'शेष है अवशेष' आपकी लिपि में (SHESH HAI AVSHESH in your script)

Hindi Roman Gujarati Bangla Oriya Gurmukhi Telugu Tamil Kannada Malayalam

'शेष है अवशेष' पर कमेंट करने के लिए यहां रोमन में लिखें अपनी बात। स्पेसबार दबाते ही वह देवनागरी लिपि में तब्दील होती दिखेगी।

Saturday, January 10, 2009

मां के आखिरी दिन

मां पर केंद्रित 'प्रसंग' के 'शैलप्रिया स्मृति अंक' का पहला संस्करण 1995 में आया था। उस वक्त हमसबों को अहसास था कि हम बेहद ऊंचाई से गिरे हैं पर यह होश नहीं था कि चोट कहां-कहां लगी है। अब जब प्रसंग में छपी चीजों को कंपोज कर रहा हूं तो मेरे सामने बार-बार वही समय खड़ा हो जाता है... जिन बुरे दिनों की याद से मैं अक्सर भागने की कोशिश करता था, फिर उन्हें जीना पड़ रहा है। वाकई मां का नहीं रहना, बेहद तकलीफदेह स्थिति है। बहरहाल, पढ़ें रेमी के संस्मरण का आखिरी हिस्सा...

-अनुराग अन्वेषी



अनामिका प्रिया

मां

जब नहीं रही, मन बड़ा घबराया। मन ही मन कहती, मां तुम किसके भरोसे हमलोग को छोड़कर चली गयी। आज भी जब पापा बहुत हांफते हैं, मैं मन ही मन कहती हूं धीरज देना मां। और लगता भी है कि मां हिम्मत देती रही है आज तक। सचमुच हम लोगों ने कल्पना में भी नहीं सोचा था कि मां नहीं होगी, वह बुरा दिन भी कभी आयेगा।

मेरे दिल्ली पहुंचने पर भइया ने बताया कि मां का गंभीर ऑपरेशन जिगर के पास होना है। भइया की आंखों और उसकी आवाज में ऐसा कुछ था, जिसे मैं कभी भूल नहीं सकती। हम तीनों भाई-बहन काफी चिंतित से घर आये थे। मां को जब देखा तो काफी धक्का लगा। बहुत दुर्बल लगी थी। आंखों का पीलापन और गहरा हो गया था। लंबे और ज्यादा तकलीफ के क्षणों को झेलते हुए जैसे ललाट खिंच गया था। और सबसे ज्यादा धक्का तो तब लगा जब मैंने मां की बांह पकड़ी तो लगा हड्डी ने मांस को छोड़ दिया है। कुछ महीने पहले तक मां की ऐसी स्थिति की कल्पना तक नहीं हो सकती थी। वह हड्डी का ढांचा हो गयी थी, त्वचा सिकुड़ गयी थी। उसपर लगातार होती उल्टी और आंखों का गहरा पीलापन। सचमुच एक दिन में कितनी बार उसका आत्मविश्वास डगमगाता होगा। बहुत दुख हुआ जब देखा वह एक चार साल के बच्चे से भी कम खाती है। उस रात नींद नहीं आई। आंखों में आंसू आते-जाते थे, बहते जाते थे, शायद अनुराग भइया की भी स्थिति ऐसी ही थी।

मां बीमार जरूर थी, लेकिन उसका सोचना-विचारना, समझना अंतिम समय तक सामान्य रहा। वह सुबह उठती और धीरे-धीरे चलकर मुंह-हाथ धोती और फिर धूप में बैठ जाती। वह कभी-कभी बताया करती थी कि एम्स में उसका इलाज किस तरह चल रहा था। वह अपने पुराने दिनों के बारे में बताया करती थी। कभी-कभी मां मेरा हाथ पकड़कर छत पर घूमा करती थी। वह समय तो अब इतिहास हो गया। हमलोग एम्स जा रहे थे। मां, पापा और मेरे बीच बैठी थी। जब मां का हाथ मुझसे सटता मुझे भय-सा होता कि मेरा हाथ मां को भार-सा न लगे। मां को ऑपरेशन कक्ष में ले जाया गया था। भइया दरवाजे के बाहर मां को देख रहा था, पापा विचलित होकर टहल रहे थे। मैं मैदान में थी। मुझे लगा मेरी रुलाई जज्ब नहीं हो पा रही थी। थोड़ी देर बाद देखा भइया मां को ला रहा है। ऑपरेशन की कोशिश सफल नहीं रही थी। मां को नींद का इंजेक्शन पड़ा था, वह आंखें नहीं खोल पा रही थी।
फिर मां का इलाज डॉ. घोषाल से चलने लगा था। प्रारंभ में वह कुछ स्वस्थ होती नजर आई थी, लेकिन कई रोज बाद अचानक कमजोरी बढ़ती चली गयी थी। जब वह उठती थी, उसे लगता पूरे शरीर का खून सिर पर चढ़ गया, माथा गरम हो जाता, सब कुछ घूमने-सा लगता। 29 नवंबर की रात वह मेरी गोद में बेहोश हो गयी थी, फिर दूसरे दिन पापा के कंधे पर। उस सुबह से मां उठ नहीं सकी। रेंगते हुए एक बिछावन से दूसरे बिछावन पर गयी थी। तब हम नीचे जमीन पर सोया करते ते। उसकी स्थिति बड़ी दयनीय हो गयी थी।

