'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Monday, January 26, 2009

मां का बालमन

मैं 24 बरस का था, तभी मां चल बसी थी। मां के आखिरी समय में उसके पास दिल्ली में भइया, रेमी और पापा थे। मैं रांची में था दादी को लेकर। मां के आखिरी दिनों के बारे में घर के किसी भी सदस्य से मेरी आज भी कोई बातचीत नहीं होती। बल्कि कहें कि बात करने की मेरी हिम्मत नहीं होती। संस्मरण की किताब से बड़ी मुश्किल से मैं ये सारे संस्मरण कंपोज कर पा रहा हूं।

-अनुराग अन्वेषी

मै
ट्रिक तक अपनी कूद-फांद की वजह से अक्सर ही मेरे शरीर का कोई न कोई हिस्सा घायल होता रहता था और अक्सर डिटॉल या मरहम लगाते हुए मां से झिड़की सुननी पड़ती थी। मां झल्लाते हुए कहती, पता नहीं इसको क्या-क्या सूझता रहता है, कितनी बार कहा है कि शांति से घर में बैठो... तो सुनेगा नहीं। कभी पेड़ से गिरेगा, तो कभी बाल्टी से सिर फोड़ेगा, कभी कुत्ता काट लेगा, तो कभी पटाखा से हाथ जल गया। जो होना है इसी को होता है, देखो पराग भी तो है एक बच्चा, उसको चोट क्यों नहीं लगती? मैं चुपचाप गरदन नीचे किये हूं। आशंका है कि सफाई में कुछ कहूंगा तो शायद एक-दो चपत और मिल जाए।

मां की जो आदत मुझे बहुत प्यारी लगती है, वह थी उनकी खिलखिलाहट। इतनी तेज और इतनी निश्छल हंसी इस घर के किसी सदस्य के पास नहीं। पापा भी बड़ी तेज हंसते हैं, उन्मुक्त भाव से। लेकिन उनकी हंसी में वह आंतरिक खुशी नहीं झलकती जो मां की हंसी में थी।

मां के पास संस्मरण खूब थे और ऐसे-ऐसे कि हम सभी हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते थे। अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए मां बतलाती थी कि उस समय पहली या दूसरी कक्षा में वह रही होगी। परीक्षा के दिन थे। प्रश्न था कि नाक से सांस लेनी चाहिए या मुंह से। मां की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या लिखे। फिर उसने दिमाग खपाया और उत्तर उसे सूझ गया। उसने लिखा कि सांस मुंह से लेनी चाहिए क्योंकि मुंह का छेद सीधा होता है जबकि नाक का छेद नीचे से ऊपर की ओर। इसलिए नाक में हवा को घुसने में परेशानी होती है...।

एक दूसरी घटना मां ने ही बतायी थी। मुहल्ले की बड़ी लड़कियों के साथ मां स्कूल जाया करती थी। उस वक्त संभवतः बरसात का मौसम रहा होगा। मां कंधे पर बंदूक की तरह बड़ा छाता रख छोटे-छोटे कदमों से चला करती थी। धीमी चाल की वजह से उन लड़कियों से अक्सर टांट सुननी पड़ती। तेज चलने की कोशिश में लड़खड़ाने पर फिर से डांट। एक रोज हुआ क्या कि छोते के ऊपरी हिस्से में किसी लड़के का गला फंस गया। मां अपनी धुन में आगे बढ़ी जा रही है, लड़का अरे रे sss किये जा रहा है। दीदियों ने पलट कर मां को देखा और खूब टांट पिलाईं। उस रोज मां ने आकर अपने बाबूजी से कहा - हम दीदी लोग के साथ स्कूल नहीं जाएंगे। केवल टांटती रहती हैं। अब, जरा आप ही बताइए कि हम आगे देख के चलें, कि पीछे, कि नीचे?

और इतना बताने के बाद मां फिर से ठठा कर हंस पड़ती थी। हमलोग तो उस दृश्य की कल्पना कर बेहाल हुए जाते थे और मां तो उसी उम्र में पहुंच कर खिलखिलाती रही थी।

मां के भीतर इतनी उम्र के बाद भी बचपन का वह निश्छल मन बचा रह गया था। मां न तो बातों को घुमा कर कहना जानती थी, और न ही गंभीरता से झूठ कहना। मैं या मेरे जैसा कोई भी व्यक्ति किसी को बरगलाना चाहे या किसी को फुसलाना चाहे तो अपने शब्दों से, अपनी प्यारी बातों से फुसला सकता है लेकिन मां... उसका तो शायद इस रणनीति से पाला ही नहीं पड़ा था। सोचता हूं कि इतना निर्दोष महिला कई बार छली गई होगी। लेकिन दूसरी तरफ यह भी लगता है कि छलने वाला जब महसूस करता होगा मां के निर्मल मनोभावों को , तो शायद अपना इरादा बदल देता होगा।

मैंने कई-कई बार मां से झूठ कहा; कभी इस काम के लिए तो कभी उस काम के लिए। लेकिन हर झूठ के बाद मुझे शर्मिंदगी का अहसास होता था। मुझे लगता था कि शायद बहुत बड़ा अपराध कर रहा हूं मैं; नतीजतन, दूसरे-तीसरे दिन तक मां को सारी सच्ची बातें बता दिया करता। मां ऐसे में सिर्फ मुस्करा दिया करती और मुझे बड़ी राहत मिलती थी।
(जारी )

3 comments:

  1. बहुत ही मार्मिक .......अच्छा लेख


    अनिल कान्त
    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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  2. मॉं शब्‍द की व्‍याख्‍या करना और एक मॉं के हुदय की थाह पाना किसी के बस की बात नहीं है । परिभाषाएं छोटी पड़ जाएगी और शब्‍द कम । आपका संस्‍मरण पढ़ा । बहुत अच्‍छा लगा ।

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  3. आपने अपनी माँ का चित्रण कर जो छवि बनाई है वह बेहद मोहित करने वाली है।
    घुघूती बासूती

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