दरअसल, शैलप्रिया ने बैसाखी थामने की बजाय लंगड़ा कर चलना मंजूर किया और बाद के दिनों में अपनी चाक पर अपना चेहरा खुद गढ़ा। इससे अधिक सही बात यह है कि स्वयं लड़खड़ाते हुए भी उन्होंने अपने जीवन साथी को हमेशा सहारा दिया। सन् 63 से 70 के बीच साहित्य की एक छोटी-सी पारी खेलकर विद्याभूषण ने पिच की ओर पीठ कर ली थी। सन् 85 तक आते-आते विद्याभूषण की अपनी नाव जिंदगी की रेत में औंधी पड़ चुकी थी। शैलप्रिया ने ही उसे फिर से लहरों के हवाले किया। पति के टूटे-दरके आत्मविश्वास को संबल और टेक दी।
शैलप्रिया की मनोरचना एकरेखीय नहीं थी। अनेक आड़ी-तिरछी, एक-दूसरे को समानानंतर काटती रेखाओं से बन सकती है वह तस्वीर। दूर से जो निपट सरलता दिखती थी, वह जटिल सादगी थी जिसपर उनका सहज मन शासन करता था। एक उदाहरण से शायद बात तनिक सुस्पष्ट हो। सन् 86 से सन् 94 के दरम्यान रांची के नाट्य प्रदर्शनों, लोकार्पण समारोहों, विचार गोष्ठियों, नुक्कड़ कार्यक्रमों, साहित्य उत्सवों और सांस्कृतिक आयोजनों और महिला संगठनों में शैलप्रिया और विद्याभूषण अक्सर साथ-साथ पहुंचते थे। घर से दोनों साथ निकलते थे, लेकिन कार्यक्रम स्थल पर पहुंच कर वे अलग हो जातीं। किसी ने किसी कार्यक्रम में दोनों को अगल-बगल की कुर्सियों पर संग-साथ बैठे शायद ही देखा हो। वापसी में भीड़ में एक दूसरे को खोजकर दोनों साथ घर लौटते। इस व्यवहार का मनोविज्ञान शायद यही था कि विद्याभूषण के किसी 'प्राप्तव्य' में अर्द्धांगिनी के रूप में हिस्सेदारी उनको आत्मसम्मानजनक नहीं लगती थी। उन्हें अपने बूते जो और जितना मान-पहचान मिल सकती थी, वही उनको स्वीकार था।
बहुत बार रात के कार्यक्रमों में वे विद्याभूषण के साथ बेटे प्रियदर्शन को भेज देतीं क्योंकि प्रियदर्शन का जाना उन्हें ज्यादा जरूरी लगता था। घर में दुपहिया वाहन एक ही जो था। जाहिर है, अपनी इच्छा को वे दरकिनार कर देती थीं। सुलभ दिखते अवसर को लपक लेना भी उनकी प्रकृति के विरुद्ध बात थी। एक बार डॉ. द्वारका प्रसाद के आवास पर बालशौरि रेड्डी के सम्मान में चाय पार्टी थी। रेड्डी जी ने 'परिषद भारती' के लिए शैलप्रिया से कविताएं मांगी थीं। वे कविताएं कभी नहीं गयीं। इसी तरह इंटरव्यू के कई असर उन्होंने यूं ही गुजर जाने दिये। घर में आये अतिथि बृजबिहारी शर्मा हो, या भारत यायावर, राघव आलोक हों या शंभु बादल, रमणिका गुप्ता हों या ललन तिवारी, शिवशंकर मिश्र हों या कोई अन्य पत्र-प्रतिनिधि मित्र, शैलप्रिया ने हमेशा जरूरत भर हाल-समाचार पूछ-कहा, मगर अपनी रचनाओं का प्रसंग किसी ब्याज से नहीं आने दिया। किसी ने प्रशंसा में कुछ कहा तो मौन स्मिति से आभार जता दिया, बस। इस खामोशी में एक रचनाकार का आहत अहं भी हो सकता है।
