काले अहसासों
से घिरी हूं।
मगर अब
चरमराई जूतियां उतार कर
नंगे पांव
खुले मैदान में दौड़ना चाहती हूं।
हे सखी,
मौसम जब खुशनुमा होता है
अब भी बज उठते हैं
सलोने गीत,
कच्ची उम्र की टहनियां
मंजरित हो जाती हैं।
यथार्थ की घेराबंदी मापते हैं पांव।
हे सखी,
कब तक चौराहों पर
खड़ी जोड़ती रहूं
जिंदगी का हिसाब?
उम्र
चुकी हुई सांसों का
ब्याज मांगती है।
(शैलप्रिया की कविता 'जिंदगी का हिसाब' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)
badhiya rachana badhaai.
ReplyDeleteसमयचक्र: रंगीन चिठ्ठी चर्चा : सिर्फ होली के सन्दर्भ में तरह तरह की रंगीन गुलाल से भरपूर चिठ्ठे