अनियतकालीन पत्रिका 'प्रसंग' ने मां की मौत के बाद उनपर केंद्रित एक अंक छापा था। हालांकि मां से जुड़े संस्मरणों को पढ़ने की हिम्मत मैं कभी नहीं जुटा पाया। पर इस ब्लॉग के लिए उन संस्मरणों की कंपोजिंग का काम किसी तरह कर ले रहा हूं। इससे पहले पापा विद्याभूषण का लिखा हिस्सा इस ब्लॉग पर डाल चुका हूं और आज छोटी बहन रेमी (अनामिका प्रिया) की लिखी बातें कंपोज करने की हिम्मत जुटा रहा हूं। फिलहाल, अनामिका प्रिया विनोबा भावे विश्वविद्यालय में हिंदी की लेक्चरर हैं।
-अनुराग अन्वेषी
क दिसंबर की रात 10:15 बजे मां ने हमारे सामने दम तोड़ दिया था। हम कुछ नहीं कर सके। सब कुछ तरंत-तुरंत होता गया कि कुछ समझने का भी मौका नहीं मिला। हम लोग पुकारते रहे, कोशिश में कि उसकी लुप्त होती जा रही सांसों को, उसकी डूबती-खोती जा रही चेतना को अपनी पुकार से फिर इस दुनिया में खींच लायेंगे। लेकिन उसकी आंखें कहीं नहीं देख पा रही थीं। लगा कुछ गजब हो गया है। कुछ ऐसा जो नहीं होना चाहिए था। उस समय मां के पास बस हम तीन लोग थे, जबकि रांची में स्वजनों का कितना लंबा-चौड़ा संसार है। एक ओर कमजोर हो रहे पापा थे और दूसरी तरफ सब्र बांधे मां को रांची ले जाने की तैयारी में भटकता हुआ भइया था। यह तो कोई अनहोनी हो गयी थी। मन बहुत बेचैन होने लगा। अब क्या होगा। किस मुंह से हमलोग अब रांची जायेंगे। किस तरह हमलोग दादी को बतायेंगे कि मां को वापस नहीं ला सके। डॉ. घोषाल की दवा चलने के बाद अनुराग भइया बड़ी उम्मीद के साथ रांची लौटा था कि मां ठीक हो जायेगी।
उस समय जो सबसे कठिन काम लग रहा था, वह था रांची जाने के लिए सामान समेटना। सामान पूरे इत्मीनान के साथ घर में पसरा था कि हमें दिल्ली में लंबे समय तक रहना होगा। मां के चप्पल, रुमाल, पर्स, घड़ी, बिस्किट का अधखाया डब्बा, चूड़ियां, लवंग, इलायची, स्वाद और न जाने कितने तरह के सामान थे। इन्हें समेटने के ख्याल से मन बहुत घबराया, खूब रुलाई आई। हमेशा की तरह मां से हिम्मत मांगती रही, और मिली भी, आज भी मिलती है। मन में हाहाकार मचा था, लेकिन अकेले पापा का ख्याल अंत-अंत तक रखने की कोशिश की।
मां की साड़ियों और कपड़ों को समेटकर सूटकेस में रखना था। बाहर छत पर मां का तौलिया, उसकी नाइटी, मोजे आदि सूख रहे थे। शाम को उन्हें सूखते देखकर मां ने सोचा भी नहीं होगा कि उन्हें उसके मरने के बाद उतारा जायेगा। लगा, जैसे कोई चलते-चलते एकाएक रुक गया हो। मां की कितनी साड़ियां नयी थीं, कई ऐसी जिन्हें बहुत कम बार पहना गया था। बीमारी के दिनों में खरीदी साड़ियां मां पहन नहीं पायी थीं। एक नई साड़ी थी दशहरे में पहनने के लिए, लेकिन मां इतनी बीमार थी कि पहन नहीं पायी।
मां के दिल्ली जाने के बाद घर तो सूना हो ही गया था, पापा के जाने के बाद तो वह और घना हो गया था। दीपावली की सुबह मन बहुत खराब लगा था। बहुत देर तक सुबकती रही थी। अनुराग भइया के आने से थोड़ी राहत मिली थी और मां ठीक हो जायेगी, इसकी आश्वस्ति भी। मां ने दिल्ली में पापा को बताया था कि रांची में वह उम्मीद छोड़ चुकी थी, लेकिन अब उसे लगता है कि एम्स के इलाज से वह ठीक हो जायेगी। मां का आत्मविश्वास लौट आना बड़ी बात थी। जिस दिन मां रांची से गयी थी, वह इतनी कमजोर और थकी लगी थी कि पापा ने कहा था कि जाने के बाद तो इलाज हो ही जाना है, लेकिन हमलोगों की पहली कामयाबी यही होगी कि वह यह लंबा सफर तय कर ले। दीपावली की शाम हम दोनों भाई-बहन दीये सजा रहे थे। ख्याल आता रहा कि किस तरह मां अभी पूजा की तैयारी मे जुटी होती थी, सीधा पल्ला साड़ी पहने। पापा निर्देश देते, अनुराग भइया अनमना-सा काम में जुटता, पराग भइया हंसता हुआ और मां व्यस्त-सी। किस तरह से छितरा गया हमारा परिवार।
अब तो लगता है कि छितरापन स्थायी हो गया है। एक व्यक्ति के नहीं रहने से जैसे घर का सारा समीकरण बदल गया है। पापा के भविष्य की सारी योजनाएं, सारी कल्पनाओं की दिशा बदल गयी है। मां-पापा अक्सर सोचा करते थे कि तीनों बच्चे बाहर रहेंगे। जब किसी को कभी आना होगा, हम उत्साह से तैयारी करेंगे। लेकिन आज सबसे ज्यादा भरे मन से विदा करने वाला न वह हृदय है और न ही हमारे आने पर सबसे ज्यादा खिलखिलाने वाला मन। हमारी सफलताओं पर सबसे ज्यादा खुश होने वाला व्यक्ति आज नहीं है। लगता है किसके भरोसे हम तीनों पापा को छोड़कर रांची से बाहर रह सकेंगे। यहां पापा के साथ कौन हमारा इंतजार करेगा। निरंतर गिरती जा रही सेहत वाली दादी के लिए मां से बड़ा सहारा कोई नहीं हो सकता। आनेवाली पीढ़ी को किस तरह यह कमी खलेगी। मां जब हंसकर कहती थी कि संभालना तो मुझे ही पड़ेगा न, उसके मन के किसी कोने में भी अविश्वास नहीं उभरता होगा कि वह उस दिन अपनी जिम्मेवारियों को पूरा करने के लिए नहीं रहेगी।
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