दो दिनों के बाद अगली किस्त कंपोज करने की हिम्मत जुटा पाया हूं। किसी तकलीफदेह प्रसंग को दोबारा जीना कितना मुश्किल है यह अहसास यह ब्लॉग बार-बार करा रहा है। जी में आता है, इसे अधूरा ही छोड़ दूं। फिर मन कहता है, नहीं! इसे पूरा कर। नहीं पता इस ब्लॉग का सिलसिला कब तक जारी रख पाऊंगा। फिलहाल, भइया के संस्मरण का अगला हिस्सा।
-अनुराग अन्वेषी
और तब मुझे पता चला कि डॉक्टर ने जो कहा, उसका मतलब क्या है। मैं आमतौर पर नहीं रोता। भीड़ में तो कतई नहीं। इसे अपनी बहादुरी नहीं, कमजोरी मानता हूं। मगर उस दिन एम्स के अलग-अलग कोनों में सुबकते हुए कितना समय बीत गया, पता नहीं चला। काफी देर बाद नीचे उतरा। अजीब-अजीब ख्याल। बस न आये। बस में मैं चढ़ूं नहीं। मां का सामना करने की नौबत न आये। बस आयी। मैं बस में चढ़ा। माथा घूम-सा रहा था। मानो बोझ ढोने का अहसास।
27 तारीख की शाम एम्स से छुट्टी मिल गयी थी। मैं, पापा और मां थे। हमलोग तीनों ऑटो से घर लौट रहे थे अपने थोड़े, बहुत सामानों के बास्केट के साथ। उस दिन बहुत हल्की-हल्की हवा बह रही थी। वह हवा अनायास मुझे बहाती हुई कई-कई साल पीछे ले गयी। बहुत साल पहले रांची में भी एक अस्पताल से टेंपो चला था। उस दिन भी मां को छुट्टी मिली थी। उस दिन भी टेंपों बस हम तीन ही थे। हां, साथ में सामान की तरह नवजात अनुराग भी था। उस दिन भी हवा चल रही थी और तीन साल का पराग 'हवा-हवा' करता हुआ चेहरा छुपा रहा था और उसके पापा-मां उसे संभाले हुए थे। इस घटना की बहुत मद्धिम सी याद मेरे भीतर है। वह भी शायद पापा-मां से कई बार सुनने के कारण एक धुंधली सी आकृति बन गयी है। तो उस दिन 27 अक्तूबर 94 को वह धुंधली सी आकृति मेरे भीतर बहुत-कुछ धुंधला-धुंधला कर गयी। पता नहीं, उस वक्त पापा-मां के दिमाग में यह साम्य कौंधा था या नहीं। मगर मुझे लगा था कि तीन लोगों का यह सफर कहां से कहां पहुंच गया। यह सफर जल्दी खत्म होने वाला है, इसकी आशंका उस भावुक स्मृति में कहीं से नहीं थी।
जैसे किसी विस्फोट के तत्काल बाद कान सुन्न-से हो जाते हैं, मेरा दिमाग सुन्न हो गया था। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया। मैं कमरे से बार निकला। बाहर भीड़ थी, मरीजों की आवाजाही, ट्रालियों की खड़खड़ाहट, दीवार पर टंगे सूचना पट्ट, फुसफुसाहटें, कराह, खांसने की आवाजें, बंधे हुए पलास्टर, बदरंग दीवारें और इथर की-सी गंध - मैं फिर असली दुनिया में लौट आया था। और तब मुझे पता चला कि डॉक्टर ने जो कहा, उसका मतलब क्या है। मैं आमतौर पर नहीं रोता। भीड़ में तो कतई नहीं। इसे अपनी बहादुरी नहीं, कमजोरी मानता हूं। मगर उस दिन एम्स के अलग-अलग कोनों में सुबकते हुए कितना समय बीत गया, पता नहीं चला। काफी देर बाद नीचे उतरा। अजीब-अजीब ख्याल। बस न आये। बस में मैं चढ़ूं नहीं। मां का सामना करने की नौबत न आये। बस आयी। मैं बस में चढ़ा। माथा घूम-सा रहा था। मानो बोझ ढोने का अहसास। घर पहुंचा। पता नहीं, कहां से ताकत मिल गयी थी। मां अधीरता से इंतजार कर रही थी, 'डॉक्टर क्या बोला रे?' मेरे होठों पर ढीठ हंसी थी, 'तुमको बुलाया है, बोला कि पेशेंट को देखे बिना ऑपरेशन की तारीख देना मुश्कल है।' डॉक्टर ने कहा भी था, मरीज को लेकर आना।
इसके बाद का एक महीना पता नहीं कितने पृष्ठों की मांग करता है। एक-एक दिन का हिसाब स्मृति में अभी तक ताजा है। डॉक्टर से मेरी और पापा की बातचीत, डॉक्टर से मां के बचने की संभावना से पूरी तरह इनकार, बस उन्हें आराम पहुंचाने के लिए इंडोस्कोपी, यानी गले के जरिये पाइप डालकर भीतर की सफाई की तजबीज, टलती तारीखें, असफल होता इंडोस्कोपी का प्रयास, एक होम्योपैथ बंगाली डॉक्टर की दवाएं, अपने ही से डरी हुई उम्मीदें, लगातार क्षीण और क्षीणतर होती मां...।
(जारी)
बहुत अच्छा ...जारी रखें।
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