'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Wednesday, January 14, 2009

कुछ बातें आखिरी दिनों के बारे में

पराग भइया की लिखी इन बातों को मैं कंपोज कर पा रहा हूं, यही बड़ी बात है। अब इंट्रो के तौर पर कोई बात कहने की हिम्मत नहीं बची है, सिवाए इसके कि मां बेतरह याद आती है।

-अनुराग अन्वेषी

मां (चौथी किस्त)

-प्रियदर्शन
ब कुछ बातें उसके 'आखिरी दिनों' के बारे में। शायद उसके व्यक्तित्व के कुछ पहलू खुलें। वह 1 अक्तूबर 94 की रात दिल्ली पहुंची थी। उसके साथ मामी और अनुराग थे। लगभग 32 घंटे से अधिक का सफर तय करके मूरी एक्सप्रेस से उतरते हुए वह कितनी क्लांत रही होगी, इसका अंदाजा उस दिन मुझे नहीं था। अनुराग उसे बांहों का सहारा दे धीरे-धीरे स्टेशन के बाहर ला रहा था। बाहर आकर वह बैठ गयी थी। उसके चेहरे पर बड़ी क्षीण मुस्कुराहट थी। शायद मुझसे मिलने की खुशी। उसके दो दिन पहले मैंने घर फोन किया था तो वह फोन पर रोने लगी थी। मेरा मन बहुत उद्वेलित रहा था। मगर उस रात रेलवे प्लेटफार्म पर उसकी दुबली-पतली काया देखकर एक सुकून सा हुआ। हमलोग करीब 12 बजे रात को घर पहुंचे। घर पहुंच कर पता चला कि मां के खाने में बहुत परहेज है। अगले दिन उसकी तकलीफों से मेरे परिचय के दिन थे। बहुत ही सादा खाना - बल्कि खाना भी नहीं बल्कि एक या दो रोटियां, पेट में लगातार दर्द और उल्टी। इस दौरान अनुराग ने बड़ी सेवा की थी। किसी कांच के सामान की तरह हिफाजत से रखता था। मां कांच की सी हो भी गयी थी। महीने भर बाद पापा आये थे तो उनके यही शब्द थे; 'कांच की हो गयी है शैल!' मगर मां कभी किसी बात की शिकायत नहीं करती। उसकी मृदुता उस तकलीफ के बीच भी ज्यों की त्यों बनी रह गयी थी। दिल्ली का पानी मां को रास आया था। वह थोड़ा हल्का होता है। इससे मां का लगातार बना रहने वाला पेट दर्द नहीं के बराबर रह गया था। दूसरी बात यह थी कि दिल्ली के डॉक्टरों ने उसे कोई परहेज करने को नहीं कहा। यहां चीजों के स्वाद से दुबारा उसका रिश्ता बना। वह खुश रहा करती थी। वह घर के भीतर थोड़ा-बहुत टहलती भी थी और शाम को छत पर चटाई बिछाकर अक्तूबर की हल्की नम हवाओं का सुख लेती थी।

मगर ऐसा नहीं था कि इस दौरान मां को कोई तकलीफ नही नहीं थी। वह अपनी तकलीफों के बारे में बहुत कम बताया करती थी। यह शुरू से उसके स्वभाव का हिस्सा था कि वह किसी बात के लिए जोर नहीं दिया करती ती। दुकान से सौदा लाना है, बाजार से सब्जी लानी है, अपनी दवाएं भी लानी है तो 'ला दो' नहीं, बस 'ला देना' या 'ला दोगे?'

उन दिनों एक सवाल मुझे अक्सर परेशान किया करता था। मां आजीवन रांची में रही। अचानक वह बीमार होकर दिल्ली चली आयी। दिल्ली वह पहली बार आयी थी। एक अजनबी शहर में इतना उदास, अकेले और बीमार दिन काटते उसे कैसा लगता होगा? ठीक है वह अपने बेटों के पास थी, मगर वह सबकुछ छोड़कर आयी थी, अपना भरा-पूरा घर, अपने तमाम रिश्तेदार, अपने परिचित-प्रशंसक-मित्र, अपनी गलियां-सड़कें, अपना शहर, यानी अपनी पूरी दुनिया।