उनका चेहरा पोटोजेनिक था। लिहाजा उनकी तस्वीरें अच्छी आती थीं। मगर वे किसी भीड़ में कैमरे के सामने आने की कोशिश नहीं करती थीं। उनके निधन के बाद उन पर एक वीडियो फिल्म बनाने के लिए पारिवारिक-सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजनों के दर्जन भर कैसेट जुटाये गये। उनमें तलाशा गया तो बमुश्किल दो-एक जगहों पर वे दिखलायी पड़ीं। किसी सार्वजनिक कार्यक्रमें में समयपूर्व पहुंच कर भी कुर्सियों की अगली कतार में बैठना उन्हें पसंद नहीं था। रुचि वैविध्य के नाम पर बताने योग्य उनके शौक कई थे - फिल्म, ताश और लूडो के खेल, चाय, गुल, मीठा पान, चाट, गपशप, मिलना-जुलना, दूसरों के सुख-दुख में साझेदारी, बेतकल्लुफी, यात्रा, सतर्क सादगी और निर्मल हास्य-विनोद।
सन् 89 के बाद वे धीरे-धीरे खुलती जा रही थीं। वर्ष 91 में प्रकाशित 'चांदनी आग है' की कई कविताओं से उनके प्रशंसकों की संख्या बढ़ने लगी थी। उनका आत्मविश्वास पायेदार बन चुका था। उनकी गतिविधयों में गंभीरता, सूझ-समझदारी, विविधता और विस्तार का समावेश गहराने लगा था। विभिन्न संस्थाओं के आयोजनों में उनको सौंपे गये दायित्वों से यह अंदाज होता है कि उनकी भागीदारी उपयोगी मानी जा रही थी। उनकी सरल-स्नेहमयी गृहणी की पुरानी छवि की जगह समर्पित और संघर्षशील महिला की नयी छवि जन्म ले रही थी।
उन्हें जीवन, समाज और साहित्य में किसी सार्थक भूमिका की तलाश थी। वह तलाश अधूरी रह गयी। पंख फैला कर खुले आसमान में उड़ने की आकांक्षा धराशायी हो गयी। रौंदते पांवों को नकार कर नंगे पांव दौड़ने का संकल्प थम गया। अभावग्रस्त जिंदगियों में दीवाली का आलोक फैलाने की प्रतीक्षा करने वाली आंखें हमेशा के लिए बंद हो गयीं। आग बनती चांदनी बर्फ बन गयी। 1 दिसंबर 1994 की रात लगभग दस बजे ताकत की दवा मांगती आवाज लड़खड़ा गयी।
उन्हें जीवन, समाज और साहित्य में किसी सार्थक भूमिका की तलाश थी। वह तलाश अधूरी रह गयी। पंख फैला कर खुले आसमान में उड़ने की आकांक्षा धराशायी हो गयी। रौंदते पांवों को नकार कर नंगे पांव दौड़ने का संकल्प थम गया। अभावग्रस्त जिंदगियों में दीवाली का आलोक फैलाने की प्रतीक्षा करने वाली आंखें हमेशा के लिए बंद हो गयीं। आग बनती चांदनी बर्फ बन गयी। 1 दिसंबर 1994 की रात लगभग दस बजे ताकत की दवा मांगती आवाज लड़खड़ा गयी। अंधेरे में डूबी रोशनी की लकीर पर उस रात पटाक्षेप का परदा गिर गया।
बेहतरीन स्मरण ! रचनाकार के इतने नजदीक होते हुए आपने उनकी रचनात्मक व्यवहारों और उनसे जुड़े प्रसंगों को जिस कुशलता से याद किया है, वह वाकई काबिल-ए-तारीफ है। यह साधारण काम नहीं होता, खासकर तब जब आप रचनाकार के व्यक्तित्व का हिस्सा हों। आपने सहसा अज्ञेय जी की याद दिला दी। धन्यवाद।
ReplyDeleteप्रिय अनुराग
ReplyDeleteबहुत सुंदर. मैंने उन्हें पास से देखा था इसलिए थोड़ा ज्यादा रिलेट कर सकता हूँ बाकी लोगों के मुकाबले, पुत्र होने का कुछ संकोच भी दिख रहा है प्रशंसा करने के मामले में. 22 वर्षों के लगभग रोज़ के आाने-जाने, मिलने-जुलने के दौरान चाचीजी के मुँह से कभी कोई ऊँची आवाज़, कड़वी बात या ओछी टिप्पणी किसी के बारे में नहीं सुनी. विनम्रता, शालीनता और जीवट से भरी चाचीजी याद आ गईं, 14 साल हो गए उन्हें गए हुए. बहुत अच्छा काम किया इंटरनेट पर उनकी स्मृतियों को हमेशा के लिए डालकर.
राजेश प्रियदर्शी