मां की जब मौत हुई, रेमी (अनामिका प्रिया) महज 22 बरस की थी। अब तो वह दो बच्चों की मां भी है। उस वक्त उस नन्ही-सी जान पर घर संभालने की बहुत बड़ी जिम्मेवारी आ गयी थी। पराग भइया दिल्ली में था और मैं, पापा, दादी और रेमी रांची में। हम सभी एक-दूसरे की मदद करने की कोशिश करते थे, एक दूसरे को भावनात्मक सहारा देने की कोशिश करते थे। पर हमारी तमाम कोशिशें कहीं उस गैप में जाकर गुम हो जाती थीं, जो मां के न रहने से बनी थी। बहरहाल, रेमी के संस्मरण की दूसरी किस्त पढ़ें।
-अनुराग अन्वेषी
अनामिका प्रिया
(जारी)
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म सारे होंगे, लेकिन वह सहजता नहीं होगी। अगर किसी का कोई अंग काटकर अलग कर दिया जाये तो वह धीरे-धीरे अभ्यस्त जरूर हो जायेगा, लेकिन एक अस्वाभाविकता से वह मुक्त नहीं हो सकता। मां के साथ-साथ हमलोगों का चैन, इत्मीनान, सुकून, आश्वस्ति जैसे सब कुछ चला गया। सामाजिक संबंधों को निभाने में एक अभाव का अहसास होता है। जितना-जितना कुछ खो गया, वह हमलोग कभी नहीं पा सकेंगे। लेकिन संतोष रखना पड़ता है, हिम्मत जुटानी पड़ती है। मेरी गलतियों को सुधारने वाली मां, अनुराग भइया अगर नाराज होकर सोया है तो उसे मनाने वाली मां, दादी की ज्यादतियों को झेलने वाली मां की जिम्मेवारियों को पूरा करना बड़ा कठिन लगता है। कोशिश करती हूं, लेकिन बड़ा कठिन लगता है। कोशिश करती हूं, लेकिन सबके लिए उतना ध्यान संभव नहीं हो पाता, हिम्मत बार-बार टूटती है। सचमुच, वह सब इतना आसान नहीं है। मेरे पास वह एकसूत्रता में पिरोने वाली सहज हंसी नहीं है।
रांची के अंतिम दिनों में मां की तकलीफें बहुत बढ़ गयी थीं। लगातार उल्टी से वह परेशान हो गयी थी। हमलोग चाहते थे कि जल्दी दिल्ली जाये कि उसे जल्दी आराम मिले। जब वह दिल्ली चली गयी थी पापा ने बताया था कि डॉक्टर को शक था कि मां को कैंसर है। उस दिन वह मां की बीमारी को लेकर बड़े चिंतित और विचलित लगे थे। मैंने हिम्मत जुटा कर पूछा था कि जिस तरह मां की सेहत दिनोदिन गिरती जा रही थी, ऐसा कैंसर में होता है? लेकिन जांच से यह साफ हो गया कि ऐसी कोई गंभीर बात नहीं है, पापा ने बताया था। पहली बार मां को लेकर मेरे मन में किसी गंभीर बीमारी की आशंका उठी थी। मुझे लगा था अगर मां को कुछ हो गया, मेरे पापा कैसे रहेंगे।
जिस दिन मां दिल्ली जा रही थी, उसने नीचे उतरने पर मेरा हाथ पकड़ा था, कुछ कह नहीं पायी थी। बाद में उसने पापा से बताया था कि वह बात करती तो कमजोर पड़ जाती। तब हमलोग नहीं समझ पाये थे कि वह मां की अंति विदाई थी, वर्षों से जोड़ते, बनाते घर से। मां को हमेशा लगा करता कि आनेवाला समय पहले से ज्यादा सुख का समय होगा। और लगता भी क्यों नहीं, एक छोटे से नाजुक पौधे को सींचकर वह विशाल भरे-पूरे वृक्ष के रूप में देख रही थी, जिसके फलने-फूलने का अवसर निकट था। मां ने पापा से कहा था कि मुझसे जितना बन सका, मैंने घर संवारने की कोशिश की। उनको हमलोगों पर भी पूरा भरोसा था। दिल्ली में जब पापा का मन मां की बीमारी से विचलित होने लगा था, मां ने हमलोगों को तसल्ली दी थी कि आप परेशान क्यों होते हों, आपके तीन बड़े बच्चे हैं, ध्यान रखने के लिए।
एक रात की पुरानी घटना याद आती है। हम भइया और मां फिल्म देख रहे थे। फिल्म की समाप्ति पर भइया ने कहा कि उसे भूख लग रही है। मुझे अजीब-सा लगा था कि मां जाड़े की इतनी ठंडी रात में सारे दरवाजे खोलकर रसोई जाकर कितने शांत भाव से कुछ पका रही है। फिर बाद के दिनों में कई बार मैंने ऐसी व्यस्तता देखी। मां ने सातवीं-आठवीं कक्षा तक मुझे जूता पहनाया है, मेरी रुटीन सजायी है। जब मैं छोटी थी, मेरे लंबे-लंबे बालों की चोटियां बनाते हुए वह बहलाने और मन लगाने के लिए कितनी पौराणिक कथाएं और महाभारत-रामायण की कहानियां सुनाती थी।
सन् 94 यानी मां की बीमारी का पूरा साल हमलोगों के लिए बड़ी कठिनाई का साल रहा था। पापा, मां और दादी की लंबी बीमारी, भइया की एमए की परीक्षा, अनुराग भइया और मेरी ऑनर्स की परीक्षा और घर में काम करने वाली सुनीता मां भी गंभीर बीमार हुईं। इसी बीच घर में तोड़-फोड़ और मरम्मत का काम हुआ। मई-जून में कुएं का जलस्तर नीचे जाने से पानी ऊपर नहीं चढ़ने लगा। कुल मिलाकर वे दिन बड़ी कठिनाई के थे। कभी-कभी मैं घबरा जाती, मन भटकने लगता। मां मुझे हमेशा छोटी समझती रही थी। मां को लगता मुझे कुछ ज्यादा करना पड़ रहा है। वह मुझे कहीं घूम आने को कहती। मैं भी बचपना में अक्सर निकल जाती। एक बार मैं कहीं निकलना चाहती थी। मैंने मां से कहा था अगर पापा आये और पूछेंगे तो? मां ने मुझे तसल्ली देते हुए कहा ता कि मैं कह दूंगी कि तुम मेरी दवा के लिए गयी हो। मां का मन अपने बच्चे के प्रति कितना उदार होता है!
(जारी)
मां ऐसी ही होती हैं। दिल भर आया.........
ReplyDeleteजारी रखिए
ReplyDeleteऐसी यादें
पढ़ना गुनना
और समझना
।
सिखलाती हैं
आगे बढ़ने के
लिए हौसला
जुटाती हैं।