आत्मवंचना
बड़ी मुश्किलों को दौर होता है
जब आदमी होना
संत्रास बन जाए
हमारे सोच की परिधि
सिर्फ अपने को ही घेर ले तो खुद से भय होता है
इस तिलिस्म से
छूटने की छटपटाहट
किसमें नहीं होती
लेकिन हम सब
आत्मवंचना में जी रहे हैं अपना लहू पी रहे हैं।
-अनुराग अन्वेषी, 11 फरवरी'95,
सुबह 10.25 बजे
यांत्रिक घर में
बाढ़ की विभिषिका
लाती है नदी।
जिंदगी मुहानों को तोड़ती है।
प्रदूषित सभी दिशाओं के पर्यावरण में
आंदोलित है
आदमी।
आदमी बीमार फेफड़ों में
ताजा हवा भरने को आतुर है।
मगर अपने अभिशप्त घर में
दिया सलाई लगाकर
एक-दूसरे को डराकर
हम जी रहे हैं।
अपना लहू पी रहे हैं।
(शैलप्रिया की कविता 'अभिशप्त घर' उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)
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