मोहल्ला में अविनाश ने जिस सलीके से इस ब्लॉग का लिंक लगाया, उसके लिए अगर मैं उसका शुक्रिया अदा करूं तो वह हमारे संबंधों का बौनापन होगा। और लिंक लगाने के जज्बे की अगर चर्चा न करूं तो वह मेरा ओछापन...। बहरहाल चुप रहूंगा और इंतजार करूंगा अविनाश के संस्मरण का। फिलहाल प्रियदर्शन के लेख का आखिरी हिस्सा :
-अनुराग अन्वेषी
शायद कुछ और लिखने के इरादे से यह लेख शुरू किया था, मगर कुछ और लिखता चला गया। मां तक पहुंचने की कोशिश कई बार की, मगर हर बार डर गया। उसके आसपास से, अगल-बगल से निकल गया।
या ऐसा ही होता है? जिसे हम जानते हैं, उसके बारे में बताना मुश्कल होता है। क्योंकि जानना शायद शब्दों से परे की क्रिया है। या मन के कई दरवाजे ऐसे होते हैं, जिनकी कुंजी शब्दों के पास भी नहीं होती। शब्द दस्तक देते हैं, और लौट आते हैं।
मां... बस... मां... है। इससे ज्यादा बताना मेरे लिए मुमकिन नहीं!
और आखिरी दिन! उसके एक दिन पहले मां बहुत कमजोर हो चुकी थी। उठने में असमर्थ और पूरी तरह से निराश कि अब ऐसी जिंदगी जीकर क्या करना है। हमलोग हिम्मत बंधा रहे थे कि यह तो अस्थायी समस्या है, जल्दी ही वह अपनी कमजोरी से उबर आएगी। अगले दिन मां ने हिम्मत बांध ली थी। ग्लूकॉन डी लगातार पी रही थी। उस दिन उसे अच्छा लग रहा था, उसने मुझसे खुद कहा था। उम्मीदों के तार फिर जुड़ रहे थे। मां के पेट में दर्द भी नहीं था। मगर पापा के भीतर यह आशंका सिर उठा रही थी कि कहीं शरीर के भीतरी अवयव मर नहीं रहे हों। मैंने इस आशंका को तुरंत झटक दिया, शायद इसका मेरे तर्क से ज्यादा मेरी इच्छा से संबंध था। शाम को मैं चौकी खरीदने निकला। लौटकर आया तो रेमी ने बताया कि मां अचानक बहुत बेचैन हो गयी थी। लगातार मालिश से थोड़ी राहत मिली है। उधर मां को लगातार उलटियां हो रही थीं। मुझे लगा कि पानी की कमी की वजह से बेचैन हुई होगी। हमलोगों ने जोर दिया कि वह थोड़ा इल्क्ट्रॉल पाउडर का घोल पी ले। लेकिन उसके लिए वह बिल्कुल तैयार नहीं हुई। अचानक मैंने पूछा, 'लिम्का पियोगी मां?' उन दिनों मां लिम्का खूब पसंद करती थी और मेरा ख्याल है कि जितनी निरंतरता से उसने उन दिनों शीतल पेय लिये थे, उतनी निरंतरता से जीवन में कभी नहीं। उसने तुरंत हां कर दी। पापा अनिच्छुक थे। उन्हें लग रहा ता कि इससे अगर सर्दी लग गयी तो कमजोर शैल और परेशान होगी। मगर मां की इच्छा देख वह भी मान गये। मां ने लिम्का पी। उसके तुरंत बाद चूड़ा-दूध लिया। इस जल्दी में एक अस्वाभाविकता थी, जो अब समझ में आती है। फिर पापा को कहा कि वह उनकी पीठ दबा दें। रेमी को कहा कि 'गुडनाइट' ऑफ कर दे, पापा को दिक्कत होती है। तब तक मेरे दोस्तों ने, जो बगल के कमरे में खाना परोस रहे थे, हमें पुकारा। (मैं अपने तीन दोस्तों मंजुल प्रकाश, संजय लाल और राजेश प्रियदर्शी के साथ रहा करता था।) मैंने मना किया, मगर मां ने कहा, 'जाकर खा लो। पापा तो यहां बैठे ही हुए हैं।'
हमलोग खा ही रहे थे कि पापा की घबरायी हुई आवाज आयी। हमलोग वहां पहुंचे। मां पापा का हाथ जोर से पकड़े हुए थी। मुझे देखकर लड़खड़ाते हुए स्वर में मां ने कहा 'ताकत की दवा दे दो', मैंने तेजी से दवा दी। फिर अचानक लगा कि उसे कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा है। कुछ समय पहले उसने रेमी से कहा था कि कान में भारीपन लग रहा है, कल तेल डाल देना। यह उनके अवयवों के मृत होते जाने का प्रमाण था। पापा की आशंका सही थी। अगले ही क्षण लगा कि वह देख भी नहीं पा रही है। हम तीनों मैं, पापा और रेमी मां को पुकार रहे ते। मैंने अपने दोस्तों को डॉक्टर के लिए भेजा। पापा की आवाज रुलाई के करीब पहुंच चुकी थी 'शैल, हमलोग, कल ही रांची चलेंगे शैल! हमलोग कल ही चलेंगे।...
