'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

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Saturday, January 17, 2009

पता नहीं, कहां से मिल जाती है हिम्मत

दो दिनों के बाद अगली किस्त कंपोज करने की हिम्मत जुटा पाया हूं। किसी तकलीफदेह प्रसंग को दोबारा जीना कितना मुश्किल है यह अहसास यह ब्लॉग बार-बार करा रहा है। जी में आता है, इसे अधूरा ही छोड़ दूं। फिर मन कहता है, नहीं! इसे पूरा कर। नहीं पता इस ब्लॉग का सिलसिला कब तक जारी रख पाऊंगा। फिलहाल, भइया के संस्मरण का अगला हिस्सा।

-अनुराग अन्वेषी

मां (पांचवीं किस्त)

-प्रियदर्शन

टनाएं ढेर सारी हैं। अनगिनत कंटीली स्मृतियां, तारीखों के फन काढ़े नाग, अपनी बेबसी के खौलते हुए कड़ाह में अस्पताल में चक्कर लगाता मेरा वजूद, मां को दिलासा देने की कोशिश करती मेरी खोखली हंसी, पापा के अद्भुत धीरज का बांध, जो मां के देहांत के बाद सहसा टूट गया और वह कमजोर हो गये, रेमी की अनजानी प्रतीक्षा कि मां ठीक हो जाएगी, अनुराग की जज्ब की हुई भावनाएं, और-और हट्टियों का ढांचा होती मां। वह अचानक बहुत बूढ़ी लगने लगी थी। आयुर्विज्ञान संस्थान में उसके हमउम्र या उससे थोड़ा छोटे-बड़े डॉक्टर उसे मांजी कहते।

और तब मुझे पता चला कि डॉक्टर ने जो कहा, उसका मतलब क्या है। मैं आमतौर पर नहीं रोता। भीड़ में तो कतई नहीं। इसे अपनी बहादुरी नहीं, कमजोरी मानता हूं। मगर उस दिन एम्स के अलग-अलग कोनों में सुबकते हुए कितना समय बीत गया, पता नहीं चला। काफी देर बाद नीचे उतरा। अजीब-अजीब ख्याल। बस न आये। बस में मैं चढ़ूं नहीं। मां का सामना करने की नौबत न आये। बस आयी। मैं बस में चढ़ा। माथा घूम-सा रहा था। मानो बोझ ढोने का अहसास।

वह इस संबोधन पर हंसती थी, हमलोग भी हंसते थे, लेकिन इस हंसी के पीछे के सच का जो डरावना चेहरा था, उसे पहचानने से हम सब डरते थे। बहुत दिन बाद मां ने कभी आईना देखा था। देखा और देखती रह गयी, आर्त्त और स्तब्ध, 'यही मेरा चेहरा है!' उस दिन भी हमलोगों ने दिलासा दिया कि ठीक हो जाओगी।

मगर यह बाद की बातें हैं। उसके पहले भी जिंदगी कई बार उम्मीदों-नाउम्मीदों का झूला बनी थी। दिल्ली आने के पहले नाउम्मीद सी थी मां। शायद बहुत भरे मन से विदा हुई होगी वह। लेकिन दिल्ली आकर एक उम्मीद सी जग गयी थी। एम्स के पीले-धूसर गलियारे में भागते-दौड़ते डॉक्टरों-नर्सों के बीच एक पीली सी उम्मीद। मां की आंखें उन दिनों बिल्कुल पीली रहा करती थीं। सितंबर से उसे जॉन्डिस था, जो पीछा नहीं छोड़ रहा था। छोड़ता भी कैसे? दरअसल वह मृत्यु का संदेशवाहक होकर आया था। शुरुआती परीक्षणों के बाद संस्थान के डॉक्टरों ने 'बायोप्सी' के लिए ऐडमिट किया। सबको लगने लगा था कि एक बार दाखिला मिलने के बाद ठीक होकर लौटेगी मां। 25 अक्तूबर को मां 'बायोप्सी' के लिए भरती हुई। 26 की रात पापा रांची से दिल्ली पहुंचे। नयी योजनाओं से भरपूर, नये भरोसे से लैस। रांची में उनके मित्रों ने कहा था, उनका समय अच्छा चल रहा है। उन्हें पीएच. डी. की डिग्री मिली थी। राधाकृष्ण पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई थी। 26 तारीख को ही मां के शरीर से मांस के कतरे परीक्षण के लिए लिये जा चुके थे।

