'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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'शेष है अवशेष' पर कमेंट करने के लिए यहां रोमन में लिखें अपनी बात। स्पेसबार दबाते ही वह देवनागरी लिपि में तब्दील होती दिखेगी।

Tuesday, January 13, 2009

जब मां इलाज के लिए दिल्ली आई थी, पराग भइया (प्रियदर्शन) यहां अपने पांव जमाने की कोशिश में जुटा था। उस वक्त यहां उसके संपर्कों की दुनिया बेहद छोटी थी। हां, लोग उसे उसके लेखन से जानने लगे थे। फिलहाल, वह एनडीटीवी इंडिया में है।

-अनुराग अन्वेषी

मां (दूसरी किस्त)

-प्रियदर्शन



र उसका लेखन? मेरे लिए यह एक पहेली रही है कि मां कैसे लिखती है? उसका बहिरंग और अंतरंग दोनों बेहद घरेलू थे। सामान्य सी बातचीत का ढंग, प्रखर दिखने की कोई चाह नहीं, हां उसकी सरलता में कोई बात तो थी जो बहुतों को अपनी ओर खींचती थी। एक बात और है जो घर वालों को बेहद स्पष्ट है, और बाहर वालों के लिए नितांत अपरिचित। वह है उसका ऊहापोह। आमतौर पर किसी भी निर्णय तक पहुंचने में उसे मुश्किल होती थी। पापा झल्लाते रहते, रेमी खीजती रहती, मैं उकता जाता, अनुराग गुस्सा जाता, लेकिन मां सोचे जा रही है। हमारे लगातार दबावों से वह भी खीज कर करती 'ठहरो न! सोच लेते हैं।' हम सब लोग उसके इस अनिर्णय के कई-कई अवसरों के साक्षी हैं।

लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी था। कई बार एक निर्णय तक पहुंच जाने के बाद वह मजबूत से उस पर टिकी रहती, कई बार स्थितियों की सचाई का सामना करने में वह ज्यादा हिम्मत दिखाती। वह उन्हें बिना विचलित हुए स्वीकार लेती। यहां उसकी निस्संगता उसका साथ देती। मैं जब रांची छोड़कर दिल्ली आया था तो पापा काफी विचलित थे। शायद लगातार मेरे बारे में सोचा करते थे। मां ने उन्हें मजबूत करते हुए कहा था 'जाने दीजिए न! जब चिड़िया के बच्चे बड़े हो जाते हैं, वह उन्हें उड़ा देती है या नहीं !', उसका बालसुलभ दार्शनिक भाव एक बालसुलभ भंगिमा अख्तियार कर लेता, 'फुर्र!'

'फुर्र!' अब चिड़िया खुद फुर्र हो गयी है। एक बनता हुआ घोंसला छोड़कर। वैसे तो कोई भी घोंसला, कोई भी घर हमेशा बनने की प्रक्रिया में ही रहता है, मगर हमारे घोंसले को तो चिड़िया की जरूरत थी। यह चिड़िया भी कुछ अलग सी थी। तिनके बीनना इसका काम नहीं था। वह काम पापा करते थे। घोंसले को सजाना भी उसका काम नहीं था। उसकी चिंता भी अधिकतर रेमी को रहती थी। लेकिन वह घोंसला अगर घोंसला था तो उसी चिड़िया की उपस्थिति से। सारे बीने हुए को, सारे सहेजे हुए को जीवन देने का, रुलाई और खिलखिलाहट देने का काम वही करती थी।

मां की हंसी, मां का संतोष - दोनों विरल थे। मां के पास जीवन की सहजता से फूटती हुई हंसी थी। उपहास, व्यंग्य, दंभ, हास्यबोध कुछ उसमें नहीं होता था। वह सारी परिभाषाओं के परे एक उन्मुक्त हंसी थी। पापा बताते हैं कि शुरू के दिनों में मां बहुत जोर से खिलखिलाती थी, बहुत देर तक। कुछ तस्वीरों में भी यह खिलखिलाहट बची हुई है। आखिरी बार जब यह खिलखिलाहट फूटी थी और जिस घटना को याद करते हुए फूटी थी वह दोनों मुझे याद है। वह घटना मेरे भीतर एक अफसोस और रुलाई भी जगाती है, मगर मां सिर्फ हंसती थी। मां जब इलाज के लिए दिल्ली आयी थी, उस समय यहां प्लेग का प्रकोप था। खासकर अस्पतालों के आसपास लोग मुंह पर पट्टियां बांध कर घूमा करते थे। वह चार अक्तूबर की तारीख थी। उसके एक दिन पहले भी मां आयुर्विज्ञान संस्थान से लौट चुकी थी। चार ताऱीख को मैं नंबर लगाकर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। वह अनुराग और मामी के साथ आयी। मगर उसे आने में विलंब हो चुका था। उसकी बारी पार हो गयी थी। दिल्ली में किसी भी चीज का बाजार बड़ी तेजी से बनता है। उन दिनों आयुर्विज्ञान संस्थान के आस-पास प्लेग से बचाव के लिए कपड़े की पट्टियां बिकने लगी थीं। शायद तीन रुपये में एक। मैंने भी चार पट्टियां खरीद लीं। हम चारों - मैं, मां, अनुराग और मामी - मुंह पर पट्टियां बांधे डॉक्टर के पास गये। मगर हमारा क्रम पार हो चुका था। डॉक्टर ने उस दिन के आखिरी मरीज तक हमलोगों को इंतजार करवाया और बाद में विलंब हो जाने की वजह बताते हुए देखने से इनकार कर दिया। हम तीनों (शायद अनुराग बाहर था) पट्टियां बांधे डॉक्टर से अनुरोध कर रहे थे कि बहुत दूस से आये हैं और प्लीज आज देख लीजिए। मगर डॉक्टर पूरी रुखाई से पेश आ रहा था। मां ने भी डॉक्टर से मिन्नत की तब वह देखने को राजी हुआ।

डॉक्टर का अपना एक पक्ष था। उससे मुझे कोई गहरी शिकायत नहीं हो पाती। (शायद मां का य गुण मेरे भीतर है) लेकिन कमजोर बीमार मां को इतनी कातरता से डॉक्टर से अनुरोध करते देख मुझे अजीब सा लगा था। रुलाई जज्ब करने की जरूरत पड़ी थी। आज भी यह घटना मुझे तकलीफ देती है। मगर मां को इस घटना का एक दूसरा ही पक्ष याद रहा। डॉक्टर ने प्लेग से बचाव की पट्टी नहीं लगायी हुई थी। हम तीन लोग पट्टी बांधे उसके कमरे में गये थे। मां के लिए खुद भी प्ट्टी बांधकर घूमना अजीब तो था ही, मगर डॉक्टर के कमरे में प्रवेश करते समय हम तोनों की जो मुद्रा थी, उस पर वह खूब हंसती थी। बाद में भी जब-जब उसे यह घटना याद आती थी, वह हंस पड़ती थी। इसी घटना को याद करते हुए उसकी हंसी आखिरी बार फूटी थी शायद 18 नवंबर को, जब उसके पास मैं, रेमी और पापा थे।

(जारी)

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