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ल्ली पहुंचकर शुरू हुआ एम्स का सिलसिला। कई तरह की जांच प्रक्रियाओं में वक्त गुजरता रहा। भइया जहां रहता है (पांडव नगर) वहां से एम्स की दूरी करीब 20-22 किलोमीटर की है। हर तीसरे दिन एम्स जाना पड़ता। उतनी दूर की यात्रा में बहुत थक जाती थी मां। मैं, मामी और मां ही ऑटो में होते, भइया बस से वहां पहुंचता था। कुछ समझ में नहीं आता था कि डॉक्टर ऑपरेशन की तारीख क्यों नहीं निश्चित कर रहे हैं? पापा रांची में बेसब्री से हमारे फोन का इंतजार करते थे। हां, इस दरम्यान कई सुखद नतीजे हमारे सामने आये। एम्स के डॉक्टर ने पहली बार देखकर ही कहा, खाने-पीने में किसी परहेज की कोई जरूरत नहीं। और मां अपनी पसंद की कुछ चीजें खाने लगी। चूंकि खाना पचनता नहीं था इसलिए थोड़ा ही खा पाती थी। वहां की दवा से मां के पेट का दर्द तो करीब-करीब गायब ही हो गया। इससे मां को बड़ी राहत मिली। सप्ताह-दो सप्ताह मां का थोड़ा खाना 'बहुत थोड़ा' में तब्दील हो गया। दिन भर में मुश्किल से एक रोटी या थोड़ा चावल और तीन-चार बिस्किट।
25 अक्टूबर को मां की बायोप्सी हुई थी। मैं मां के पास हॉस्पिटल में था। पापा 26 की रात रांची से दिल्ली पहुंचे। दूसरे दिन सुबह वह एम्स आये। पता नहीं क्यों उस वक्त पापा को देखते ही मुझे बहुत तेज रुलाई आने लगी। मां की बड़ी-बड़ी आंखों में आंसू थे। बड़ी अजीब स्थिति थी मेरी। किसी तरह अपनी रुलाई पर मैंने काबू रखा। मां की कंपकपाती आवाज मैंने सुनी और कमरे से बाहर निकल गया।
उस अनजाने महानगर में पराग भइया की भागदौड़, कभी इस डॉक्टर के पास तो कभी उस। मैं अपाहिज की तरह मां के पास बैठा रहता। पापा को देखते मैंने बड़ी राहत महसूस की। लगा कि भइया की परेशानियों को अपने सिर पर उठा लेने वाला समर्थ व्यक्ति अब यहां आ चुका है। सचमुच, भीतर से अब मैं बड़ा आश्वस्त था।
(जारी)
jameen se juda hua insan hi maa ki baato ko garv ke saath kisi se keh sakta hai. sir aapki is bhawnayo ka kya jawab samajh nahi aata. really sir aapne apni bhawnayo ko is tarah ukera hai ki mere pas isst behtar kuch kahne ke liya hai hi nahi. bokaro ho ya ranchi ya phir ye bedil dilli sabki kahani kuch alag hi hai.
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