पराग भइया दिल्ली में अकेला रह रहा था, पांडव नगर के उसी मकान में जहां मां ने अपने जीवन के आखिरी दिन गुजारे। रांची में तो मैं, पापा और रेमी एक दूसरे को दिलासा देने के लिए थे, पर भइया दिल्ली में बिल्कुल तनहा था, बिल्कुल अकेला। पर इसी बीच उसे जनसत्ता में बतौर असिस्टेंट एडिटर बुलाया गया। वह जुड़ गया एक नयी जिम्मेवारी से।
-अनुराग अन्वेषी
ध्यान आ रहा है कि ऊपर लिखे हुए हिस्सों में मैंने कहीं उसकी रचना की बात की थी। वह कैसे लिखती थी? क्या वह खुद को रचती थी? खुद को रचना एक पुराना मुहावरा हो चुका है। मगर मां के निकट मैं वाकई इस मुहावरे को इसके सही और संपूर्ण अर्थ में खुलता देखता हूं। दरअसल वह खुद ही कविता थी - किसी निश्चित विचार-सरणि से बनी हुई नहीं, मगर स्वतः स्फूर्त भावों की अनगिनत, अनजानी और कभी-कभी एक दूसरे को काटती हुई, लहरों से रची हुई। लिखना उसके लिए गंभीर काम तो था, मगर एक सचेत पेशेवर नजरिये से उसने कभी लेखन को देखा नहीं। वह बस लिख देती थी - बेहद अछूते बिंबों का गुच्छा हुआ करती थीं उसकी कविताएं, एक गहरे मार्मिक स्पर्श से युक्त। कई बार लिखते हुए (या 'लिखते हुए' कहना भी गलत होगा, क्योंकि लिखना उसके लिए सायास प्रक्रिया नहीं रहा, हां उन अवसरों को छोड़कर, जब आकाशवाणी के लिए उसे कविताएं लिखनी पड़ती थीं) वह बस तीन-चार वाक्यों में कोई एक बिंब रख देती थी, फिर कुछ दिन बाद कोई दूसरी लहर आती होगी और एक नया बिंब - इस तरह धीरे-धीरे उसकी कविताएं आकार लेती थीं। अनगढ़ - लेकिन शब्दों के भीतर एक गहरी चमक पैदा करते हुए जैसे किरणें झरनों और चट्टानों में चमक पैदा कर देती हैं। उसके शब्दों और उन शब्दों में छुपे अर्थों की पहचान पापा के पास बहुत गजब रही है। कई बार उन्होंने उन समूहों को जोड़ा था और हर बार कोई विरल अनुभव संजोए एक कविता उपस्थित हो जाती थी।
'जिंदगी से कविता
कविता से दिवास्वप्न
स्वप्न से शून्याकाश तक फैला है
मेरा विस्तार'
'हम सब तलाशते हैं
क्षितिज सी मंजिल
सागर मंथन में
कोई मूल्यवान मोती खोजने की अमृत प्यास'
और
'ओ मेरे मन
तुम्हारा प्रवाह कहा है?
रास्ते धूल से भरे हैं
रिक्तता तिरती है
लहरों के गर्भ में'
ये पंक्तियां और ऐसी ढेर सारी पंक्तियां मां की कविता में व्याप्त भावप्रवणता को सामने रखती हैं। 'सागर मंथन में कोई मूल्यवान मोती खोजने की अमृत प्यास' मां के लिए जीवन की उस भावनात्मक तलाश का ही हिस्सा थी जिसे हमेशा अपरिभाषित रहना पड़ता है। जीवन में कुछ है, जो मूल्यवान है, जो सारी यातनाओं के बीच भी जीवन को न सिर्फ जीने योग्य बनाता है, बल्कि उसे एक नैतिक आलोक से युक्त भी करता है। शायद यह मोती हम सबके भीतर है, बाहर नहीं। इसलिए यह तलाश भी अपने भीतर होती है, बाहर नहीं। मां की कविता अपने भीतर घूमती कविता थी - अपने भीतर की जिंदगी, कविता, सपनों और वहीं फैले शून्याकाश को टटोलती हुई, उसकी प्रदक्षिणा लेती हुई।
अचानक एक बात और ध्यान आ गयी, उसकी कविता से नहीं उसके व्यक्तित्व से जुड़ी हुई। पापा और मां के बीच तुलना करते हुए मैंने एक बात और पायी है। पापा विचार से आधुनिक हैं, मगर भावना उनकी कई मामलों में रूढ़िवादी है। हालांकि उनके व्यक्तित्व का वैचारिक पक्ष इतना मजबूत है कि वह भावना टिक नहीं पाती। वह अंततः आधुनिकता के पक्ष में खड़े होते हैं, मगर कोशिश करके। मां के साथ बात थोड़ी अलग थी। वह स्वभाव से, संस्कारों से कई मामलों में परंपरागत दिखाई पड़ती थी मगर मन उसका आधुनिक था। वह आधुनिकता के पक्ष में शायद बहुत ज्यादा दलील नहीं कर पाती, मगर उस खाने में खड़ा होना उसके लिए हमेशा आसान रहा।
(जारी)
शायद कुछ गलिया ऐसी होती है जिनसे जब गुजरते है तब लगता है इन्हे ओर बेहतर बना सकते थे....गर इस याद को यूँ पकड़ा होता...माँ को दुबारा से महसूस करना कही जाने अनजाने अजीब सी पीड़ा से गुजरना है....चाहे पढ़ी लिखी लेखिका माँ हो या गाँव की सीधी साधी माँ ...
ReplyDelete'जिंदगी से कविता
ReplyDeleteकविता से दिवास्वप्न
स्वप्न से शून्याकाश तक फैला है
मेरा विस्तार'
पहले भी इसकी किश्ते पढ़ी थी .पर उस पर कुछ कहना लिखना नही हो पाया पढ़ के बस निशब्द रह गई थी लगा कुछ लिखना कम होगा इस पर ..यह पोस्ट बहुत दिल के करीब लगी इस लिए कुछ लिख पाने की हिम्मत कर रही हूँ .माँ के बारे में आपने बहुत ही सुंदर ढंग से हर लफ्ज़ को लिखा है