फिर भी हमलोगों के लिए उसकी चिंता यथावत बनी रही। जीने-मरने की आशाओं-निराशाओं से जूझती वह किस तरह हमारा ख्याल रख पाती होगी। उसे मच्छर काटता लेकिन वह पापा की सांस में तकलीफ होने की वजह से गुडनाइट नहीं लगाने देती। सोने की इच्छा होने पर भी जब पापा कमरे में पढ़ते होते, वह बत्ती बुझाने से मना कर देती। उतनी लगातार हो रही उल्टी के बाद भी उसने कभी कमरे में उल्टी की हो, ध्यान नहीं आता। मैं रोज पूछती, क्या खाओगी मां, तो उसका प्रायः एक ही जवाब होता 'कुछ भी'। शायद किसी तरह की परेशानी नहीं देना चाहती थी वह।

उसकी बिगड़ती हुई स्थिति और खाने में अरुचि देखकर हमलोग चिंतित थे। सबने उसे समझाया कि अगर वह खाने-पीने की कोशिश नहीं करती है तो उसका दुबारा खड़ा होना काफी मुश्किल हो जायेगा। और सचमुच 1 दिसंबर की सुबह लगा, वह अपने को खड़ा करने की अंतिम कोशिश में जुट गयी है। दिन भर बराबर कुछ न कुछ लेने की कोशिश वह करती रही। उसकी तबीयत उस दिन थोड़ी ठीक भी लगी थी, लेकिन शाम को अचानक उसकी बेचैनी काफी बढ़ गयी थी। सिर में तेल की मालिश और पंखे की हवा करने के बाद वह तनिक सामान्य हो पायी थी।

उन दिनों बहुत अजीब-सा लगता। एक तरफ बीमार मां और दूसरी तरफ अस्वस्थ पापा। पापा को सांस की तकलीफ बहुत ज्यादा बढ़ने लगती, मां ज्यादा हिलडुल या उठकर नहीं देख पाती, लेकिन पापा की ओर आंखें घुमाकर चिंता से देखा करती।

उस रात दस बजे मां की बेचैनी शाम की तरह ही अचानक बहुत बढ़ गयी थी। पापा ने हमलोगों को आवाज दी। मैं और पराग भइया दूसरे कमरे से वहां पहुंचे। मां की आवाज लड़खड़ा रही थी। और फिर विवशता से हम एक-दूसरे को देखते रहे और जैसे लगा एक ही झटके में मां ने साथ छोड़ दिया। दूसरे दिन शवलेपन के लिए हम एम्स गये थे। वहां से मां को ताबूत में डालकर सीधे एयरपोर्ट भेज दिया गया। बड़ा अजीब-सा लगा कि कल तक जिस व्यक्ति की इतनी चिंता थी कि कहीं उसे सर्दी न लग जाये, खांसी न हो जाये, और आज रात वह एक बंद डिब्बे में किसी अंधेरे तहखाने में पड़ी होगी। पापा पुराने दिनों को याद कर रहे थे। मेरे ख्यालों में भी पता नहीं क्यों मां की बहुत पुरानी छवि याद पड़ रही थी। दो चोटी बना खिलखिलाते हुए। लेकिन निश्चल पड़ी मां मेरी भावनाओं से बिलकुल अलग थी। पापा की शैल सचमुच शैल हो गयी थी।

2 comments:

  1. पढ़ते पढ़ते आँखें नम हो गई.

    ReplyDelete
  2. टीप इसलिए नहीं छोड़ रही कि कहने को कुछ है...

    शब्द, जज़्बा और सुंदर लेखन का ऐसा रूप देखकर नि:शब्द ही होता है इंसान...

    ReplyDelete