'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Tuesday, January 20, 2009

साक्षी


आग-राग

आग मेरे भीतर है।
राख मैं भी हुआ हूं।
पर आग, किसी समझौते का नाम नहीं मित्र।
बल्कि आग होना नियति हो गयी।

जब सभी संभावनाएं
शेष हो जाएं,
तो आग साक्षी होती है,
हमारे उबलने की।
और हम लिख देते हैं,
उम्र की चट्टान पर कई अक्षर।
इस उम्मीद में,
कि शायद कभी,
फिर कहीं पैदा हो
आग।

-अनुराग अन्वेषी, 9 फरवरी'95,
रात 1.00 बजे

जिस अग्नि को साक्षी मान कर
शपथ लेते हैं लोग,
उस पर ठंडी राख की परतें
जम जाती हैं।
मन की गलियों में
भटकती हैं तृष्णाएं।
मगर इस अंधी दौड़ में
कोई पुरस्कार नहीं।

उम्र की ढलती चट्टान पर
सुनहरे केशों की माला
टूटती है।
आंखों का सन्नाटा
पर्वोल्लास का सुख
नहीं पहुंचाता।
मगर एक अजन्मे सुख के लिए
मरना नादानी है,
जिंदगी भंवर में उतरती
नाव की कहानी है।
(शैलप्रिया की यह कविता उनके संकलन 'चांदनी आग है' से ली गयी है)

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