क्या मां व्याकुल रहा करती होगी? यहां निस्संग हो उठने की उसकी ताकत उसका साथ देती थी। उसने घर-परिवार के बारे में सोचना छोड़ दिया था। हालांकि वह बहुत दूर तक स्मृतिजीवी थी। वह नाम और तारीखें भूल जाया करती थी, मगर घटनाएं कभी नहीं भूलती थी। मेरे, अनुराग और रेमी के जन्म के समय की कथाएं, दादी, पापा या अपनी बीमारी के समय की बातें, घर के मुश्किल दिनों की यादें (पापा-मां के शुरू के कई वर्ष गहरे संघर्षों के वर्ष रहे थे) अपने बचपन की स्मृतिया, अपने स्कूल के प्रारंभिक दिनों की यादें, स्कूल-कॉलेज की सखियां, उन दिनों की चुलबुली शरारतें, उन दिनों का भोलापन, उन दिनों की गलतियां - यह सब कुछ विस्तार से कई-कई बार वह बताया करती थी। हर किसी के भीतर अपने जीये हुए दिनों का एक खजाना होता है। कई लोगों के भीतर समय और सफलता की गर्द में यह खजाना गुम हो जाता है और कई लोग खुद ही बदल जाते हैं। जैसे वे जीये हुए दिन उनके नहीं, किसी और के थे और उन्हें उन दिनों घटी घटनाओं का पता भर है उनका उनसे कोई रिश्ता नहीं है। मगर मां ने जो जीया, उससे जीवन भर रिश्ता बनाये रखा। बल्कि ऐसा लगता कि उन्होंने किसी बड़े संदूक में सारी जगहों, सारे लोगों, सारी घटनाओं, सारी पोशाकों और समूचे वक्त को बचाकर रखा है। वह समय-समय पर संदूक खोलती है और अपनी उम्र से पीछे चली जाती है, उन्हीं दिनों की पोशाक पहन लेती है और उसी समय में उन्हीं लोगों के साथ उन्हीं घटनाओं को दुबारा दुहराया करती है। यानी जीने की यह मुकम्मिल प्रक्रिया थी।

दिल्ली में भी मां यही किया करती थी मगर उस तत्काल वर्तमान से बचते हुए, जो संदूक में बंद करने लायक पुराना नहीं हुआ था और अभी रांची में, उसके घर, उसके मुहल्ले और उसकी रसोई में पसरा-छींटा हुआ है। उस समय रेमी वह सारी जिम्मेवारियां संभाल रही थी। उन्हीं दिनों पापा को पीएच. डी. की डिग्री मिली। शायद यह इक्कीस अक्तूबर की बात है। मैंने मां से आग्रह किया कि वह दिल्ली से फोन पर पापा को बधाई दे। उस समय मां बिल्कुल अच्छी लग रही थी और पूरी तरह आश्वस्त थी कि वह ठीक हो जाएगी। (उन दिनों उसने बताया था कि वह रांची में अपने बचने की उम्मीद छोड़ चुकी थी।) हमलोग भी इस आशंका से पूरी तरह बेखबर थे कि उन्हें कैंसर नाम के महाकाल ने पकड़ लिया है और वह उनकी कोशिकाओं को भीतर ही भीतर नष्ट कर रहा है। यानी यह मां की बीमारी के बावजूद हम सब के लिए सुखद दिन थे। लग रहा था कि मां जल्दी ठीक हो जाएगी। मगर मां रांची फोन करने से हिचक रही थी। वह पापा को बधाई देना चाहती थी, मगर उसे डर था कि अपने भीतर का जो दरवाजा उसने बड़ी मुश्किल से बंद कर रखा है, वह खुल जाएगा। मैंने लगातार आग्रह किया कि सुबह-सुबह फोन कर दो, पापा को अच्छा लगेगा। मां मेरे साथ बूथ तक गयी। मैंने नंबर मिलाया। घंटी बजनी शुरू हुई। मैंने रिसीवर मां के हाथ में दे दिया। पापा कहीं निकले हुए थे, फोन रेमी ने उठाया। मां 'हलो' कहते-कहते फूट-फूट कर रोने लगी। बाद में लगातार कहती रही कि मैंने इसीलिए मना किया था। सबका मन खराब हो गया होगा। यह दुःख था। मां के बहुत गहरे बसा हुआ। मां इसे खुद से भी छुपाकर रखना चाहती थी।

(जारी)

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