मगर शैल, उसके पहले ही चल दी थी। अचानक उसके मुंह से बहुत मात्रा में काला-हरा सा द्रव बह निकला। वह पिछले कुछ घंटों से लगातार उल्टी करने की कोशिश कर रही थी, ताकि उसे आराम मिले। उसके बाद एक बहुत हल्की सी हरकत हुई, जिसे मैंने भवों के पास और रेमी ने गरदन के पास पहचाना था। फिर उसकी सारी हरकतें हमेशा के लिए खत्म हो चुकी थीं। मां, शैल, शैल दी, शैलप्रिया जा चुकी थी, अपनी उम्र के अड़तालीस साल लगभग पूरे करके। 1 दिसंबर 1994 को रात 10:15 बजे के आस-पास।
डॉक्टर ने बताया था कि मरते वक्त मां बहुत तकलीफ में होगी। मगर ऐसा हुआ नहीं। उस दिन वह खुद भी छली गयी थी। मृत्यु के हाथों। पूरे दो महीने मां दिल्ली में रही। 1 अक्तूबर की रात से 1 दिसंबर की रात तक। पता नहीं नियति का यह कौन सा शाप था जिसे उसने दो महीने तक दिल्ली में काटा। जहां वह तमाम उम्र रही, जिस घर की दीवारों, ईंटों और छतों का बनना देखा, वहां से 1400 मील दूर दिल्ली के एक अनजाने मुहल्ले के अनजाने मकान में उसने अपने आखिरी दिन गुजारे। दो महीने का उसका घर... मगर इस घर की कथा मुझसे बेहतर पापा बता सकते हैं।
शायद कुछ और लिखने के इरादे से यह लेख शुरू किया था, मगर कुछ और लिखता चला गया। मां तक पहुंचने की कोशिश कई बार की, मगर हर बार डर गया। उसके आसपास से, अगल-बगल से निकल गया।
मां... बस... मां... है। इससे ज्यादा बताना मेरे लिए मुमकिन नहीं!
कुछ कहने को शब्द नही हैं ..माँ कि यादों के संग आपके साथ चलना अच्छा लगा
ReplyDeleteकहते है माँ के बारे में कुछ भी लिखा जाए अपने आप खूबसूरत हो जाता है....इत्तिफकान कथा देश में मन्नू भंडारी पर संग्रह विशेषांक आया है जिसको तसल्ली से पढने की फुर्सत रोज निकालने की कोशिश है...जाने क्यों आज प्रियदर्शन जी को पढ़कर लगा ....की तस्वीर में कुछ समानताये भी है .अलग अलग भागोलिक परीस्थिति में रहकर भी माँ एक सी रहती है.....मुनव्वर राणा जी के शेर है.....
ReplyDeleteमेरे बुज़ुर्गों का साया था जब तलक मुझ पर
मैं अपनी उम्र से छोटा दिखाई देता था
ओर
हमारी मुफ़्लिसी हमको इजाज़त तो नहीं देती
मगर हम तेरी ख़ातिर कोई शहज़ादा भी देखेंगे
मां मां ही होती हैं....पढने के लिए अच्छी सामग्री मिल गयी आपके ब्लाग में....अच्छा लगा आपका ब्लाग।
ReplyDeleteIs blog ke kaafi saari post pari, aapki maa se juri aur bhaiyon ki .....bus par kar aankhen bhar aayi visheshkar woh post jisme aapke bhaiji ne likha hai woh 42 ke ho jayenge aur aapki maa 48 ki thi jab.....
ReplyDeleteMaa ko itna chahne wale bahut kam aur mushkil se milte ho shayad ya aise ijhaar karte hon