'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Tuesday, March 17, 2009

और इस तरह बन गई 'अभिव्यक्ति'

नीला प्रसाद

अपने संस्मरण के इस हिस्से में नीला प्रसाद बता रही हैं शैलप्रिया के व्यक्तित्व के उस पहलू के बारे में जो सुनता तो सबकी था, पर काम अपनी बुद्धि और अपने विवेक से करता था।- अनुराग अन्वेषी

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र, विचारों को ठोस शक्ल देने के लिए एक बैठक आयोजित करने का निश्चय हुआ। संस्था का नाम, स्वरूप, लक्ष्य क्या हो, किन-किन के सक्रिय सहयोग से कैसे उसे शुरू किया और लंबे समय तक चलाया जाये - संस्था सिर्फ महिला रचनाकारों के लिए हो या सभी युवा रचनाकरों के लिए, इसमें बड़ों की भूमिका क्या हो वगैरह मुद्दे तय करने के लिए 1989 के पूर्वार्द्ध में पहली बैठक श्रीमती माधुरीनाथजी के आवास पर आयोजित की गई। जहां तक मुझे याद है वह गर्मियों की शुरुआत का कोई रविवार था - दोपहर के तीन बजे का वक्त। मैं बैठक में देर से पहुंची थी और डॉ. नाथ के आवास के विशाल बैठक में कई प्रबुद्ध महिलाओं को बातचीत में सक्रिय पाया था। हां, वहां साहित्यिकों में पुरुष भी थे। शैलजी स्वभाववश कम बोल रही थीं और कहीं से भी ऐसा प्रतीत नहीं होता था कि वह बैठक उन्हीं की पहल पर बुलाई गयी है, कि संस्था चलाने की मुख्य जिम्मेदारी वे ही अपने कंधों पर लेने वाली हैं, कि भले ही संस्था के स्वरूप के बारे में परस्पर विरोधी बातें सामने आ रही हैं वे विचलित हुए बिना बीच की राह निकाल लेंगी... कुछेक मिनट ही बीते होंगे कि मेरे आने तक जितनी बातचीत हो चुकी थी उसकी जानकारी देने के लिए वे अपनी जगह से उठ कर मेरी बगल में आकर बैठीं। मुझे अच्छा लगा कि उन्हें यह अहसास था कि मैं बैठक में सक्रिय रूप से भाग ले सकूं इसके लिए पहले हो चुकी बातें जानना मेरे लिए जरूरी है। मतभेद के मुद्दे क्या हैं - यह भी उन्होंने मुझे बताया। बैठक समाप्त होने के बाद गली के मोड़ पर खड़े-खड़े और बाद में फोन पर हमने बातें कीं। मैं अन्य वरिष्ठों की राय ठीक-ठीक समझना चाहती थी। फिर, थोड़े से और विचार-विमर्शों के बाद संस्था ने आकार ग्रहण कर लिया। नाम : अभिव्यक्ति, अध्यक्षा : डॉ. माधुरीनाथ, सचिव : शैलप्रिया। कार्यकारिणी में मैं तथा कई अन्य। मासिक बैठकें डॉ. नाथ के आवास पर बुलायी जाने लगीं। पोस्टकार्ड पर हस्तलिखित या टंकित सूचनाएं भेज दी जातीं। शैलजी को यह खेद बना रहता था कि वे टंकन नहीं जानतीं और इस कारण सूचनाएं भेजने में उन्हें पति और पुत्र का सहयोग लेना पड़ता है।

बाद में बैठक बाहर भी आयोजित करने का निर्णय हुआ और 'सत्य भारती' का कमरा किराये पर लिया जाने लगा। किराया, सदस्यों से प्राप्त चंदे की राशि से दिया जाना था पर शैलजी यह अपनी जेब से दे दिया करती थीं ताकि चंदे से प्राप्त राशि का ज्यादा सार्थक उपयोग हो सके। बैठक में चाय-नाश्ते की व्यवस्था भी खुद ही कर दिया करती थीं। बैठक में आई लड़कियों को वापस लौटने में असुविधा नहीं हो - इसका जिम्मा उन्हें अपना लगता था और कुछेक लड़कियों को घर तक पहुंचवाने के लिए वे गोष्ठी में आये लड़कों के स्कूटर का उपयोग वे उनकी सहमति से कर लिया करती थीं। जिनके लिए किसी स्कूटर या साथ की व्यवस्था नहीं हो पाती उसे अपने पुत्रों से आग्रह करके स्कूटर से घर तक पहुंचवातीं। इस तरह लड़कियां निश्चिंत रहतीं। उन निश्चिंत लिड़कियों में मैं भी शामिल थी।
(जारी)

2 comments:

  1. संस्मरण की साझेदारी का शुक्रिया.

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  2. संस्मरण की साझेदारी का शुक्रिया.

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