इस साल मैं 42 का हो जाऊंगा। मां 48 की थी, जब हम लोगों को छोड़कर गई। जल्द ही मैं उसकी उम्र छू लूंगा। अब समझ में आता है, ज़िंदगी ने उसे कितना कम समय दिया। यह कम समय भी उसने हम लोगों के लिए लगाया। मुझसे तो वह अपनी मृत्यु से साल भर पहले से अलग रही। मैं दिल्ली में था और वह रांची में बैठकर मेरी मुश्किलों और छिटपुट सफलताओं का अंदाजा लगाया करती। मेरी प्रकाशित एक-एक रचना पर वह इतनी खुश होती, जितना अपनी पूरी किताब पर कभी नहीं दिखी। 1 दिसंबर 1994 को वह हमारे बीच से चली गई। उसके आखिरी छह महीने बहुत तकलीफ में गुजरे। यह तकलीफ दर्द रोकने की कोशिश में उसकी काली पड़ गई कुहनियों और कातर होते चेहरे पर भी चली आती। लेकिन वह कभी उसके मन पर छा नहीं सकी। वह बहुत शांत भाव से गई। 14 साल में हम सबका जीवन बहुत बदल गया, उसमें बहुत सारे लोग आ जुड़े- लेकिन मां के नहीं रहने से जो खालीपन है, वह बना हुआ है।
-प्रियदर्शन
मेरे भीतर एक दरवाजा बार-बार खुलने को होता है और बार-बार मैं उसे बंद करना चाहता हूं।
इस दरवाजे के भीतर की दुनिया में मां है। वह बाहर की दुनिया छोड़ गयी है। हालांकि अब भी मुझे यकीन नहीं होता।
...पिछले साल नवंबर में उसे अहसास हो गया ता कि उसे कोई गंभीर रोग है। उसने कभी उसका नाम जानने की कोशिश नहीं की। अपनी कमजोर आवाज मं बस इतना कहा था 'अब हमलोगों को मन मजबूत कर लेना चाहिए...' इस कांपती हुई आवाज में वह सहज मृदु दृढ़ता थी जो उसका निजी गुण रही। वह कभी कातर नहीं हुई। या उसने इस कातरता को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया।
गोकि उसने तकलीफें झेली थीं, पापा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ती रही थी। पापा के तने भंवों और लंबे समय तक पेशानियों पर पड़े रहने वाले बल की खूब-खूब याद है, लेकिन मां ने कभी ऐसे किसी तनाव को स्थायी बनाया हो, याद नहीं है। यह मां की ताकत भी थी और कमजोरी भी। ताकत इसलिए कि अपने इसी गुण की वजह से वह कई छोटी-मोटी चीजों से बड़ी आसानी से ऊपर उठ जाती थी, और कमजोरी इसलिए कि इसी की वजह से वह पर्याप्त आक्रामक और महत्वाकांक्षी नहीं हो पाती थी।
तब उसमें उतनी करुणा नहीं होती, जितनी थी। यह सिर्फ एक मां की अपने बच्चों के प्रति करुणा नहीं थी। दूसरों का दुःख दूसरों से ज्यादा उसका हो जाता था। एक बहुत बचपन की घटना याद आती है। मेरे कान में एक जख्म था जिसके इलाज के लिए मां के साथ मैं आर.एम.सी.एच जा रहा था। उस दिन टेंपो वालों की मेडिकल के छात्रों के साथ कोई झड़प हुई थी। और इसका खमियाजा हमारे टेंपो वाले को भुगतना पड़ा। हमलोग जैसे ही टेंपो से उतरे, कुछ छात्रों ने उसे घेर लिया और धक्का-मुक्की करते हुए एक-दो तमाचे जड़ दिये। बात आयी-गयी हो गयी। टेंपो वाला गाल सहलाता हुआ निकल गया था। इस घटना ने मां को बिल्कुल स्तब्ध कर दिया था। सहमा हुआ मैं भी था, लेकिन मां उस टेंपो वाले को भूल ही नहीं पा रही थी। आज सोचता हूं तो लगता है कि पता नहीं, उस टेंपो वाले को कितनी चोट पहुंची थी, मगर मां उसकी यंत्रणा कई दिनों तक झेलती रही थी।
(जारी)
आपकी मां से मिल कर अच्छा लगा।
ReplyDeleteआलेख बहुत अच्छा लगा .....अगली कडी का इंतजार रहेगा।
ReplyDelete