भइया ठीक कहता है 'मन के कई दरवाजे ऐसे होते हैं, जिनकी कुंजी शब्दों के पास भी नहीं होती। शब्द दस्तक देते हैं, और लौट आते हैं। मां... बस... मां... है। इससे ज्यादा बताना मेरे लिए मुमकिन नहीं!' वाकई यही मैं भी महसूस करता हूं।
-अनुराग अन्वेषी
मां
को बहुत थोड़े में संतोष हो जाता था, चाहे वह खाने की कोई मनपसंद चीज हो या फिर शौक की कोई और चीज। पापा एकतरफ जितने मुक्तहस्त रहे खर्च के मामले में, मां उतनी ही बंधे हाथ। लेकिन ऐसा भी नहीं कि मां के इस स्वभाव को कंजूसी कहा जा सके। पापा एक झटके में कुछ भी खरीद लिया करते हैं, मां खरीदने से पहले कई बार उसकी उपयोगिता पर विचार करती थी। पापा और मां के ऐसे स्वभाव का ही यह नतीजा है कि आज हमारे पास जीने के जरूरी साधन हैं। पता नहीं इस साधन को इकट्ठा करने के लिए मां ने कितनी ही मनपसंद चूड़ियां, साड़ियां और अपने शौक के अन्य दूसरे सामानों का त्याग किया होगा। लेकिन कभी मां के चेहरे पर इस त्याग का दर्द नहीं उभरा, बल्कि हमेशा गहरा संतोष दिखता रहा। शायद यह संतोष सिर्फ हमें छलने के लिए होता होगा, और मन के भीतर दूसरे साधनों की चिंता रहती होगी और उचित अवसर के मुताबिक फिर एक नये सामान की खरीदारी और चेहरे का संतोष और भी गहरा।
उनको फिल्मों से विशेष लगाव था। टीवी पर कोई भी फिल्म चल रही हो, मां बड़े शौक से देखा करती थी। और ऐसे में अगर लाइट कट जाती तो मां के चेहरे पर झल्लाहट साफ झलकती थी। फिल्मों के प्रति मां के विशेष लगाव के कारण ही घर में वीसीआर आया। लेकिन मुझे याद नहीं आता कि मां ने कभी कहा हो कि फलां फिल्म का कैसेट ले आना अनुराग। मां ने कभी भी ला दो या फलां काम कर दो, नहीं कहा, बल्कि उनके कहने का ढंग होता कि आराम से, अभी नहीं, अमुक काम कर देना, या कर दोगे? मां की इस आदत पर मैं खीज जाता, चूंकि अक्सर मुझे आशा रहती कि मां मुझे आदेश करेगी कि अमुक काम अभी कर दो। यह मां का संकोच नहीं बल्कि उसकी सरलता थी।
उसके स्वभाव की एक खासियत और थी कि वह अपने बिगड़े मूड पर बहुत जल्दी काबू पा लिया करती थी, और फिर से सहज होकर अपने काम में लग जाती। मां की यह खासियत भइया के स्वभाव में स्पष्ट दिखती है। जबकि पापा और मेरे साथ ठीक उल्टा है, एक बार मन उखड़ा तो फिर संतुलित होने में एक-दो दिन तो लग ही जाते हैं। इस बीच सारे काम ठप, चाहे वे कितने भी जरूरी क्यों न हों।
भइया जब दिल्ली जा रहा था दूसरी बार, यह लगभग तय था कि भइया वहां रहेगा। पापा, रेमी, दादी, मां सभी का मन अशांत था लेकिन सबकी अपेक्षा मां संयत दिख रही थी। दो-तीन महीने बाद भइया जब वहां से लौट कर आया कुछ दिनों के लिए, मां बहुत खुश थी। मां को खुशी इस बात की भी थी कि भइया जो रांची में रहते हुए चाय तक बनाना नहीं जानता था, वह वक्त के साथ सब कुछ सीख रहा था। भइया का कोई भी लेक छपता, मां पूरा पढ़ा करती थी (अमूमन वह पढ़ती कम थी) और उसके मुंह से निकलता - बढ़िया लिखता है। भइया अक्सर रविवार की रात फोन किया करता था। पहले यह दिन शनिवार का हुआ करता था। मां की जब तबीयत खराब हो चुकी थी यानी 94 में भी मां देर रात तक जाग कर फोन का इंतजार किया करती थी। कई बार नींद आती रहती तो मां उठ कर कमरे में टहलने लगती। ऐसा भी नहीं कि फोन आने पर खुद ही फोन उठाती बल्कि पापा से कहती कि पराग का फोन है।
(जारी)
No comments:
Post a Comment