27 तारीख की शाम एम्स से छुट्टी मिल गयी थी। मैं, पापा और मां थे। हमलोग तीनों ऑटो से घर लौट रहे थे अपने थोड़े, बहुत सामानों के बास्केट के साथ। उस दिन बहुत हल्की-हल्की हवा बह रही थी। वह हवा अनायास मुझे बहाती हुई कई-कई साल पीछे ले गयी। बहुत साल पहले रांची में भी एक अस्पताल से टेंपो चला था। उस दिन भी मां को छुट्टी मिली थी। उस दिन भी टेंपों बस हम तीन ही थे। हां, साथ में सामान की तरह नवजात अनुराग भी था। उस दिन भी हवा चल रही थी और तीन साल का पराग 'हवा-हवा' करता हुआ चेहरा छुपा रहा था और उसके पापा-मां उसे संभाले हुए थे। इस घटना की बहुत मद्धिम सी याद मेरे भीतर है। वह भी शायद पापा-मां से कई बार सुनने के कारण एक धुंधली सी आकृति बन गयी है। तो उस दिन 27 अक्तूबर 94 को वह धुंधली सी आकृति मेरे भीतर बहुत-कुछ धुंधला-धुंधला कर गयी। पता नहीं, उस वक्त पापा-मां के दिमाग में यह साम्य कौंधा था या नहीं। मगर मुझे लगा था कि तीन लोगों का यह सफर कहां से कहां पहुंच गया। यह सफर जल्दी खत्म होने वाला है, इसकी आशंका उस भावुक स्मृति में कहीं से नहीं थी।

यह आशंका किसी विस्फोट की तरह सामने आयी थी। वह 2 नवंबर की तारीख थी। उस दिन सुब अनुराग और मामी रांची के लिए रवाना हो चुके थे। अगले दिन दीवाली थी। मैं करीब दो बजे के आस-पास एम्स गया। बायोप्सी की रिपोर्ट का पता करने। रिपोर्ट जहां होनी चाहिए थी, वहां नहीं थी। डॉ. पीयूष साहनी, जिनकी देखरेख में मां की जांच चल रही थी, ने मुझे एक दूसरे डॉक्टर के पास भेजा। वहां से रिपोर्ट मिल गयी। बल्कि रिपोर्ट नहीं थी, मां के पुरजे पर ही उस डॉक्टर ने कुछ लिख दिया। उसे लेकर मैं डॉ. साहनी से मिला। तब डॉ. साहनी ने मुझे बताया : कि मां को कैंसर है, और दुनिया के किसी कोने में भी मां को नहीं बचाया जा सकता और जब उन्हें जॉन्डिस हुई थी, उसके तीन महीने से लेकर छः महीने के भीतर उनकी मृत्यु निश्चित है।

जैसे किसी विस्फोट के तत्काल बाद कान सुन्न-से हो जाते हैं, मेरा दिमाग सुन्न हो गया था। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया। मैं कमरे से बार निकला। बाहर भीड़ थी, मरीजों की आवाजाही, ट्रालियों की खड़खड़ाहट, दीवार पर टंगे सूचना पट्ट, फुसफुसाहटें, कराह, खांसने की आवाजें, बंधे हुए पलास्टर, बदरंग दीवारें और इथर की-सी गंध - मैं फिर असली दुनिया में लौट आया था। और तब मुझे पता चला कि डॉक्टर ने जो कहा, उसका मतलब क्या है। मैं आमतौर पर नहीं रोता। भीड़ में तो कतई नहीं। इसे अपनी बहादुरी नहीं, कमजोरी मानता हूं। मगर उस दिन एम्स के अलग-अलग कोनों में सुबकते हुए कितना समय बीत गया, पता नहीं चला। काफी देर बाद नीचे उतरा। अजीब-अजीब ख्याल। बस न आये। बस में मैं चढ़ूं नहीं। मां का सामना करने की नौबत न आये। बस आयी। मैं बस में चढ़ा। माथा घूम-सा रहा था। मानो बोझ ढोने का अहसास। घर पहुंचा। पता नहीं, कहां से ताकत मिल गयी थी। मां अधीरता से इंतजार कर रही थी, 'डॉक्टर क्या बोला रे?' मेरे होठों पर ढीठ हंसी थी, 'तुमको बुलाया है, बोला कि पेशेंट को देखे बिना ऑपरेशन की तारीख देना मुश्कल है।' डॉक्टर ने कहा भी था, मरीज को लेकर आना।

इसके बाद का एक महीना पता नहीं कितने पृष्ठों की मांग करता है। एक-एक दिन का हिसाब स्मृति में अभी तक ताजा है। डॉक्टर से मेरी और पापा की बातचीत, डॉक्टर से मां के बचने की संभावना से पूरी तरह इनकार, बस उन्हें आराम पहुंचाने के लिए इंडोस्कोपी, यानी गले के जरिये पाइप डालकर भीतर की सफाई की तजबीज, टलती तारीखें, असफल होता इंडोस्कोपी का प्रयास, एक होम्योपैथ बंगाली डॉक्टर की दवाएं, अपने ही से डरी हुई उम्मीदें, लगातार क्षीण और क्षीणतर होती मां...।

(जारी)

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