'चांदनी आग है' संकलन की दूसरी कविता है निष्कर्ष। इसे पढ़ते हुए उस वक्त जो बातें मन में आईं, उसे मैंने यहां भी रख दिया है। बायीं ओर मां की कविता है और उसके बगल में मेरी प्रतिक्रिया।
-अनुराग अन्वेषी
शून्य की तलाश
अंधेरी सीढ़ियों से जब फिसल जाते हैंपांव
घायल तन/मन
दिशा तलाशते हैं
युद्ध से जब
उकता जाता है मन
तो याद आते हैं
अपने लोग,
अपनी धरती,
अपना खून
किंतु
शून्य के खोज की यात्रा
जारी रहती है।
-अनुराग अन्वेषी, 9 फरवरी'95,
रात 1.00 बजे
निष्कर्ष
आम आदमी से
खैरियत पूछते हुए
जूझती हूं अपने से।
अखबारी कतरनों
के बीच
शांति तलाशते लोग
गुमराह सीढ़ियां तय करते हैं।
उनमें अपने को भी शामिल
महसूसती हूं बार-बार।
भटकाव की दिशा में
फन काढ़े नाग की कोठरी में
मणि की प्राप्ति नहीं हो सकती।
शक्तिहीन रीढ़ के पीछे
वार करते कभी सोचा है
कि यह अपने लोग हैं,
यह अपनी धरती है,
यह अपनी ही माटी है,
यह अपना ही खून है।
बहुत सुन्दर गहरी रचना और प्रभावशाली प्रतिक्रिया. आभार इस प्रस्तुति के लिए.
ReplyDeleteबहुत सुंदर...आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है.....आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे .....हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
ReplyDeleteआपका स्वागत है।
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